सतयुग की पूजा पद्धति

सतयुग की पूजा पद्धति


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

पूर्वकाल में मंदिर-मस्जिद आदि कुछ नहीं था। लोग ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं को ईश्वररूप जानकर, उनका उपदेश सुनते, उनकी आज्ञा के अनुसार चलते एवं परमात्मज्ञान पा लेते थे।

बाद में रजो-तमोगुण बढ़ गया। महापुरुषों ने देखा कि ऐरे गैरे भी ‘ब्रह्मज्ञानी’ बनने का ढोंग करने लगे और इसके कारण लोग सच्चे ब्रह्मज्ञानियों पर भी शंका करने लगे इसलिए उन्होंने मूर्तियाँ लाकर रख दीं। सिर पटकते-पटकते 12 साल तप करो, पूजा-पाठ करते यात्रायें करो तब कुछ शुद्धि होगी, किसी सच्चे आत्मज्ञानी महापुरुष को खोजने की पुण्याई होगी। फिर आत्मज्ञान मिलेगा तो लाभ होगा। जब तक ब्रह्मवेत्ता सदगुरु नहीं मिलते तब तक भगवान की सेवा-पूजा करो, तीर्थों में जाओ, कहीं नाक रगड़ो, कहीं झख मारो। जब हृदय शुद्ध होगा, भगवान को पाने की तड़प होगी, सदगुरु की जरूरत पड़ेगी तब कोई गुरु मिलेंगे तो कदर होगी। मुफ्त में गुरु मिल जायेंगे तो क्या कदर करेंगे ?

सतयुग में मूर्तिपूजा नहीं थी, त्रेता में भी नहीं थी। द्वापर-त्रेता के संगम से मूर्तिपूजा चली। एक त्रिकालज्ञ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कहते हैं कि- पौराणिक युग से आज तक जो भी मूर्ति के भगवान हैं वे सब ब्रह्मज्ञानियों के बेटे हैं। ये जो भी देवी-देवता हैं या भगवान हैं, सारे के सारे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के मानसिक पुत्र हैं। ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों ने समाज को उन्नत करने के लिए मन से भगवत्तत्व की भावना की और तदनुसार शिल्पियों ने मूर्तियों की रचना की।

कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। जो सभी को आकर्षित करता है उसका नाम है श्री कृष्ण। रोम रोम में रम रहा है इसलिए उसका नाम रखा श्री राम। वह कल्याण करता है इसलिए उसका नाम रखा शिव। वह आद्यशक्ति है इसलिए उसको जगदम्बमा कहके भी पूजते हैं।

महापुरुषों की ऊँची सूझ-बूझ और लोक मांगल्य की भावना के अनुसार मूर्तियों की रचना हुई एवं उऩ्होंने ध्यानावस्था में अपने परमात्मस्वरूप में एकाकार होकर जो बोला, वह शास्त्र बन गया। जितने भी शास्त्र हैं सब ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की समाधिभाषा हैं। ज्ञानवान अपने आत्मानुभव में आकर जो वचन बोलते हैं, वे शास्त्र बन जाते हैं।

गुजरात में अखा भगत नाम के एक आत्मज्ञानी महापुरुष हो गये। लोगों को जगाने के लिए उन्होंने कहा हैः

सजीवाए निर्जीवा ने घडयो, पछी मने कहे मने कंई दे।

अखो तमनने ई पूछे, तमारी एक फूटी के बे ?

‘सजीव (मानव) ने निर्जीव मूर्ति का निर्माण किया, फिर उससे ही प्रार्थना करता है कि मुझे कुछ दे। अखा तुमसे पूछा है कि तुम्हारी एक आँख फूटी है कि दोनों ?’

आप सजीव हैं और मूर्ति निर्जीव है। मंदिर मस्जिद और चर्चों ने इंसान को नहीं बनाया, इन्सान ने उन्हें बनाया है।

गुजरात के ऊँझा नामक स्थान में उमिया माता का मंदिर है। उस मंदिर का उदघाटन था तो वहाँ मेरा जाना हुआ। सारा पटेल समाज वहाँ उपस्थित था।  लोग वहाँ के एक वृद्ध ‘चेयरमैन’ को मेरे पास लाये एवं बोलेः “स्वामी जी ! ये साठ वर्ष से काँवर में पानी लाकर माता जी को पानी चढ़ाते हैं।”

लोगों ने उन्हें हार पहनाया, मेरे आशीर्वचन दिलाये फिर मुझे विचार आया कि साठ वर्ष से कंधे पर काँवर रखकर पानी लाते हैं और माता जी को चढ़ाते हैं, अगर साठ वर्ष तो क्या साठ माह भी किसी ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के श्रीचरणों में शांत बैठे होते तो बेड़ा पार हो गया होता।

जो माता जी को पानी नहीं चढ़ाते हैं, नास्तिक हैं, उनकी अपेक्षा तो इन काका को धन्यवाद है लेकिन हमें ऐसे काका नहीं होना है। हमें तो तेजी से चलना है। वर्तमान में जिस प्रकार यात्रा के तीव्र साधन हुए, संदेश पहुँचाने के तार, टेलिफोन आदि के तीव्र साधन हुए, रसोई बनाने के तीव्र साधन हुए वैसे ही प्रभुप्राप्ति के लिए भी तीव्र गति से यात्रा करके मंजिल तक पहुँच जायें।

मुख में पत्थर रखकर राजसी मनुष्य तप करते हैं। आखिरी समय तपस्याकाल में धृतराष्ट्र केव पवनाहार करते थे, गांधारी केवल जलाहार करती थीं और कुंताजी महा में केवल एक ही बार भोजन करती थीं। आप भी ऐसे ही तप करो ऐसा कहने का हेतु नहीं है क्योंकि उस समय का शरीर एवं उस  समय की निष्ठा आज के शरीर एवं आज की निष्ठा से बिल्कुल भिन्न थी। फिर भी कभी-कभी तो उपवास अवश्य करना चाहिए।

कभी स्वाभाविक श्वासोच्छवास को गिनते जायें तो कभी हरि के ध्यान में तल्लीन हो जायें। कभी जप करते-करते शांत होते जायें। कभी जप करते-करते मनन-निदिध्यासन करते जायें तो कभी सेवा द्वारा अंतःकरण को पावन करते जायें।

किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष को खोज लें और उनकी बतायी हुई युक्तियों का अनुसरण करें तो शीघ्र ही बेड़ा पार हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 103

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