उचित और सुख को एक कर दें

उचित और सुख को एक कर दें


संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ज्यों-ज्यों भगवद् ज्ञान और भगवद् सुख मिलता है त्यों-त्यों संसार से वैराग्य होता है और ज्यों-ज्यों संसार से वैराग्य होता है त्यों-त्यों भगवदरज्ञान और भगवदसुख में स्थिति होती है।

एक होता है उचित, दूसरा होता है सुख। उचित और सुख को एक कर दो तो जीवन परम सुख परमात्मा से सराबोर हो जायेगा और आप जीवन्मुक्त हो जायेंगे।

उचित और सुख को जब अलग कर देते हैं तो जीवन विक्षिप्त हो जाता है, दुःखी हो जाता है, अनुचित हो जाता है। जैसे संयम करना, ब्रह्मचर्य पालना उचित है लेकिन देखा किसी युवती को, उसके हाव-भाव को अथवा युवती ने देखा युवक को, उसके हाव-भाव को किः ‘बड़ा अच्छा लड़का है, सुदृढ़ है, मेरी तरफ देखता भी है….’ तो यह उचित नहीं है। अनुचित करने में सुख की लालच हो जाती है। जब सुख की लालच को महत्त्व देते हैं तो अनुचित करने लगते हैं और अनुचित का फल भी अनुचित होता है।

सत्य बोलना उचित है, धोखा करना अऩुचित है लेकिन देखते हैं किः ‘झूठ बोलने से लाभ हो रहा है…. धोखा करने से इतना मिल रहा है….’ तो उचित को छोड़ देते हैं और अनुचित करने लगते हैं। फिर अनुचित का परिणाम भी देर-सवेर अनुचित ही आयेगा।

नौकरी करते थे एक सज्जन। रिश्वत का पैसा उचित नहीं है-ऐसा सोचकर नहीं लिया। दूसरे ऑफिसरों की नजरों में वे मूर्ख साबित हो रहे थे। लेकिन उनका विचार उचित था तो निर्भीकता थी और मितव्ययी बनकर जीते थे।

फिर अनुचित करने वालों के सम्पर्क में आये और थोड़ा सा ले लिया…. अनुचित हो गया। अनुचित ढंग से आया वह दस साल रहा फिर ऐसे गया जैसे रूई के गोदाम में आग लगी हो। सब धन चला गया। कोर्ट खा गया, कुछ इधर उधर हो गया। अनुचित करने का फल उन्हें भोगना पड़ा।

अतः सुख और उचित-इन दोनों को अलग न किया जाये। जो उचित है वही सुखस्वरूप है, भले अभी वह दुःखरूप दिखता हो। जो उचित है वही सत्य है। सत्य ही उचित है, असत्य उचित नहीं है। जो सत्य है वह शाश्वत है। जो सत्य है वह चेतन है। जो सत्य है वह आनन्दस्वरूप है।

आप होशियार बनो। अपना ज्ञान बढ़ाओ। अपना ज्ञान….. नश्वर का ज्ञान नहीं। ‘मैं कौन हूँ ? जीव किसको बोलते हैं ? ईश्वर किसको बोलते हैं ? माया किसको बोलते हैं ?’ इसी प्रकार अपना ज्ञान बढ़ाओ, दूसरों का ज्ञान  बढ़ाओ।

सत्+चित्+आनंद = सच्चिदानंद परमेश्वर की शरण जायें। शरीर की शरण न जायें। अनुचित की शरण न जायें। उचित की शरण जायें।

जब उचित और सुख एक होता है तो आपके कदम ठीक जगह पर पड़ते हैं, ठीक निर्णय होते हैं, ठीक प्रयत्न होते हैं, ठीक परिणाम आते हैं। यदि दैवयोग से, प्रारब्ध से, वातावरण से, राजनीति से कहीं आपका शोषण अथवा अन्याय होता है फिर भी आप उचित ढंग से सह लेते हैं तो भीतर से आप बलवान रहेंगे।

अनुचित ढंग से राजनीति से, इधर से, उधर से कहीं पोषण भी होता हो, थोड़ा सुख भी मिलता हो लेकिन अंदर से आप खोखले हो जायेंगे। बिल्कुल पक्की बात है।

उचित और सुख का पार्थक्य कर देंगे तो उचित छोड़ देंगे और अनुचित करके सुखी होने की बेवकूफी करेंगे। अनुचित ढंग से खाकर मजा लिया फिर बीमार हुए। अनुचित ढंग से व्यवहार किया, उस समय मजा आया लेकिन बाद में भुगतना पड़ता है।

कहावत है न, दूध का दूध और पानी का पानी।

आज उचित का महत्त्व नहीं रहा…. धर्म का, शास्त्र का, नियम का, सदाचार का, दूसरे की भलाई का महत्त्व नहीं रहा। अपने को मजा आ जाये, अपनी भलाई हो जाये…… फिर अनुचित ढंग से हो जाये तो हो जाये।

ऐसा करने लगे हैं तो सभी दुःखी हैं। दुःख बढ़ गया है। सेठ भी दुःखी है तो नौकर भी दुःखी है। माई भी दुःखी है, भाई भी दुःखी है। पठित भी दुःखी है, अनपढ़ भई दुःखी है। अधिकारी भी दुःखी है, कर्मचारी भी दुःखी है।

अनुचित करके सुखी होने की गलती मिटाने को कटिबद्ध हो जायें। इसमें सहायता मिलती है भगवन्नाम से, शास्त्र-पठन से, अपने जीवन में कुछ व्रत-नियम के पालन से। अपने जीवन में कोई न कोई बढ़िया व्रत-नियम ले लें। व्रत –नियम को ध्यान के समय भी दुहरायें। इससे उस व्रत-नियम का पालन करने में मदद मिलती है।

जो उचित नहीं है वह भविष्य में सुखकारक नहीं है, भले अभी लगे। अतः उचित करेंगे। संयम उचित है, विकार अनुचित है। मौन उचित है, अति बोलना अनुचित है। नियम से खाना-पीना उचित है, अनियमित रूप से खाना-पीना अनुचित है। गृहस्थी है तो संयम से संसार-व्यवहार करना उचित है लेकिन अमावस्या, पूनम, एकादशी, जन्मदिवस अथवा महीने में एक से अधिक बार पति-पत्नी का व्यवहार अनुचित है। आज से अनुचित बंद। ऐसे ही प्रदोष काल में भोजन और मैथुन अनुचित है तो बंद।

जप करना, ध्यान करना, दान करना, पुण्य करना, सत्संग करना, स्वाध्याय करना, सेवा करना, नम्र बनना, आप अमानी रहना दूसरों को मान देना, अभय रहना, सत्त्वसंशुद्धि रखना, अहिंसक रहना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना यह उचित है। उचित का वरण…. इससे सुख की, सफलता की प्राप्ति होगी और मुक्ति की यात्रा अवश्य पूर्ण होगी।

रहते हैं मंदिर में, मस्जिद में, चर्च में, लेकिन अनुचित करेंगे तो चर्च क्या करें ? मस्जिद क्या करे ? मंदिर क्या करे ? रहते हैं मंदिर-मस्जिद में और उचित करते हैं तो मंदिर-मस्जिद का विशेष लाभ मिलेगा। जरा-जरा बात में झूठ बोलेंगे, आलसी बन जायेंगे, चोरी करेंगे तो फिर अनुचित करने पर उचित जगह का लाभ विशेष नहीं मिलता। इसलिए अनुचित न करें। अगर हो गया है तो व्यक्त करके दुबारा न करने का दृढ़ संकल्प कर लें। जो अनुचित करके भी सुखी होना चाहते हैं वे ज्यादा बीमार होते हैं, ज्यादा दुःखी होते हैं। इसलिए उचित और सुख को अलग न करें। जो उचित है, वही सुखकर है। अतः सदैव उचित का ही वरण करें और अनुचित का त्याग करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 101

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