सत्यस्वरूप की जिज्ञासा

सत्यस्वरूप की जिज्ञासा


संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जब बुद्धि सात्त्विक होती है तब बुद्धि में बुद्धि के प्रकाशक के विषय़ में जानने की जिज्ञासा होती है।

कईयों की तर्कप्रधान बुद्धि होती है तो कईयों की स्वीकृतप्रधान बुद्धि होती है। जिसकी बुद्धि तर्कप्रधान होगी उसे प्रश्न उठेगा कि जगत का रचयिता कौन है ? जिसकी बुद्धि स्वीकृतिप्रधान होगी वह स्वीकार करेगा कि जगत है तो उसका रचयिता भी है। रचयिता को मानने लग जाये- वह है भक्त और रचयिता को जानने की जिज्ञासा करे वह है जिज्ञासु। जिज्ञासु जानकर फिर मानता है और भक्त मानकर फिर परमेश्वर के स्वरूप को जान लेता है।

जब वह परमेश्वर के स्वरूप को जान लेता है तब उसकी सारी हृदय-ग्रंथियाँ खुल जाती हैं। सृष्टि के सारे रहस्य उसके आगे प्रगट हो जाते हैं। फिर उसे संसार की विचित्रता देखकर दुःख नहीं होता। हाँ, दुःखियों को देखकर करूणा होती है। दुःखियों को भी वह सुखी होने के रास्ते पर ले चलता है। साधारण लोग जिस प्रकार जगत को सच्चा मानकर जरा-जरा बात में सुखी-दुःखी होते हैं, वैसे पूर्ण भक्त या ज्ञानी सुखी-दुःखी नहीं होते हैं। उसे सुख-दुःख मन का खिलवाड़ मात्र लगता है। उसके लिए सुख भी मिथ्या है, दुःख भी मिथ्या है। खाना भी मिथ्या है, सोना भी मिथ्या है। जीवन भी मिथ्या है, मृत्यु भी मिथ्या है। सत्यस्वरूप एक परमात्मा है। वही ज्ञानस्वरूप एवं अनंत ब्रह्म है। सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म..… ऐसे सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप अनंतस्वरूप ब्रह्म में वह जाग जाता है।

इस सत्य को जानने की जिज्ञासा बहुत पुण्य से उत्पन्न होती है और बहुत पुण्य उत्पन्न भी करती है। एक बार साधक के हृदय में अपने स्वरूप को पाने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाये तो फिर सदगुरु उसे हँसते-खेलते, विनोद करते हुए उस दरबार में ले जाते हैं, जहाँ पहुँचने के बाद फिर पतन नहीं होता है। ….लेकिन हमारी जिज्ञासा तीव्र होनी चाहिए।

सत्यस्वरूप को पाने की जिज्ञासा तीव्र हो गयी तो समझो, आपके भाग्य में चार चाँद लग गये। जिनके कल्मष क्षीण हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं उन्हीं को अपने राम में आराम पाने की इच्छा होती है।

हम लोग अपने को धार्मिक मानते हैं लेकिन धर्म का उदघाटन हृदय में नहीं होता है। धर्मानुष्ठान करने से हृदय में वैराग्य होना चाहिए। धर्म ते विरति, योग ते ज्ञाना। वैराग्य उत्पन्न हो गया तो वह भी पर्याप्त नहीं है, फिर योग की आवश्यकता होती है। इन्द्रिय संयम करके, अपने उदगम स्थान परमात्मा में  विश्रांति पाना-यह योग है। यह योग ही सत्यस्वरूप के ज्ञान को प्रगट कर देता है।

केवल वेदान्त के विचार शुष्कता ले आयेंगे। अकेला योग लय ले लायेगा। अकेला त्याग अभिमान ले आयेगा। अगर ज्ञान होगा तो अहंकार का विलय होगा।

बाबा काली कमलीवाले द्वारा रचित ‘पक्षपात रहित अनुभवप्रकाश’ में आता हैः

वशिष्ठजी के पौत्र और शक्ति के पुत्र पाराशरजी मित्रा के पुत्र मैत्रेय से कहते हैं-

“पहले तो यह अभिमान था कि मैं देह हूँ। अगर आत्मविचार करके देहाध्यास नहीं मिटाया तो वेष बनाने का दूसरा अभिमान आ जायेगा कि ‘मैं साधू हूँ…. मेरा बड़ा आश्रम है।’ इस अभिमान को निकालने के लिए बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। यह जीव कोई न कोई अभिमान पकड़ लेता है और अभिमान ही बंधन का कारण बन जाता है।

एक बार उस परब्रह्म परमात्मा को पाने की तीव्र जिज्ञासा हो जाये और कलुषित संस्कारों को छोड़ने की इच्छा हो जाये तो ब्रह्मवेत्ता महापुरुष तुमको भगवदस्वरूप में हँसते-खेलते पहुँचा देंगे, तुमको पता भी न चलेगा।

ब्रह्मविद्या, सत्यस्वरूप का ज्ञान कोई मजबूरी करके पाने की चीज नहीं है। यह तो शहंशाहों का मार्ग है। इस ब्रह्मविद्या के द्वारा जिनके संशय क्षीण हो गये हैं, वे यह नहीं सोचते किः ‘यह उपासना ठीक है या वह उपासना ठीक है ? श्रीराम की भक्ति बड़ी है कि श्रीकृष्ण की भक्ति बड़ी है ? योग बड़ा है कि ज्ञान बड़ा है ? सत्संग बड़ा है कि कीर्तन बड़ा है ?’ ऐसी दुविधाएँ जिनकी शांत हो गयी हैं उनके प्रत्येक कार्य सहज-स्वाभाविक होते हैं, उन्हें करने नहीं पड़ते।

वे ज्ञानवान महापुरुष स्वर्ग की लालच से अथवा नर्क के भय से सत्कर्म नहीं करते हैं, वाहवाही की लालच से लोककल्याण के कार्य नहीं करते हैं और निंदा के भय से विशुद्ध कार्य नहीं छोड़ते हैं। उनका तो सहज स्वभाव होता है- सर्वभूतहिते रताः। फिर उन कल्याण के कार्यों के लिए चाहे उऩ्हें कष्ट सहना पड़े तो भी उनके लिए विनोद है और यश-अपयश मिल जाये तो भी उनके लिए विनोद है।

वे महापुरुष अपना कोई प्रयोजन लेकर नहीं चलते हैं, वे अपना स्वार्थ लेकर नहीं चलते हैं, वे अपना स्वार्थ लेकर नहीं चलते हैं, उनका सहज स्वभाव होता है। हम लोग कोई न कोई स्वार्थ प्रयोजन लेकर चलते हैं।

प्रयोजन तीन प्रकार के होते हैं- सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक। ज्ञानवान महापुरुषों का न धार्मिक प्रयोजन होता है, न सामाजिक प्रयोजन होता है और न ही आध्यात्मिक प्रयोजन होता है। उनकी प्रवृत्ति निष्प्रयोजन भी नहीं होती है वरन् निष्काम प्रवृत्ति होती है। उनका सहज स्वभाव होता है-जगाना, उनका सहज स्वभाव होता है-शीतल। ज्ञानवान को पहचानने के लिए शास्त्रों ने कई शुभ लक्षण बतलाये हैं। उनमें प्रमुख लक्षण यह है कि उनके श्रीचरणों में आदरसहित चुपचाप बैठने से हृदय में शांति आने लग जाये। यदि ऐसा होता है तो समझ लो कि विश्वनियंता के साथ उनका संबंध जुड़ा है। ऐसे महापुरुषों के मार्गदर्शन से हमारा जीवन भी समुन्नत हो सकता है और हमें उन्नत करने का उन पर कोई बोझा नहीं होता, उनकी स्वाभाविक स्थिति होती है।

किसी ने उन पर बोझ नहीं डाला है किः ‘आपका यह कर्त्तव्य है कि उपदेश दें, सत्संग करें, आश्रम सँभालें, लोगों से मिलें…..’ नहीं, उनके ऊपर कोई बोझ नहीं है। जब साधक को बोध हो जाता है तो गुरुदेव भी ऐसा नहीं कहते कि तुम ऐसा करना।’ गुरु भी स्वाभाविक कहते हैं किः ‘बेटा ! हो सके तो ऐसा जीना।’ वह भी यदि शिष्य पूछता है तो…… नहीं तो गुरु बोलते हैं किः ‘हम भी मुक्त तुम भी मुक्त।’

भावनगर में एक संत पधारे। वहाँ कोई साधक गायत्री पुरश्चरण कर रहा था। उसने संत के पैर पकड़े और कहाः “गुरु महाराज ! आप मुझे एक बार साक्षात्कार करा दीजिये। फिर आप जो कहेंगे  वही करूँगा।”

संतः “अरे ! यदि साक्षात्कार हो जाये तो आज्ञा करने की क्या जरूरत है ? फिर तो तेरे द्वारा जो भी होगा उससे लोगों का कल्याण होने लगेगा।”

शिष्य को बोध होने के बाद, सत्यस्वरूप का ज्ञान होने के बाद, सदगुरु आज्ञा नहीं करते किः ‘तुम यह करना,।’ यदि शिष्य पूछता है किः ‘क्या आज्ञा है गुरुदेव ?’ फिर गुरुदेव जो कह दें। बोलना पड़ता है तो बोल देते हैं बाकी उनको ऐसा नहीं होता किः ‘शिष्य ऐसा करे, वैसा करे….. मेरा नाम उज्जवल करे…. मेरे सिद्धान्त को फैलाये…..’ ऐसी इच्छाएँ ज्ञानवान को नहीं होती हैं।

वे अपने जागे हुए शिष्य को आज्ञा नहीं देते। हाँ, अगर जागे हुए में थोड़ी कमी है, थोड़ा कच्चापन है तो आदेश देंगे किः ‘ऐसा ऐसा करो…..’ ताकि कहीं गिर न जाए। आदेश भई उसके कल्याण के लिए देंगे। ऐसे ज्ञानवान महापुरुषों के लिए अष्टावक्र महाराज जी कहते हैं- ‘तस्य तुलना केन जायते ?’ उसकी तुलना किससे करें ? ऐसे ज्ञानवान महापुरुषों के संकेत के अनुसार चलने से प्रत्येक जीव शिवपद को प्राप्त कर सकता है। शर्त इतनी ही है कि उसमें सत्यस्वरूप के ज्ञान को पाने की तीव्र जिज्ञासा हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2001, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 102

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *