तुलसी मीठे वचन ते….

तुलसी मीठे वचन ते….


मधुर व्यवहार से सबके प्रिय बनिये

संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनन्द, शांति और प्रेम का दान करती है और स्वयं आनन्द, शांति और प्रेम को खींचकर बुलाती है। मीठी और हितभरी वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन को पवित्र शक्ति प्राप्त होती है और बुद्धि निर्मल बनती है। ऐसी वाणी में भगवान का आशीर्वाद उतरता है और उससे अपना, दूसरों का सबका कल्याण होता है। उससे सत्य की रक्षा होती है और उसी में सत्य की शोभा है।

मुख से ऐसा शब्द कभी मत निकालो जो किसी का दिल दुखाये और अहित करे। कड़वी और अहितकारी वाणी सत्य को बचा नहीं सकती और उसमें रहने वाले आंशिक सत्य का स्वरूप भी बड़ा कुत्सित और भयानक हो जाता है जो किसी को प्यारा और स्वीकार्य नहीं लग सकता। जिसकी जबान गन्दी होती है और उसका मन भी गन्दा होता है।

कुटुम्ब-परिवार में भी वाणी का प्रयोग करते समय यह अवश्य ख्याल में रखा जाय कि मैं जिससे बात करता हूँ वह कोई मशीन नहीं है, ‘रोबोट’ नहीं है, लोहे का पुतला नहीं है, मनुष्य है। उसके पास भी दिल है। हर दिल को स्नेह, सहानुभूति, प्रेम और आदर की आवश्यकता होती है। अतः अपने से बड़ों के साथ विनययुक्त व्यवहार, बराबरवालों से प्रेम और छोटों के प्रति दया तथा सहानुभूति सम्पन्न तुम्हारा  व्यवहार जादुई असर करता है।

किसी का दुकान-मकान, धन दौलत छीन लेना इतना बड़ा जुल्म नहीं है जितना कि किसी के दिल को तोड़ना क्योंकि दिल में दिलबर खुद रहता है। बातचीत के तौर पर आपसी स्नेह को याद रखकर सुझाव दिये जायें तो कुटुम्ब में वैमनस्य खड़ा नहीं होगा।

कहने के ढंग में मामूली फर्क कर देने से कार्यदक्षता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी से काम करवाना हो तो उससे यह कहें कि अगर आपके अनुकूल हो तो यह काम करने की कृपा करें।

बातचीत के सिलसिले में महत्ता दूसरों देनी चाहिए, न कि अपने आपको। ढंग से कही हुई बात प्रभाव रखती है और अविवेकपूर्वक कही हुई वही बात विपरीत परिणाम लाती है।

दूसरों से  मिलजुलकर काम वही कर सकता है जो अपने अहंकार को दूसरों पर नहीं लादता।

ऐसा अध्यक्ष अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से कोई गलती हो जाये तो वह उस गलती को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है और कोई अच्छा काम होता है तो उसका श्रेय दूसरों को देता है।

अपने साथियों की व्यक्तिगत या घरेलू समस्याओं के प्रति सहानूभूति रखकर, यथाशक्ति उनकी सहायता करना दक्ष नेतृत्व का चिह्न है। कोई अगर अच्छा काम कर लाये तो उसकी प्रशंसा करना और जहाँ उसकी कमियाँ हों वहाँ उसका मार्गदर्शन करना भी दक्ष नेतृत्व की पहचान है।

अपने साथ काम करने वालों के साथ मैत्री और अपनत्व का सम्बन्ध कार्य में दक्षता लाता है। जहाँ परायेपन की भावना होगी वहाँ नेतृत्व में एकसूत्रता नहीं होगी और काम करने व वाले तथा काम लेने वाले के बीच समन्वय न होने के कारण कार्य में ह्रास होगा।

यह विचार छोड़ दो कि बिना डाँट-डपट के, बिना डराने-धमकाने के और बिना छल-कपट के तुम्हारे मित्र साथी, स्त्री-बच्चे या नौकर-चाकर बिगड़ जायेंगे। सच्ची बात तो यह है कि डर, डाँट और छल-कपट से तो तुम उनको पराया बना देते हो और सदा के लिए उऩ्हें अपने से दूर कर देते हो।

प्रेम, सहानुभूति, सम्मान, मधुर वचन, सक्रिय, हित, त्याग-भावना आदि से हर किसी को सदा के लिए अपना बना सकते हो। तुम्हारा ऐसा  व्यवहार होगा तो लोग तुम्हारे लिये बड़े-से-बड़े त्याग के लिए तैयार हो जायेंगे। तुम्हारी लोकप्रियता मौखिक नहीं रहेगी। लोगों के हृदय में बड़ा मधुर और प्रिय स्थान तुम्हारे लिए सुरक्षित हो जायेगा। तुम भी सुखी हो जाओगे और तुम्हारे सम्पर्क में आने वाले को भी सुख-शांति मिलेगी।

गोस्वामी तुलसी दास जी का वचन हमेशा याद रखने जैसा है-

तुलसी मीठे वचन से, सुख उपजहूँ चहूँ ओर।

वशीकरण यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर।।

यदि सुन्दर रीति से, सांत्वनापूर्ण, मधुर एवं स्नेह संयुक्त वचन सदैव बोले जायें तो इसके जैसा वशीकरण का साधन संसार में और कोई नहीं है। परन्तु यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि अपने द्वारा किसी का शोषण न हो। मधुर वाणी उसी की सार्थक है जो प्राणिमात्र का हितचिंतक है। किसी की नासमझी का गैर-फायदा उठाकर गरीब, अनपढ़, अबोध लोगों का शोषण करने वाले शुरुआत में तो सफल होते दिखते हैं किन्तु उनका अन्त अत्यन्त खराब होता है। सच्चाई, स्नेह और मधुर व्यवहार करने वाला कुछ गँवा रहा है ऐसा किसी को बाहर से शुरुआत में लग सकता है किन्तु उसका अऩ्त अनन्त ब्रह्माण्डनायक ईश्वर की प्राप्ति में परिणत होता है। खुदीराम मधुरता और सच्चाई पर अडिग थे। लोग उनको भोला-भाला और मूर्ख मानते थे। प्रेम और सच्चाई से जीने वाले, हुगली जिले के देरे गाँव के ये खुदीराम आगे चलकर रामकृष्ण परमहंस जैसा पुत्ररत्न प्राप्त कर सके। सच्चाई और मधुर व्यवहार का फल शुरु में भले न दिखे किन्तु वह अवश्यमेव उन्नतिकारक होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 103

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