वास्तविक अमृत कहाँ ?

वास्तविक अमृत कहाँ ?


राजा भोज के दरबार में चर्चा हो रही थी किः “अमृत कहाँ होगा ?”

एक विद्वान ने कहाः “अमृत कहाँ होगा पूछने की क्या जरूरत है ? स्वर्ग में अमृत है।”

दूसरे विद्वान ने कहाः “ठहरो। स्वर्ग में अगर अमृत होता तो फिर स्वर्ग से पतन नहीं होना चाहिए। पुण्यों का नाश नहीं होना चाहिए और स्वर्ग में राग द्वेष नहीं होना चाहिए। हम स्वर्ग में वास्तविक अमृत नहीं समझते हैं।”

तीसरे विद्वान ने कहाः “अमृत चन्द्रमा में है। चंद्रमा अमृत बरसाता है। उसी से पेड़-पौधे एवं औषधियाँ पुष्ट होती हैं।”

चौथे विद्वान ने कहाः “अगर चन्द्रमा में अमृत है तो उसका क्षय क्यों होता है ? पूनम के बाद फिर क्षय होने लगता है। दूसरे, उसमें कलंक क्यों दिखता है ?”

अनजान कामी कवियों के रंग में रंगे कलयुगी मति के कवि ने कहाः “अमृत न स्वर्ग में है, न चंद्रमा में है। अमृत तो स्त्री के होठों में है, अधरामृत।”

किसी जानकार ने कहाः “स्त्री में अगर अमृत है तो वह विधवा क्यों होती है ? दुःखी क्यों होती है ? उसके होठों के नजदीक बदबू क्यों आती है ?”

किसी ने कहाः “अमृत तो सर्पों के पास होता है तो दूसरे ने कहा मणिधारों के पास अगर अमृत होता है तो उनमें विष कहाँ से आता है ? विष भी अमृत हो जाना चाहिए।”

किसी ने कहाः “सागर में अमृत में है।”

“अगर सागर में अमृत होता तो सागर खारा क्यों होता ?”

इस प्रकार चर्चा चल रही थी। इतने में कालीदास जी आये। सबने उनसे पूछाः “अमृत कहाँ होता है ?”

“तुम्हारा क्या निर्णय है ?”

किसी ने कहा, स्वर्ग में होता है। किसी ने कहा, मणिधारों के पास होता है। किसी ने स्त्री में बताया। किसी ने चन्द्रमा में तो किसी ने सागर में बताया।

आशिर प्रश्न का उत्तर पाने के लिए सबने कालिदास जी को प्रणाम किया और कहाः “आप ही बताइये।”

उन्होंने बतायाः “न स्वर्ग में वास्तविक अमृत है, न पृथ्वी पर वास्तविक अमृत है, न स्त्री में अमृत है, न सागर में शाश्वत अमृत है, न चन्द्रमा में शाश्वत अमृत है। स्वर्ग का अमृत तो दरिया का क्षोभ करने से पैदा हुआ था और स्त्री को अमृत मानते हो तो विकारी को उसमें अमृत दिखता है, निर्विकारी को तो नहीं दिखता। रज-वीर्य से तो शरीर बना फिर उसमें अमृत कहाँ से आया ? अमृत तो हमें मिला संतों की सभा में जहाँ अमर तत्त्व की बात सुनते सुनते ये मृत चित्त और मृत शरीर भी अमृत जैसे आनंद में सराबोर हो जाते हैं। अमृत हमने संतों की सभा में पाया।” अमृत हमने सत्संग में पाया और उसी अमृत के बल से हम चित्त के प्रसाद से, आत्म-अमृत से संतुष्ट हैं और तुम पर निगाह डालता हूँ तो तुम्हें भी संतोष हो रहा है, आनंद आ रहा है। सच्चा अमृत तो संतों की सभा में है।

स्वर्ग का अमृत तो दरिया का मंथन करने से निकला था लेकिन संत के हृदय का अमृत तो परमात्मा का चिंतन करने से, परमात्म तत्त्व के बोध के प्रभाव से आनंद उत्पन्न करते करते निकलता है। स्वर्ग का अमृत तो क्षोभ से निकला था, मंथन से निकला था। लेकिन संत के हृदय से परमात्मा की चर्चा शीतलता और शांति से निकलती है। वही सच्चा अमृत है।

कंठे सुधा वसति वै भगवज्जनानाम्।

भगवान के प्यारे भक्तों, संतों के कंठ में, उनकी आत्मिक वाणी में ही वास्विक अमृत होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 17 अंक 105

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *