जिज्ञासा तीव्र होनी चाहिए

जिज्ञासा तीव्र होनी चाहिए


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

जिसको कुछ जानना है, वह भी दुःखी है, जिसको कुछ पाना है वह भी दुःखी है, जिसको कुछ छोड़ना है वह भी दुःखी है। कुछ पाना है और वह दूर है तो वहाँ जाना पड़ता है अथवा उसे बुलाना पड़ता है। कुछ छोड़ना है तब भी प्रयत्न करना पड़ता है और जानने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है। लेकिन अपने आपको पहचानना है तो न पकड़ना पड़ता है, न छोड़ना पड़ता है, न दूर जाना पड़ता है। केवल अपने-आपको खोजने का ज्ञान सुनना है।

जो अपना-आपा है उसको पाना क्या औऱ अपने-आपको छोड़ना क्या ? अपने-आपसे दूरी भी क्या ? इतना आसान है परमतत्त्व परमात्मा का ज्ञान। लेकिन उसके लिए आवश्यक है तीव्र जिज्ञासा और अंतःकरण की शुद्धि, शिष्य का समर्पण और गुरु का सामर्थ्य…. ये चीजें होती हैं तब काम बनता है। गुरु समर्थ हों और शिष्य समर्थ हो। “बापू जी ! शिष्य समर्थ कैसे ?”

शिष्य छल-कपट, बेईमानी छोड़ने में समर्थ हो, अपनी मनमानी छोड़ने में समर्थ हो। शिष्य का सामर्थ्य है कि अपनी मनमानी छोड़ने में समर्थ हो और गुरु का सामर्थ्य है कि अनुभूति के वचन हों। शिष्य का सामर्थ्य चाहिए गुरु ज्ञान को पचाने का और गुरु का सामर्थ्य चाहिए शिष्य को देने का। शिष्य का सामर्थ्य चाहिए कि मनमुखता छोड़ सके। गुरु का सामर्थ्य चाहिए कि अनुभव को स्पर्श करके मार्गदर्शन दे सके। गुरु की कृपा और शिष्य का पुरुषार्थ…

पुरुषार्थ भी कैसा ? ईश्वरप्राप्ति के लिए ही पुरुषार्थ, उसी दिशा का पुरुषार्थ। उससे विपरीत दिशा का पुरुषार्थ घाटा कर देता है। चाहिए तो परमात्मा लेकिन खोज रहे हैं इधर-उधर छोटे संग में !

वशिष्ठजी कहते हैं- ‘हे राम जी ! मरूभूमि का मृग होना अच्छा है लेकिन मूढ़ों का संग अच्छा नहीं।’ एकांत में आश्रम भी बनायेंगे तो संग ज्ञानी का मिलेगा कि मूढ़ों का मिलेगा ? अतः संग ऊँचा हो जिससे जिज्ञासा उभरे। जिज्ञासा बढ़े।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- पहले तालाब में पत्थर जैसे, जब तक पत्थर तालाब में पड़ा रहता है भीगा रहता है, बाहर निकालो तो वो कुछ ही देर में सूख जाता है। ऐसे ही कई लोग होते हैं जो सत्संग में जाते हैं तब तक भीगे रहते हैं बाहर निकले तो भी कुछ देर सत्संग का प्रभाव रहता है। बाद में देखो तो वैसे-के-वैसे। ब्रह्मवेत्ता के ऐसे तो करोड़ों भक्त होते हैं।

दूसरे प्रकार के लोग होते हैं कपड़े जैसे, कपड़े को सरोवर में डाला, भीगा, ठंडा भी हुआ। बाहर निकाला तो पत्थर जितनी जल्दी सूखता है उतनी जल्दी नहीं सूखता, समय पाकर सूखता है। ऐसे ही कुछ होते हैं अंतेवासी, जो सब छोड़कर समर्पित होते हैं। गुरु के कार्य में भी लगते हैं लेकिन समय पाकर वे भी मनमुख हो जाते हैं।

तीसरे होते हैं शक्कर के ढेले की तरह, सरोवर में डालो तो घुलमिल जाते हैं। उनका अपना  अस्तित्त्व ही नहीं रहता, स्वयं सरोवर हो जाते हैं।

ऐसा शिष्य तो लाखों-करोड़ों में कोई विरला ही होता है। कभी कोई मिल गया ब्रह्मवेत्ता के जीवन में तो बहुत हो गया…. बाकी सब तैयार हो रहे हैं, किसी-न-किसी जन्म में जागेंगे। ब्रह्मवेत्ता का अनुभव बहुत ऊँची स्थिति है। भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बराबरी का अनुभव कोई मजाक की बात है क्या ? ईश्वर प्राप्ति की तीव्र जिज्ञासा हो और मनमुखता छोड़ें, तब पूर्णता का सर्वोपरि ऊँचा आत्म-साक्षात्कार का अनुभव होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 9, अंक 105

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