आगे बढ़ो

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मंत्र-दीक्षा-प्राप्त साधकों को संदेश

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

तुम्हें मंत्र दीक्षा के साथ मार्ग दर्शक सूचनाएँ भी मिल गयी हैं। अब आवश्यकता है केवल अभ्यास की। अभ्यास के बिना दीक्षा का पूरा लाभ नहीं मिल पाता। अब मार्ग मिल ही गया है ईश्वर की और जाने का, तो वीरतापूर्वक आगे बढ़ो। आत्म साक्षात्कार का दृढ़ संकल्प करने वाले का रास्ता कौन रोक सकता है ? तुमको अकेला पाकर ईश्वर तुम्हारा साथी, सखा एवं सर्वस्व बनेगा। ईश्वर के अस्तित्त्व का गहन अनुभव करने के लिए और सबको भूल जाना, यह अत्युत्तम नहीं है क्या ? प्रकृति स्वयं तुम्हारे समक्ष सत्य को प्रकट करेगी।

इस प्रकार हर चीज तुम्हारे लिए आध्यात्मिक बन जायेगी। घास का एक तिनका भी आत्मा का उपदेश करने लगेगा। परमात्मा कहते हैः तुम जब सब छोड़कर मेरे मार्ग पर चलोगे तो याद रखोः मेरा प्रेम और बुद्धियोग हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगे।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।

तुम परमात्मा के जितने नजदीक आओगे, उतनी ही अधिक अन्तर्दृष्टि तुम्हें प्राप्त होगी। पूरे अस्तित्त्व के साथ तुम अपना तादात्म्य महसूस करोगे। आज से तुम अपने को जीवरूप से मृतक मान लो। अपने दिल की डायरी में लिखकर रखो कि कभी-न-कभी कैसे भी करके अपरिच्छिन्न आत्मदेव के आगे तुम्हें अपने परिच्छिन्न व्यक्तित्त्व का बलिदान देना ही होगा, देहाध्यास को छोड़ना ही पड़ेगा। तुम इसके लिए उत्साहित होगे तो मार्ग जल्दी कट जायेगा लेकिन यदि उत्साहहीन होकर चलोगे तो मार्ग लंबा हो जायेगा।

तुममें यदि उत्सुकता, आकांक्षा हो तो समय का उचित उपयोग करो।  प्रत्येक प्रसंग का लाभ उठाओ। यदि प्रयास करो तो तुम जैसे हो और जैसा होना चाहते हो’ इन दोनों के बीच का फासला एक ही छलाँग में पार कर सकते हो। अतः जल्दी करो। जैसे, शेर अपने शिकार पर कूद पड़ता है, वैसे ही तुम अपने लक्ष्य पर जम जाओ। अपने मर्त्य शरीर पर दया न करो, तभी तुममें अमर आत्मा का प्रकाश आलोकित हो उठेगा।

दुःखों पर ध्यान मत दो। विविधता का क्या काम है ? जब विश्वात्मा स्वयं प्रकट हो रही है तब विविधता की चाह क्यों कर रहे हो ? विविधताएँ केवल शारीरिक हैं। उन पर कतई ध्यान मत दो। केवल एक अंतर्यामी से संबंध रखो। अनेक से नाता तोड़ दो। एक साधे सब सधे सब साधे सब जाये।

वैराग्य की शक्ति जुटाओ और चिन्ता मत करो। तुम ही तुम्हारे मित्र भी हो और शत्रु भी।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः। (गीता)

एक ही झटके से पूर्व के संस्कारों के बंधन काट डालो। एक बार दृढ़ निश्चय का उदय हो गया तो कार्य सरल बन जायेगा। तुम्हारे चिन्मय वपु के निर्माण और उसके पोषण में परमात्मा की करूणा और आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ हैं। विश्वास रखो। विश्वास में ही कल्याण निहित है।

दूसरों के मान-सम्मान का क्या काम है ? तुम्हारे लिए वे सब निरर्थक हैं। याद रखोः जब तक तुम अन्य लोगों से मानप्राप्ति की अपेक्षा रखते हो, तब तक समझ लो कि मिथ्याभिमान ने तुम्हारे भीतर अड्डा जमा रखा है। अपनी दृष्टि में ही पवित्र बनो। अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी तनिक भी परवाह मत करो। अपनी उच्चतम प्रकृति का अनुसरण करो। जो जागता है उसको अपना अनुभव भी उपदेश दे सकता है। व्यर्थ की बातों में समय व्यतीत मत करो।

सब प्रकार से अपना ही आश्रय लो। मार्गदर्शन के लिए अपने भीतर ही अंतर्यामी परमात्मा की ओर दृष्टि डालो। तुम्हारे अभ्यास की प्रामाणिकता तुमको दृढ़ बना देगी। वह दृढ़ता तुमको लक्ष्य तक पहुँचा देगी। तुम्हारी सच्चाई तुमको सब भयों से मुक्त करेगी। तुमको परमात्मा के आशीर्वाद… सदा सदा के लिए आशीर्वाद हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2001, पृष्ठ संख्या 5, अंक 100

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