अहंता और ममता

अहंता और ममता


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भोग और विकारों को मिथ्या जानकर जिसने अपना मन भगवान में लगा दिया, जिसने अपना मन जगत से मोड़कर जगदीश्वर में लगा दिया, उसे जगत की कोई परिस्थिति दुःख नहीं दे सकती।

‘यह मेरा बेटा है, यह मेरा पिता है, यह मेरी माता है, यह मेरी पत्नी है…..’ इसकी अपेक्षा उनके हित की भावना रखना अच्छा है। लेकिन ममतावाली भावना दुःख देती है।

तुलसी ममता राम से समता सब संसार।

राग न द्वेष न दोष दुःख, दास गये भवतार।।

ममता रखें तो ईश्वर से रखें। किसी से राग न करें, द्वेष न करें और दोष-दर्शन की बुद्धि न रखें। इससे चित्त निर्मल होता है और निर्मल चित्त में ही ईश्वरप्राप्ति की जिज्ञासा उठती है।

ऐसा नहीं है कि परमात्मा का साक्षात्कार हो जायेगा तो सब लोग, सब वस्तुएँ एवं सब परिस्थितियाँ सदा, सर्वत्र अनुकूल हो जायेंगी। परिस्थितियाँ तो जैसे संसार में निर्मित हैं प्रारब्धवेग से बदलती रहेंगी, लोगों के मनोभावों में भी अदल-बदल होती रहेगी लेकिन उऩमें आसक्ति और ममता न होने के कारण चोट नहीं लगेगी।

अज्ञान है तो आसक्ति है और आसक्ति है तो चोट लगती है। अज्ञान नहीं है तो आसक्ति भी नहीं रहती और चोट भी नहीं लगती। एक चोट होती है किः ‘अररर…. मेरा क्या होगा ? मेरा फलाना चला गया, मेरा क्या होगा ?…..’ यह है वासना वाली चोट। ‘बेटा चला गया, बेचारे का क्या होगा ? यह है ममता की चोट। वह चला गया कहीं खड़िया न हो जाये, कहीं उसका पतन न हो जाये ?…. यह है करूणा की चोट।

माता पिता एवं गुरुजनों को ममता नहीं रखनी चाहिए, आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। संसारी लोग आसक्ति रखते हैं। माता-पिता को अगर आसक्ति नहीं है तो ममता में आ जाते हैं। ममता नहीं है, करुणा करें। करुणा का भाव ठीक है लेकिन आसक्ति दुःखदायी है, ममता दुःखदायी है।

आसक्ति होती है शरीर को ‘मैं’ मानकर और ममता होती है शरीर से संबंधित वस्तुओं को ‘मेरा’ मानकर। ‘अहं’ और ‘मम’ मिट जाये, आसक्ति और ममता से रहित हो जाये तो फिर कोई चोट नहीं लगती।

जगत की आसक्ति या देह की आसक्ति शरीर को भोगों में एवं आलस्य में गिरा देती है। आसक्ति शरीर को आलसी बना देती है, इन्द्रियों को विलासी बना देती है और मन को असंयमी बना देती है।

आलस्य नहीं, विलासिता नहीं, असंयम नहीं पुरुषार्थ हो। पुरुषार्थ अर्थात् पुरुष के अर्थ, परमात्मा के अर्थ प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न भी कैसा ? बाह्य प्रयत्न से शातं होकर भीतर कोई प्रयत्न न हो। जैसे यहाँ तक (आश्रम तक) नहीं पहुँचे थे तो औरों को जरूरत थी। यहाँ तक पहुँच गये तो फिर यहाँ बैठना ही है, बस। ऐसे ही प्रयत्न करके बाहर के आकर्षणों से अपने को हटायें और फिर शांत होकर बैठ जायें, इसका नाम है ध्यान।

इससे इन्द्रियों का संयम, मन की प्रसन्नता एवं बुद्धि की योग्यता अपने आप निखरती है। महामूर्ख में से महाकवि कालिदास इसी रीति से बने थे। विलासी विश्वामित्र मे से ऋषि विश्वामित्र इसी रीति से बने थे। कहाँ तो भूतपूर्व विलासी राजा और कहाँ श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उनकी चरण सेवा करते हैं।

पानी नीचे की ओर बहता है लेकिन पुरुषार्थ करके उसे ऊपर चढ़ाया जा सकता है। पंप लगाओ तो पानी ऊपर चढ़ जायेगा। पानी का स्वभाव ही है नीचे बहना। ऐसे ही इन्द्रियों का स्वभाव है भोगों में बहना, मन का स्वभाव है उनके पीछे जाना लेकिन पुरुषार्थ करें तो इन्द्रियाँ संयत रहेंगी और मन  उन्नत हो जायेगा। शरीर की आसक्ति शरीर को आलसी बना देगी, विलासी बना देगी और मन को असंयमी बना देगी। अगर प्रभु में, आत्मसुख को पाने में आसक्ति हुई तो मन संयमी बनेगा, इन्द्रियाँ संयत रहेंगी और शरीर प्रयत्नशील रहेगा, पुरुषार्थी रहेगा। तुलसीदासजी ने कहा हैः

जो न तरै भवसागर, नर समाज अस पाइ।

सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन अधो गति जाइ।

जिसने मनुष्य जीवन पाकर भी भवसागर से, विकारों के आकर्षण से खुद को नहीं बचाया, जो आत्मा-परमात्मा के ज्ञान में नहीं आया, वह मंदमति है, आत्म-हत्यारा है, अधोगति को जायेगा।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- ‘हे रामजी ! मनुष्य जीवन पाकर अगर उसने पुरुषार्थ नहीं किया, अपने आत्मसुख में, परमात्म भाव में आने का यत्न नहीं किया तो वह ऐसी जगह जाकर गिरेगा जहाँ से उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा।’

कबीर जी ने कल्पना करके सुनाया हैः

साँझ पड़ी दिन आथमा, दीन्हा चकवी रोय।

चलो चकवा वहँ जाइये, जहँ दिवस रैन न होय।।

चकवा कहता हैः

रैन की बिछुड़ी चाकवी, आन मिले परभात।

सत्य का बिछुड़ा मानखा, दिवस मिले नहीं रात।

‘रात्रि की बिछुड़ी चकवी तो फिर से प्रभात को आ मिलेगी लेकिन सत्य से बिछुड़ा मनुष्य न दिन को मिल पायेगा न रात्रि को।’

मनुष्य जन्म मिला है परमात्म-ज्ञान पाने के लिए, परमात्म-सुख पाने के लिए। जो सत्य-स्वरूप परमात्मा है उसका ज्ञान पाकर तुम ऐसे शिखर पर बैठ जाओगे जहाँ संसार के सुख-दुःख तुमको विचलित न सकेंगे। यह अवस्था आती है ‘अहं’ और ‘मम’ के नष्ट होने से।

अहंता और ममता का नाश होते ही चित्त में विश्रांति आने लगती है, परमात्म-प्रसाद की, परमात्म-ज्ञान की प्राप्ति स्वयं होने लगती है।

स्थूल ‘शरीर’ की आसक्ति मनुष्य को आलसी बना देती है, उसकी इन्द्रियों को विलासी बना देती है, मन को असंयमी बना देती है और बुद्धि को अविवेकी बना देती है। ईश्वर की आसक्ति शरीर, इन्द्रियों को शुद्ध पुरुषार्थी, मन को संयमी-सदाचारी बनाकर बुद्धि को शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण कर देती है।

यदि शरीर के बजाय आत्मा में प्रीति कर दें किः ‘मैं हाड़-मांस का शरीर नहीं हूँ…. मैं तो ज्ञान स्वरूप परमात्मा का सनातन सपूत हूँ। सब बदलता है फिर भी मैं नहीं बदलता हूँ….’ इस प्रकार का आत्मचिंतन एवं आत्मा में आसक्ति करने से शरीर का आलस्य दूर हो जाता है, इऩ्द्रियाँ विलासिता से परे हो जाती हैं, मन का असंयम दूर होने लगता है और बुद्धि का अविवेक हटकर बुद्धि में समत्व का साम्राज्य प्रकट होता है।

स्वामी  निश्चलदासजी के पास एक व्यक्ति ने आकर कहाः “मुझे सत्य का मार्ग बताइये।”

स्वामी निश्चलदासजी उस वक्त प्याज के छोटे छोटे पौधे उखाड़ कर दूसरी जगह पर लगा रहे थे। बोलेः “सत्य का मार्ग देखो। इधर से उखाड़कर उधर लगा दो।”

व्यक्ति कुछ समझ न पाया। तब स्पष्ट करते हुए निश्चलदास जी महाराज बोलेः ”इत्थऊ उखाड़ के उत्थे लगा दे। जो देह और उसके संबंधियों में प्रीति है उस प्रीति को उखाड़कर आत्मा में लगा दे, बस। सुख का मार्ग, सत्य का मार्ग कोई कठिन थोड़े ही है।”

सत्य का मार्ग, परमात्मा का मार्ग बुद्ध पुरुष के लिए, ब्रह्मज्ञानियों के लिए कठिन नहीं है। और बुद्धुओं के लिए सरल नहीं है। आप अगर बुद्ध पुरुष का संग करते हो तो ईश्वरीय सुख सरल हो जाता है और बुद्धुओं का संग करते हो तो बड़ा कठिन है, भाई !

‘मेरा तो यह निश्चय है….’ तुम कौन हो ? यह तुम्हें पता है क्या ? तुम अपने को तो जानते नहीं और तुम्हारा निश्चय लेकर भाग रहे हो ?

हजारों-हजारों जन्मों तक भागे और भी भागो तो तुम्हारी मर्जी है। रुकना चाहो तो हम मदद करते हैं भागना चाहते हो तुम्हारी मर्जी…. ज्ञान के शिखर पर चढ़ना चाहते हो तो हम मदद करते हैं, गिरना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी…। हम गिरने में मदद नहीं करेंगे इसीलिए ऐसा कह रहे हैं। बाकी तुम्हारी मर्जी…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 105

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