Monthly Archives: June 2001

सफलता का विज्ञान


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

विदेश में किसी व्यक्ति ने सुना कि फलानी जगह पर खोदने से सोना निकलेगा। उसने वह जमीन खरीद ली और खुदवाना शुरु किया। खोदने के कार्य में उसके लाखों रूपये खर्च हो गये किन्तु कुछ मिला नहीं। वह अत्यंत निराश हो गया, तब उसके किसी मित्र ने कहाः “इतना तो खुदवा ही दिया है। अब हो सकता है कि दो-पाँच फुट और खोदने पर सोना मिल जाये।”

वह व्यक्ति बोलाः “जब इतना-इतना खोदा फिर भी सोना नहीं मिला तो पाँच फुट और खुदवाने पर कैसे मिलेगा ? मेरा भाग्य ही ऐसा है।”

अपने भाग्य को दोष देते हुए उसने खदान को अत्यंत कम मूल्य पर बेच दिया। दूसरे व्यक्ति ने खरीद कर उसे फिर से खुदवाना शुरु किया। पाँच-छः फुट और खुदवाने पर ही उसे खूब सोना मिला। तब बेचने वाले ने कहाः “क्या करें ? उसका भाग्य अच्छा था इसलिए उसे मिल गया। मेरा तो भाग्य ही फूटा हुआ है।”

वास्तव में पहले का भाग्य फूटा हुआ और दूसरे का अच्छा था, ऐसी बात नहीं है। पहले वाले ने धैर्य और श्रद्धा खो दी जबकि दूसरे का धैर्य और श्रद्धा ज्यादा थी इसलिए उसे सोना मिल गया।

विफल वे ही लोग होते हैं जो लापरवाह होते हैं, निराशावादी होते हैं। जिस कार्य के लिए जितना धैर्य, जितनी तत्परता व समझ होनी चाहिए उसकी कमी के कारण लोग निराश होते हैं और असफल हो जाते हैं। उसी काम को दूसरा व्यक्ति उत्साह, धैर्य और तत्परता से करता है तो सफल हो जाता है।

परिस्थितियाँ मनुष्य को गुलाम नहीं बनातीं, मनुष्य परिस्थितियों को बनाता है। बाग्य मनुष्य को नहीं बनाता, मनुष्य अपने भाग्य को बनाता है।

एक बार तक्षशिला को शत्रुओं ने घेर लिया। सेनापति ने आकर राजा से कहाः “शत्रु का सैन्यबल, राज्यबल हमसे अधिक है। युद्ध में हम हार जायेंगे। अतः अच्छा यही है कि हम शरणागत हो जायें। दूसरा कोई उपाय नहीं है।”

तक्षशिला के नरेश को वह बात ठीक भी लग रही थी। इतने में एक महात्मा आ गये और बोलेः “तुम्हारा सेनापति तुम्हारी श्रद्धा और मनोबल तोड़ रहा है। इसे अभी-अभी सेनापति के पद से हटा दो और सेनापति का पद मुझे दे दो। मैं तुम्हारी सेना लेकर जाऊँगा और जरूर विजयी होकर आऊँगा।”

पहले तो राजा हिचकिचाया लेकिन बाद में उसे हुआ कि इन महात्मा की वाणी में विश्वास और गहराई है। अतः उसने निराशाजनक विचार करने वाले सेनापति की बात को ठुकराकर महात्मा को सेनापति का पद प्रदान कर दिया।

महात्मा सेना को लेकर आगे बढ़े। शत्रुपक्ष की सेना और तक्षशिला की सेना के बीच देवी का एक मंदिर था। महात्मा ने सेना को वहीं रोककर सैनिकों से कहाः “देखो, अगर देवी माँ ‘हाँ’ कहेंगी तो हमारी विजय निश्चित है। मैं यह सिक्का उछालता हूँ। अगर सीधा पड़ा तो विजय हमारी होगी और अगर उल्टा पड़ा तो हम उल्टे पैर वापिस लौट चलेंगे।”

यह कहकर महात्मा ने अपनी जेब से सिक्का निकाला और आसमान में उछाला। सिक्का धरती पर सीधा गिरा। महात्मा ने पुनः कहाः “देखो, देखो, सिक्का सीधा पड़ा है। हमारी विजय निश्चित है। भले ही शत्रु संख्या में ज्यादा है लेकिन माँ ने स्वीकृति प्रदान कर दी है। अतः विजय हमारी ही होगी।”

इस प्रकार महात्मा ने तीन बार सिक्का उछाला और तीनों बार सिक्का सीधा पड़ा। इससे सैनिकों के मनोबल में दृढ़ता व श्रद्धा का संचार हो गया और वे पूरे जोश के साथ युद्ध में कूद पड़े। देखते ही देखते वे शत्रुपक्ष की विशाल सेना पर इस तरह हावी हो गये मानों, हाथियों के झुंड पर सिंह। थोड़े ही समय में शत्रु सेना के पैर उखड़ने लगे एवं तक्षशिला की जीत हो गयी।

प्रसन्नता से सैनिक कह उठेः “देवी माँ की जय…… देवी माता ने ही हमें विजय दिलायी है।”

महात्मा ने रहस्योदघाटन करते हुए कहाः “विजय देवी माता ने तो क्या, तुम्हारे विश्वास और उत्साह ने ही दिलवायी है। तुममें विश्वास जगाने के लिए ही  मैंने यह प्रयोग किया था कि सिक्का सीधा पड़ेगा तो विजय हमारी होगी। वास्तव में सिक्का दोनों तरफ से सीधा ही सीधा था। ऐसा सिक्का तुम्हारे श्रद्धा विश्वास को बढ़ाने के लिए मैंने बनवाया था। यह देखो वही सिक्का दोनों तरफ से सीधा है। विजय तो तुम्हारे विश्वास की हुई है।”

जिसका उत्साह और विश्वास मरता है वही मरता है। जिसमें विश्वास और उत्साह तीव्र होता है वह विलक्षण सफलता प्रदान करता है। अतः कैसी भी विकट परिस्थिति हो, अपना धैर्य, श्रद्धा, विश्वास एवं उत्साह नहीं खोना चाहिए वरन् बुद्धिपूर्वक विश्लेषण करके लगे रहना चाहिए, डटे रहना चाहिए। मुसीबतों का सामना अटल एवं अडिग होकर करो। विजय तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2001, पृष्ठ संख्या 13-14, अंक 102

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निःस्पृहता का प्रभाव


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृह सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।

‘अत्यंत वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में संपूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है।’ (गीताः 6.18)

जिस काल में तुम्हारे चित्त में कोई कामना नहीं रहती, कोई इच्छा नहीं रहती, कोई आकर्षण-विकर्षण नहीं रहता, उस काल में तुम्हारा चित्त अलौकिक योगामृत का पान करता है। वह योगामृत ऐसा है कि जिसके आगे पृथ्वी के भोग तो क्या, स्वर्ग का अमृत भी तुच्छ हो जाता है।

कर्मनिष्ठ व्यक्ति खूब पुण्यकर्म करता है और मरने के बाद स्वर्ग के अमृत को पाता है, तपस्वी तप करता है बदले में ऐश्वर्य पाता है, लेकिन जो भगवान का प्यारा है उसका चित्त भगवान में लीन हो जाता है और वह भगवदस्वरूप हो जाता है।

चित्त एक अजीब नट है। वह जिस समय जिसका अनुकरण करता है, तब वही हो जाता है। यदि चित्त नश्वर का अनुकरण करता है तो नाश को प्राप्त होता है और यदि  शाश्वत की ओर, परमात्मा की ओर जाता है तो परमात्मा में लीन हो जाता है।

जैसे, भगवान शंकर ने भस्मासुर को वरदान दे दिया किः ‘तू जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह वहीं भस्म हो जायेगा।’ भस्मासुर वरदान पाकर शिवजी को ही भस्म करने के लिए दौड़ा। भस्मासुर के चित्त में भगवान शिव को ही भस्म करके पार्वती को अपना बनाने की वासना थी। अतः मलिन वासना के कारण वह शिवजी के पीछे भागा जा रहा था। आगे शिव, पीछे भस्मासुर।

शिवजी ने मन ही मन भगवान विष्णु के स्वरूप का स्मरण किया। भगवान विष्णु मार्ग में एक अत्यन्त सुन्दरी का रूप लेकर खड़े हो गये। मोहिनी रूपधारी भगवान विष्णु को देखकर भस्मासुर मोहित हो गया एवं उनसे विवाह की याचना करने लगा।

भस्मासुर को अपने जाल में फँसा देखकर मोहिनी ने कहाः “मैं आपसे विवाह करने को तैयार हूँ परन्तु मेरी एक शर्त है। जो व्यक्ति मुझसे विवाह करना चाहता हो उसे मेरे साथ नृत्य करना होगा, मेरी नृत्यकला के अनुसार उसे भी नृत्य करना पड़ेगा।”

भस्मासुर ने स्वीकृति दे दी और मोहिनी के साथ भस्मासुर ने नृत्य करना आरम्भ कर दिया। नृत्य करते-करते मोहिनी रूपधारी भगवान विष्णु ने अपने मस्तक पर हाथ रखा। भस्मासुर ने भी जैसे ही अपना हाथ अपने मस्तक पर रखा, क्षणभर में ही वह वहीं भस्म हो गया।

ऐसे ही तुम्हारे चित्त को धर्म में, कर्म में, यज्ञ में, दान में, पुण्य में, इधर-उधर घुमाकर जब परमात्मा में लीन किया जाता है, तुम्हारी वासनाएँ भस्म हो जाती हैं, तुम्हारी ममता नष्ट हो जाती है, तुम्हारा अहँकार नष्ट हो जाता है। फिर तुम योगयुक्त हो ही जाते हो।

इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्याच्यते तदा।।

स्पृहा और कामना तब तक रहती है जब ‘तुम’ रहते हो अर्थात् अहं रहता है। जब ‘तुम’ नष्ट हो गये तो स्पृहा कौन करेगा ? कामना कौन करेगा ? काम-क्रोध लोभ क्यों सताते हैं ? क्योंकि ‘तुम’ बने हो। जब तक ‘तुम’ बने रहोगे तब तक काम-क्रोध-लोभ-मोह भी रहेंगे। जब तक तुम रहोगे तब तक दुःख, अशांति और चिंता भी रहेगी। वास्तव में काम-क्रोध-लोभ-मोह या दुःख-अशांति-चिंता-भय आदि न शरीर में है और न आत्मा में, वे तो हैं तुम्हारे में, यानी अहं में। जब ‘मैं’ यानी परिच्छिन्न ‘अहं’ ही नष्ट हो गया तो ये सब कैसे रह सकते हैं ?

सच पूछो तो तुम्हारा होना ही ईश्वर से दूर होना है। तुम मिट गये तो ईश्वर ही रह जाता है।

इसीलिए कहा गया हैः

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।

प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं।।

‘जब ‘मैं’ था अर्थात् ‘अहं’ था तब हरि नहीं थे। जब मैं न रहा हो केवल हरि ही रह गये। यह ईश्वरप्रेम की गली इतनी सँकरी है कि उसमें दोनों अर्थात् ईश्वर और अहं एक साथ नहीं समा सकते।’

जिसने ईश्वर तत्त्व को जान लिया, जिसका चित्त परमात्मा में लीन हो गया, जो योगयुक्त हो गया वह फिर समस्त बन्धनों से, समस्त कामनाओं से, समस्त पकड़ों से निःस्पृह हो जाता है। उससे तुम पकड़वाला, संग्रहवाला काम नहीं करवा सकते हो।

अज्ञानी को खुश करना आसान है लेकिन उसकी सेवा करना कठिन है और ज्ञानी की सेवा करना सरल है किन्तु उन्हें प्रसन्न करना कठिन है क्योंकि ज्ञानी तम-मन-धन सब छोड़कर अगम पंथ में  प्रवेश कर चुके होते हैं। कबीर जी ने कहा हैः

अगमपंथ मन थिर करे, बुद्धि करे प्रवेश।

तन मन धन सब छोड़ि के, तब पहुँचे वा देश।।

तन, मन, धन सब प्रकृति में हैं। प्रकृति के तन मन की मान्यताएँ छोड़कर जब योगी अगम देश में पहुँच जाते हैं तब वे मुक्त हो जाते हैं। ऐसे मुक्त पुरुष को कौन बाँध सकता है ? ऐसे महापुरुष को तुम किसी मान्यता में, किसी परिस्थिति में, किसी समाज में, किसी पंथ में नहीं बाँध सकते। जिनके संकल्पमात्र से प्रकृति में उथल-पुथल मच जाती है उऩ्हें प्रकृति के साधनों द्वारा बाँध पाना कदापि सँभव नहीं है।

ऐसे महापुरुष जब बोलते हैं तब उन्हें जितने लोग सुनते हैं, जिन पर उनकी नजर पड़ती है, उतने लोगों के पाप नष्ट होने लगते हैं, उतने लोगों की दृष्टि पवित्र होने लगती है, कान पवित्र होने लगते हैं। लेकिन वे ज्ञानी यदि मौन में होते हैं, एकांत में रहते हैं तो उनकी वृत्ति ब्रह्माकार होती है और ब्रह्मलोक तक के जिज्ञासु जीवों को मदद मिलती है। जैसे, हिमालय में बर्फ गिरती है तो यहाँ (अमदाबाद) में ठंडक आ जाती है, ऐसे ही जिसके चित्त में चैतन्य का प्रसाद आ गया वे यदि अपनी महिमा में मौन रहते हैं तो ब्रह्मलोक तक अपनी आत्मिक ठंडक पहुँचा सकते हैं।

मुझे ऐसे कई संतों की मित्रता मिली है जो कभी कहीं प्रवचन करने नहीं गये, किसी के घर नहीं गये। उनके चित्त को बहिर्मुख होने की रूचि बहुत कम होती है। लेकिन बाहर का समाज इनती नीचे की स्थिति में है कि वह मौन की भाषा नहीं समझ सकता, उनके पवित्र आंदोलनों को नहीं झेल पाता इसलिए वे महापुरुष बाहर आना कभी – कभी ही स्वीकारते हैं। यह जरूरी नहीं है कि मैं माइक पर प्रवचन करूँ तभी तुम्हें लाभ हो। तुम ज्यों-ज्यों ऊपर उठोगे त्यों-त्यों तुम्हें अऩुभव होगा कि गुरुमंदिर की खिड़की बंद हो, माइक भी न हो और यह शरीर भी यहाँ न हो फिर भी तुम्हें बढ़िया प्रेरणा मिल रही है। ऐसा हो सकता है।

स्थूल शरीर से जितना काम होता है, उससे ज्यादा काम सूक्ष्म शरीर से होता है और जितना सूक्ष्म शरीर से होता है उससे अनन्त गुना उस परमात्मप्रसाद से होता है।

नानक जी ने कहा हैः

एको सुमरिये नानका जो जल थल ह्यो समाय।

क्यूँ जपिये सो नानका जो उपजे फिर मर जाय।।

यह शरीर तो उपजने और मरने वाला है। स्वामी विवेकानन्द भी बार-बार कहा करते थे किः ‘जो तुम्हें दिख रहा है वह मैं नहीं हूँ। मैं वह हूँ जो कभी नष्ट नहीं होता।’ इस अविनाशी तत्त्व का
अनुभव करके व्यक्ति समस्त स्पृहाओं से रहित हो जाता है।

जिनके चित्त से स्पृहा चली जाती है उनके चित्त में नित्य नवीन आत्मरस उभरता है। जो धर्म व सात्त्विकता से प्रसन्नचित्त होता है, उसकी बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है। चिंतित, शोकातुर मनुष्य जो निर्णय लेगा वह अनुचित हो सकता है लेकिन सात्त्विक प्रसन्न मनुष्य जो निर्णय लेगा वह उचित होगा। इसीलिए पहले के जमाने में बड़े-बड़े राजा-महाराजा संत-महापुरुषों से सलाह लेते थे, मार्गदर्शन लेते थे फिर काम करते थे।

जीवन मात्र आनंद चाहता है। श्रुति भी कहती हैः आनंदो ब्रह्म ब्रह्मेति परमात्मा। आनंद ब्रह्म है और जो ब्रह्म को पा चुका है उसका स्वभाव आनंदित होता है, उसकी दृष्टि से, उसकी वाणी से आनंद बरसता है, उसके श्रीचरणों में बैठने से आनंद मिलता है।

इसीलिए कहा गया हैः नूरानी नजर सौं दिलबर दरवेशन मुखे निहाल करे छडयो…. अपनी नूरानी निगाहों से दरवेश ने मुझे निहाल कर दिया…

जाने अनजाने भी तुम बर्फ को स्पर्श करो तो ठंडा लगेगा, जाने अनजाने भी मिश्री शक्कर खाओ तो मीठी लगेगी। ऐसे ही सत्संग में, संतों के द्वार पर तुम कैसे भी जाओ, इच्छा से या अनिच्छा से, स्वार्थ से जाओ या जासूसी करने, लेकिन परमात्मा के प्यारों के बीच बैठोगे तो तुम्हारा मन निर्मल होने लगेगा, तुम्हारा चित्त प्रसन्न होने लगेगा, तुम्हारा हृदय आनंद से सराबोर होने लगेगा।

जेको जनम मरण ते डरे, साधजना की शरणी पड़े।

जेको अपना दुःख मिटावे, साधजना की सेवा पावे।।

जो जन्म मरण से डरता है उसे साधु पुरुषों की शरण में जाना चाहिए। जो अपना दुःख मिटाना चाहता है उसे साधु पुरुषों की सेवा करनी चाहिए। साधु पुरुषों की सेवा क्या है ? सेवा यही है कि वे जो कहते हैं वह करो और साधु पुरुष यही कहते हैं कि तुम ईश्वर चिन्तन करो, राग-द्वेष से ऊपर उठो, अपने आत्मस्वरूप में डूबो।

एक व्यक्ति ने मुझसे पूछाः “स्वामी जी ! अमकु जगह पर मिल खरीदना है। आपकी आज्ञा हो तो खरीद लूँ।”

मैंने कहाः “नहीं।”

वह व्यक्ति दो चार महीने के बाद आया और बोलाः “स्वामी जी ! जिस मिल के लिए आपने मना किया था वह मिल यदि हम लेते तो बेहाल हो जाते। उसमें तो बड़ी झंझटें हैं और वहाँ अब पुलिस का पहरा है।”

मैंने कहाः “उधर से (भीतर से) ‘ना’ का जवाब आया तो मैंने ‘ना’ कह दिया था।”

फिर वह बोलाः “स्वामी जी ! अमुक जगह पर प्लाट है। खरीद लूँ ?” मैंने उसी वक्त ‘हाँ’ कह दिया।

थोड़े दिन के बाद उसने आकर बतायाः “स्वामी जी ! जितने में लिया था उससे आठ गुनी कीमत में गया।”

मैंने कहाः “उसने हाँ कहलवा दिया तो ‘हाँ’ में भी अच्छा हुआ और ‘ना’ कहलवा दिया तो ‘ना’ में भी अच्छा हुआ।”

जिनको चित्त का प्रसाद मिल गया है उनको भीतर से जो प्रेरणा फुरती है, वह सही हो जाती है। मैं कोई टोने-टोटके नहीं जानता हूँ अथवा ध्यान करके नहीं देखता हूँ कि ऐसा होने वाला है कि नहीं। जिसका चित्त निर्मल होता है उसको भीतर से ठीक प्रेरणा मिलती है।

जो व्यक्ति जितनी गहराई में जाता है उसमें उतनी ज्यादा नम्रता, सरलता, निःस्पृहता होती है और चित्त पर  निःस्पृहता का बड़ा प्रभाव पड़ता है। निःस्पृहता का, सच्चाई का, प्रेम का अपना प्रभाव है। भले, थोड़ी देर के लिए अहंकारी स्वीकार नहीं करेगा, बल्कि विरोध करेगा लेकिन बाद में तो उसको भी स्वीकार करना पड़ता है।

अहंकार को जब छूट मिलती है तब अन्याय कर लेता है लेकिन अहंकार के ऊपर यदि महा अहंकार की लगाम है तो अहंकार भी कुछ-कुछ स्वीकार करता है।

अहंकार की अपनी सीमा होती है, व्यवहार की अपनी सीमा होती है। अहंकार, व्यवहार-यह सब चित्त में है, मन में है, अंतःकरण में है और मन की अपनी सीमा होती है, अंतःकरण की अपनी सीमा होती है।

कोई वकील है तो डॉक्टर नहीं है, कोई डॉक्टर है तो वकील नहीं है। कोई-कोई वकील और डॉक्टर दोनों हैं तो इंजीनियर नहीं है लेकिन उस एक चैतन्य की सत्ता से ही सब हो रहा है। व्यापारी का विषय इंजीनियर का नहीं है, इंजीनियर का विषय मजदूर का नहीं है। इंजीनियर मजदूरी नहीं कर सकता है लेकिन वह चैतन्य दोनों कर सकता है।  उसी एक चैतन्य आत्मस्वरूप में जो डूबता है, वह सब जान लेता है। इसीलिए संतों के द्वारा जो भी होता है वह सब यज्ञ ही यज्ञ है, सब मंगल ही मंगल है। संत वाणी कहती हैः

ब्रह्मज्ञानी ते कछु बुरा न भया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,  जून 2001, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 102

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आठ प्रकार के पुष्प


एक बार राजा अम्बरीष ने देवर्षि नारद से पूछाः “भगवान की पूजा के लिए भगवान को कौन से पुष्प पसंद हैं ?”

नारदजीः “राजन् ! भगवान को आठ प्रकार के पुष्प पसंद हैं। उन आठ प्रकार के पुष्पों से जो भगवान की पूजा करता है, भगवान उसके हृदय में प्रकट हो जाते हैं। उसकी बुद्धि भगवद्ज्ञान में गोता लगाकर ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है। उसके 21 कुल तर जाते हैं।”

अम्बरीषः “महात्मन् ! देर न करें। कृपा करके जल्दी बताइये कि वे कौन से पुष्प हैं जिनसे भगवान प्रसन्न होते हैं। मैं वे पुष्प बगीचे से मँगवाऊँ और अगर बगीचे में नहीं होंगे तो उनके पौधे मँगवाकर उन्हें अपने बगीचे में लगवाऊँ। भगवान जिन पुष्पों से प्रसन्न होते हैं, मैं वे पुष्प जरूर लगवाऊँगा एवं प्रतिदिन उऩ्हीं पुष्पों से भगवान की पूजा करूँगा।”

नारदजी मंद-मंद मुस्कराये एवं बोलेः “अम्बरीष ! वे पुष्प किसी माली के बगीचे में नहीं होते।  वे पुष्प तो तुम्हारे दिलरूपी बगीचे में ही हो सकते हैं।”

अम्बरीष! “महाराज ! अगर मेरे दिल में वे पुष्प हो सकते हैं तो मैं वहाँ जरूर बोऊँगा और वे ही पुष्प भगवान को चढ़ाऊँगा। देवर्षि ! जल्दी कहिये कि जिन पुष्पों से श्रीहरि संतुष्ट होते हैं और पूजा करने वाले को भगवन्मय बना देते हैं वे कौन से पुष्प हैं ? देवर्षि ! अब मेरी जिज्ञासा बहुत बढ़ गयी है। कृपा करके अब बता दीजिये।”

राजा अम्बरीष यह कह टकटकी लगाये देवर्षि की ओर देखने लगे। मानों, उनके कानों में भी आँखों की जिज्ञासा जाग गयी और आँखों में भी कानों का जिज्ञासा जाग गयी !

तब नारद जी ने कहाः “पुण्यात्मा अम्बरीष ! भगवान इन आठ पुष्पों से पूजा करने पर प्रगट हो जाते हैं तथा भक्त को अपने से मिला देते हैं। जैसे तरंग को पानी अपने में मिला दे, घटाकाश को महाकाश अपने में मिला दे वैसे ही जीव को ब्रह्म अपने में मिला देता है। फिर वह बाहर से भले राजा ही दिखे लेकिन भीतर से परमात्मा के साथ एक हो जाता है। ऐसे वे आठ पुष्प हैं।”

राजा अम्बरीष का धैर्य टूटा। वे बोलेः “देवर्षि ! देर न कीजिये, अब बता दीजिये।”

नारदजीः “वे आठ पुष्प इस प्रकार हैं-

इन्द्रियनिग्रहः इधर उधर फालतू जगह पर देखने, सूँघने, सोचने, भटकने की आदत को रोकना। इसको कहते हैं इन्द्रियनिग्रहरूपी पुष्प।

अहिंसाः मन  वचन कर्म से किसी को दुःख न देना।

निर्दोष प्राणियों पर दयाः मूक एवं निर्दोष प्राणियों को न सताना। दोषी को अगर दण्ड भी देना हो तो उसके हित की भावना से देना।

क्षमारूपी पुष्प।

मनोनिग्रहः मन को एक जगह पर लगाने का अभ्यास करना, एकाग्र करना।

ध्यानः भगवान का ध्यान करना।

सत्य का पालन करना।

श्रद्धाः भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों में दृढ़ श्रद्धा रखना।

इन आठ पुष्पों से भगवान तुरंत प्रसन्न होते हैं एवं वे साधक को सिद्ध बना देते हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2001, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 102

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