संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
‘जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी था योगी है केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।’ (गीताः 6.1)
केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है वरन् कर्मफल की इच्छा का त्याग करके जो करने योग्य कर्म करता है, सुख लेने की बुद्धि से नहीं, सुख देने की बुद्धि से कर्म करता है, वही वास्तव में संन्यासी और योगी है।
जो बाहर से भीतर आये, उसे बोलते हैं आहार। जो भीतर से बाहर जाये उसे बोलते हैं आनन्दद। जो भीतर से बाहर आये उसे बोलते हैं सुख। जो भीतर से बाहर आये उसे बोलते हैं ज्ञान।
जब सुख देने की बुद्धि से कर्तव्य कर्म करोगे, शास्त्रोक्त कर्म करोगे तो अपने अंतःकरण में शुद्ध सुख उत्पन्न होगा। आसक्ति रहित कर्म करोगे तो भीतर से आनन्द प्रगट होगा, भीतर से ही ज्ञान प्रगट होगा। आसक्तिरहित कर्म ही संन्यास और योग का फल दे देंगे।
मनुस्मृति में कहा गया हैः
यत्कर्मं कुर्वयोsस्य स्यात्परितोषोsन्तरात्मनः।
तत् प्रत्येनन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
‘जो कर्म करने से अपने मन में तृप्ति और संतोष का अनुभव हो, वह कर्म प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। जिस कर्म को करने के बाद अन्तरात्मा धिक्कारे, ग्लानि हो, घृणा हो-वह कर्म प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए।’ (मनुः 4-161)
जिन कर्मों से आत्मसुख की प्राप्ति हो, आत्मसंतोष हो, अंतरात्मा की तृप्ति हो, अऩ्तरात्मा का सुख उभरता हो, वे कर्म प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए। जो कर्म शास्त्रोक्त हों, संत-अनुमोदित हों और अपने अन्तरात्मा में सुख का माधुर्य का, धन्यवाद का अहसास कराते हों, ये कर्म प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए। जो कर्म शास्त्र, संत एवं अन्तरात्मा द्वारा इन्कार किये गये हों उन कर्मों को प्रयत्नपूर्वक त्यागना चाहिए।
कर्म तो करो लेकिन कर्म की आसक्ति का, कर्म के फल का त्याग करोगे तो बुद्धि स्वच्छ और सात्त्विक होगी। स्वच्छ बुद्धि में परमात्म-विषयक जिज्ञासा होगी, फिर तो संन्यासी और योगी को जो आत्मा-परमात्मा का अनुभव होता है वही तुमको होगा और तुम मुक्तात्मा हो जाओगे।
परमेश्वर तत्त्व का ज्ञान पाना हो तो आसक्ति-रहित कर्म करके अपने को खोजें। कर्म करने से पूर्व, कर्म करते वक्त और कर्म पूरे हो जायें उस वक्त जो सबको देखनेवाला सत्-चित्-आनन्द स्वरूप परमात्मा है वही मेरा आत्मा है’ ऐसा चिन्तन करने से बहुत लाभ होता है।
जब हम साधना करने बैठते हैं तब लगता है कि सारा जगत सपना है और चैतन्य आत्मा अपना है लेकिन कर्म करते समय हमारा मन और इन्द्रियाँ आसक्ति करके हमें पुनः संसार में भटका देते हैं। इसीलिए मनु महाराज ने कहा हैः “जिन कर्मों को करने से अपने मन में तृप्ति और संतोष का अनुभव हो, वे कर्म प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए।”
संन्यासी को आदेश है कि अग्नि को नहीं छुए, बनी-बनायी भिक्षा ग्रहण करे। अग्नि को नहीं छुआ, बनी-बनायी भिक्षा ग्रहण की और संन्यासी के कपड़े पहने लिए लेकिन यदि मन में इच्छा वासना है तो संन्यास सिद्ध नहीं होता। इससे तो कर्म करे लेकिन इच्छा वासनाएँ छोड़ दे तो अन्तरात्मा का सुख प्रगट होता है। इसीलिए आसक्तिरहित कर्म करने वाले को संन्यासी कहा है।
एक वृद्ध व्यक्ति अंधेरी रात में चौराहे पर लालटेन लेकर खड़ा था। उसका भाव था कि लोगों को अँधेरे में कष्ट न हो।
किसी ने पूछाः “बाबा ! लोगों को रोशनी मिलने से तुम्हें क्या लाभ हो रहा है ?”
वृद्धः “लोगों को तो मैं बाहर से रोशनी दे रहा हूँ लेकिन मुझे यह फायदा है कि मेरा अन्तरात्मा संतुष्ट हो रहा है।”
जो गति योगी को, संन्यासी को मिलती है वही निष्काम करने वाले को मिलती है।
एक बार ज्ञानेश्वर महाराज सुबह सुबह नदी तट पर घूमने निकले तो देखा कि एक लड़का नदी में गोते खा रहा है और पास में ही एक संन्यासी आँखें बंद करके बैठा है। ज्ञानेश्वर महाराज तुरन्त नदी में कूदे, उस डूबते हुए लड़के को बाहर निकाला फिर संन्यासी को पुकारा ?
“ओ संन्यासी महाराज !”
संन्यासी ने आँखें खोलीं तो ज्ञानेश्वरजी बोलेः “क्या आपका ध्यान लगता है ?”
संन्यासीः “ध्यान तो नहीं लगता है, मन इधर-उधर भागता है।”
“यह लड़का डूब रहा था, क्या आपको दिखाई नहीं दिया ?”
“देखा तो था लेकिन मैं ध्यान कर रहा था।”
ज्ञानेश्वरः “फिर आप ध्यान में कैसे सफल हो सकते हो ? ईश्वर ने आपको किसी की सेवा करने का मौका दिया था। वह आपका कर्तव्य भी था। यदि आप उस कर्तव्य का पालन करते तो ध्यान में भी मन लगता।
ईश्वर की सृष्टि, ईश्वर का बगीचा बिगड़ रहा है और आप बगीचे का आनंद लेना चाहते हो ? बगीचे का आनंद लेना है तो बगीचे को सँवारना भी पड़ता है।”
परहित के कार्य, शास्त्र-संत अनुमोदित कार्य, आसक्तिरहित कार्य मानव की योग्यताओं को विकसित करके उसे परमात्म ज्ञान, परमात्म ध्यान के योग्य बनाते हैं।
जिनके नाम से रघुकुल चला एवं आगे चलकर जिनके कुल में भगवान श्रीराम प्रगट हुए, वे राजा रघु किशोर थे, तब की बात हैः एक दिन वे अपने पिता के साथ वन में स्थित गुरुवर वसिष्ठ के आश्रम में गये। उस समय ब्रह्मर्षि वसिष्ठजी महाराज अपने ब्रह्मचारियों को समझा रहे थेः “जिसने तन से अगर तप नहीं किया तो उसे भोग भी नहीं मिल सकता, मोक्ष की तो बात ही क्या है ? भोग के लिए भी तप चाहिए और मोक्ष के लिए भी तप चाहिए। इसलिए इस तन से तप करना चाहिए।
किशोर रघु के मन में प्रश्न उठा किः ‘संन्यासी और योगी भोग सुख का त्याग करके तप करते हैं सुख के लिए तप नहीं करते। गुरुवर कहते हैं कि भोग के लिए भी तप करना चाहिए ?’ किशोर रघु ने विनयपूर्वक प्रश्न कियाः “गुरुदेव ! सुख भोग के लिए भी तप करना चाहिए, यह मुझे समझ में नहीं आ रही है। बताने की कृपा करें।
गुरुदेवः “शरीर तभी भोग को भोग सकेगा, जब स्वस्थ होगा और स्वस्थ तभी रहेगा जब परिश्रम करेगा। तैयार सुविधाएँ मिलें और पका हुआ भोजन मिले तो वह कितने दिन भोग सकेगा ?”
एक होता है यत्नतः तप करना जो तपस्वी के लिए है, संन्यासी के लिए है, योगी के लिए है दूसरा है सहज तप। जो ईश्वर के रास्ते जाते हैं उन्हें यत्नतः तप नहीं करना है वरन् ईश्वर के रास्ते आने वाली कठिनाइयों को हँसते-हँसते सह लें, जो भी कष्ट और मुसीबतें आयें उऩ्हें हँसते-हँसते गुजरने दें और अपने मन को ईश्वर के जप ध्यान में लगाये रखें, आसक्तिरहित कर्म में लगाये रखें, उनका वही तप हो जाता है।
तपस्वी प्रयत्नपूर्वक तप करता है तो तप में कर्त्तापन रहता है लेकिन जो स्वाभाविक सुख-दुःख आते हैं उनमें सम बुद्धि रखता है, उसे कर्त्तापन का बोझ नहीं लगता। कभी बीमार हो जाओ तो ऐसा नहीं होना चाहिए किः ‘हाय मैं बीमार हूँ, दुःखी हूँ, ठीक हो जाऊँ।’ ऐसा करने से शायद तुम ठीक तो हो जाओ, दुःख तो मिटेगा लेकिन वह तप नहीं होगा। इसकी जगह बिमारी में भी चिन्तन करें कि- ‘मैं बीमार नहीं हूँ, यह शरीर का तप हो रहा है… मेरे कर्म कट रहे हैं…’ इस भावना से बिमारी के कष्ट को सहते हुए उसे निवृत्त करने का यत्न करें। इससे कर्म भी कटेंगे, तपस्या भी होगी और आरोग्यता भी प्राप्त हो जायेगी। आपका मन जैसा दृढ़ संकल्प करता है, उसी प्रकार की आपको मदद मिलती है।
जब आसक्ति होगी तो स्वार्थयुक्त कर्म करने में रूचि होगी लेकिन कर्म निःस्वार्थ हों, परहित के हों, शास्त्र-संत अनुमोदित हों-इस प्रकार की समझ होगी तो श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘आसक्तिरहित कर्म करने वाला संन्यासी है, योगी है।’
एक आदमी ने सोचा किः ‘500 रूपये दान करने हैं।’ वह किसी महाराज के पास गया और बोलाः “महाराज ! ये 500 रूपये ले लीजिये।”
महाराजः “हम त्यागी हैं रूपयों को स्पर्श नहीं करते।”
व्यक्तिः “आप नहीं छूते लेकिन मुझे तो दान करना है।”
महाराजः “किसी और को दे दो।”
वह आदमी गया सिनेमा थियेटर की ओर 100 टिकटें सिनेमा की लेकर बाँट दीं। क्या यह दान हुआ ? यह तो लोगों की और भी खाना खराबी हुई। लोगों के तन-मन की हानि का कार्य हुआ।
दूसरे का दुःख निवृत्त हो, दूसरे का अज्ञान निवृत्त हो इस प्रकार का दान करना योग्य है। जिसका पेट पहले से ही भरा है, उसको रोटी का दान करना व्यर्थ है। अगर दान करना है तो भूखे को रोटी का दान करना चाहिए। प्यासे को पानी पिलाना चाहिए। राह भूले हुए को पानी की आवश्यकता नहीं है, उसे रास्ता दिखाना ही आपका कर्तव्य है।
भूखे को भोजन कराना एवं प्यासे को पानी पिलाना सत्कर्म है लेकिन अशांत के लिए भोजन-पानी की आवश्यकता नहीं, अशांत के लिए तो शांति के वचन चाहिए। ऐसे ही अभक्त को भक्ति मिले, अज्ञानी को ज्ञान मिले, निगुरा सगुरा हो जाये और सगुरा साक्षात्कार की तरफ चले, ऐसा प्रयास योग्य कर्म है।
ये योग्यकर्म भी आसक्तिरहित होकर करें। ऐसों के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं- “जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है।”
अतः आप अपने जीवन में जहाँ भी हों, व्यवहार में संन्यास और योग को प्रविष्ट करें। भीतर पावन रस का झरना खोलें। सदैव याद रखें-संसार में आसक्ति करने और पच मरने के लिए आपका जन्म नहीं हुआ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2001, पृष्ठ संख्या 10-13, अंक 103
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