Monthly Archives: September 2001

महापुरुषों की युक्ति


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

संसारियों को कई गुत्थियों का हल नहीं मिल पाता। यदि मिल भी जाता है तो एक को राजी करने में दूसरे को नाराज करना पड़ता है एवं नाराज हुए व्यक्ति के कोप का भाजन बनना पड़ता है। जबकि ज्ञानियों के लिए उन गुत्थियों को हल करना आसान होता है। ज्ञानी महापुरुष ऐसी दक्षता से गुत्थी सुलझा देते हैं कि किसी भी पक्ष को खराब न लगे। इसीलिए देवर्षि नारद की बातें देव-दानव दोनों मानते थे।

ऐसी ही एक घटना मेरे गुरुदेव के साथ परदेश में घटी थीः एयरपोर्ट पर गुरुदेव को लेने के लिए  बड़ी-बड़ी हस्तियाँ आयी थीं। कई लोग अपनी बड़ी लग्जरी गाड़ी में गुरुदेव को बैठाने के लिए उत्सुक थे। एक-दो आगेवानों के कहने से और सब तो मान गये लेकिन दो भक्त हठ पर उतर गये – “गुरुदेव बैठेंगे तो मेरी ही गाड़ी में।” मामला जटिल हो गया। दोनों में से एक भी टस से मस होने को तैयार न था। इन दोनों भक्तों की जिद्द अऩ्य भक्तों के लिए सिरदर्द का कारण बन गयी।

एक ने कहाः  “यदि पूज्य गुरुदेव मेरी गाड़ी  में नहीं बैठेंगे तो मैं गाड़ी के नीचे सो जाऊँगा।”

दूसरे ने कहाः “पूज्य गुरुदेव मेरी गाड़ी में नहीं बैठेंगे तो  मैं जीवित नहीं रहूँगा।”

ऐसी परिस्थिति में ‘क्या करें, क्या न करें ?’ यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था। दोनों बड़ी हस्तियाँ थी, अहं की साइज भी बड़ी थी। दोनों में से किसी को भी बुरा न लगे – ऐसा सभी भक्त चाहते थे। इस बहाने भी ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का सान्निध्य मिले तो अच्छा है – ऐसी उदात्त भावना से उऩ्होंने हल ढूँढने का प्रयास किया किन्तु असफलता  मिली।

इतने में तो मेरे गुरुदेव का प्लेन एयरपोर्ट पर आ गया। पूज्य गुरुदेव बाहर आये, तब समिति वालों ने पूज्य गुरुदेव का भव्य स्वागत करके खूब  नम्रता से परिस्थिति से अवगत कराया एवं पूछाः “बापू जी ! अब क्या करें।”

ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कभी-कभी ही परदेश पधारते हैं। अतः स्वाभाविक है कि प्रत्येक व्यक्ति निकट का सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयत्न करे। प्रेम से प्रयत्न करना अलग बात है एवं नासमझ की तरह जिद्द करना अलग बात है। संत तो प्रेम से वश हो जाते हैं जबकि जिद्द के साथ नासमझी उपरामता ले आती है। लोगों ने कहाः

“दोनों के पास एक-दूसरे से टक्कर ले – ऐसी गाड़ियाँ हैं एवं निवास हैं। बहुत समझाया पर मानते नहीं हैं। हमारी गाड़ी में बैठकर हमारे घर आयें – ऐसी जिद्द लेकर बैठे हैं। अब आप ही इसका हल बताने की कृपा करें। हम तो परेशान हो गये हैं।”

पूज्य गुरुदेव बड़ी सरलता एवं सहजता से बोलेः “भाई ! इसमें परेशान होने जैसी बात ही कहाँ है ? सीधी बात है और सरल हल है। जिसकी गाड़ी में बैठूँगा उसके घर नहीं जाऊँगा और जिसके घर जाऊँगा उसकी गाड़ी में नहीं बैठूँगा। अब निश्चय कर लो।”

इस जटिल गुत्थी का हल गुरुदेव ने चुटकी बजाते ही कर दिया कि ‘एक की गाड़ी दूसरे का घर।’

दोनों पूज्य गुरुदेव के आगे हाथ जोड़कर खड़े रह गयेः “गुरुदेव ! आप जिस गाड़ी में बैठना चाहते हैं उसी में बैठें। आपकी मर्जी के अनुसार ही होने दें।”

थोड़ी देर पहले को हठ पर उतरे थे परन्तु संत के व्यवहार कुशलतापूर्ण हल से दोनों ने जिद्द छोड़कर निर्णय भी संत की मर्जी पर ही छोड़ दिया !

प्राणीमात्र के परम हितैषी संतजनों द्वारा सदैव सर्व का हित ही होता है। ब्रह्मज्ञानी ते कछु बुरा न भया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 19, 20 अंक 105

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जिज्ञासा तीव्र होनी चाहिए


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

जिसको कुछ जानना है, वह भी दुःखी है, जिसको कुछ पाना है वह भी दुःखी है, जिसको कुछ छोड़ना है वह भी दुःखी है। कुछ पाना है और वह दूर है तो वहाँ जाना पड़ता है अथवा उसे बुलाना पड़ता है। कुछ छोड़ना है तब भी प्रयत्न करना पड़ता है और जानने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है। लेकिन अपने आपको पहचानना है तो न पकड़ना पड़ता है, न छोड़ना पड़ता है, न दूर जाना पड़ता है। केवल अपने-आपको खोजने का ज्ञान सुनना है।

जो अपना-आपा है उसको पाना क्या औऱ अपने-आपको छोड़ना क्या ? अपने-आपसे दूरी भी क्या ? इतना आसान है परमतत्त्व परमात्मा का ज्ञान। लेकिन उसके लिए आवश्यक है तीव्र जिज्ञासा और अंतःकरण की शुद्धि, शिष्य का समर्पण और गुरु का सामर्थ्य…. ये चीजें होती हैं तब काम बनता है। गुरु समर्थ हों और शिष्य समर्थ हो। “बापू जी ! शिष्य समर्थ कैसे ?”

शिष्य छल-कपट, बेईमानी छोड़ने में समर्थ हो, अपनी मनमानी छोड़ने में समर्थ हो। शिष्य का सामर्थ्य है कि अपनी मनमानी छोड़ने में समर्थ हो और गुरु का सामर्थ्य है कि अनुभूति के वचन हों। शिष्य का सामर्थ्य चाहिए गुरु ज्ञान को पचाने का और गुरु का सामर्थ्य चाहिए शिष्य को देने का। शिष्य का सामर्थ्य चाहिए कि मनमुखता छोड़ सके। गुरु का सामर्थ्य चाहिए कि अनुभव को स्पर्श करके मार्गदर्शन दे सके। गुरु की कृपा और शिष्य का पुरुषार्थ…

पुरुषार्थ भी कैसा ? ईश्वरप्राप्ति के लिए ही पुरुषार्थ, उसी दिशा का पुरुषार्थ। उससे विपरीत दिशा का पुरुषार्थ घाटा कर देता है। चाहिए तो परमात्मा लेकिन खोज रहे हैं इधर-उधर छोटे संग में !

वशिष्ठजी कहते हैं- ‘हे राम जी ! मरूभूमि का मृग होना अच्छा है लेकिन मूढ़ों का संग अच्छा नहीं।’ एकांत में आश्रम भी बनायेंगे तो संग ज्ञानी का मिलेगा कि मूढ़ों का मिलेगा ? अतः संग ऊँचा हो जिससे जिज्ञासा उभरे। जिज्ञासा बढ़े।

तीन प्रकार के लोग होते हैं- पहले तालाब में पत्थर जैसे, जब तक पत्थर तालाब में पड़ा रहता है भीगा रहता है, बाहर निकालो तो वो कुछ ही देर में सूख जाता है। ऐसे ही कई लोग होते हैं जो सत्संग में जाते हैं तब तक भीगे रहते हैं बाहर निकले तो भी कुछ देर सत्संग का प्रभाव रहता है। बाद में देखो तो वैसे-के-वैसे। ब्रह्मवेत्ता के ऐसे तो करोड़ों भक्त होते हैं।

दूसरे प्रकार के लोग होते हैं कपड़े जैसे, कपड़े को सरोवर में डाला, भीगा, ठंडा भी हुआ। बाहर निकाला तो पत्थर जितनी जल्दी सूखता है उतनी जल्दी नहीं सूखता, समय पाकर सूखता है। ऐसे ही कुछ होते हैं अंतेवासी, जो सब छोड़कर समर्पित होते हैं। गुरु के कार्य में भी लगते हैं लेकिन समय पाकर वे भी मनमुख हो जाते हैं।

तीसरे होते हैं शक्कर के ढेले की तरह, सरोवर में डालो तो घुलमिल जाते हैं। उनका अपना  अस्तित्त्व ही नहीं रहता, स्वयं सरोवर हो जाते हैं।

ऐसा शिष्य तो लाखों-करोड़ों में कोई विरला ही होता है। कभी कोई मिल गया ब्रह्मवेत्ता के जीवन में तो बहुत हो गया…. बाकी सब तैयार हो रहे हैं, किसी-न-किसी जन्म में जागेंगे। ब्रह्मवेत्ता का अनुभव बहुत ऊँची स्थिति है। भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बराबरी का अनुभव कोई मजाक की बात है क्या ? ईश्वर प्राप्ति की तीव्र जिज्ञासा हो और मनमुखता छोड़ें, तब पूर्णता का सर्वोपरि ऊँचा आत्म-साक्षात्कार का अनुभव होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 9, अंक 105

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चित्त को वश कैसे करें ?


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में आता है किः “चित्तरूपी पिशाच भोगों की तृष्णारूपी विष से पूर्ण है और उसने फुत्कार के साथ बड़े-बड़े लोक जला दिये हैं। शम-दम आदि धैर्यरूपी कमल जल गये हैं। इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता…. हे राम जी ! यह चित्त शस्त्रों से नहीं काटा जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है। साधु के संग और सत्शास्त्रों के विचार से नाश होता है।”

चित्तरूपी पिशाच को, मन रूपी भूत को समझाने के लिए वशिष्ठजी महाराज कहते हैं। ‘शम’ माने मन को रोकना, ‘दम’ माने इन्द्रियों को रोकना और भगवान में लगाना। इन शम दमादि सारे सदगुणों को चित्तरूपी पिशाच ने नष्ट कर दिया है। इस चित्तरूपी पिशाच को शनैः शनैः वश करने का यत्न करना चाहिए। नियम में निष्ठा रखें एवं अपने को व्यस्त रखें। सत्प्रवृत्ति, सत्कर्म में ऐसे लगे रहो कि दुष्प्रवृत्ति और दुष्कर्म के विषय में सोचने का समय ही न मिले, करने की बात तो ही दूर रही।

‘खाली दिमाग शैतान का घर’ होता है अतः अपने को व्यस्त रखें। अपने समय का सदुपयोग करें। सत्पुरुषों के रास्ते चलें, ईश्वर के नाम का आश्रय लें। इसी से अपना मंगल होता है, कल्याण होता है।

यह चित्तरूपी पिशाच जो जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है, विकारों में तपाता है वह शस्त्रों से काटा नहीं जाता, आग से जलाया नहीं जाता और न ही अन्य हथियारों से नष्ट किया जा सकता है। यह तो केवल संतों के संग, सत्शास्त्रों के विचार और भगवन्नाम के जप से ही शांत होता है और बड़े लाभ को प्राप्त कराता है।

बड़े में बड़ा लाभ है-आत्मसुख, हृदय का आनंद, हृदयेश्वर का बोध प्राप्त हो जाय। फिर सुख और दुःख की चोट नहीं लगती। दिव्य ज्ञान की, दिव्य आनंद की दिव्य प्रेरणा मिलती है। अपने आत्मखजाने की प्राप्ति होने से सारे दुःख सदा के लिए मिट जाते हैं। ऐसा पुरुष स्वयं तो परमसुख पाता ही है दूसरों को भी सुख देने में सक्षम हो जाता है।

जरूरत है तो केवल चित्तरूपी वैताल को वश करने की। ईश्वर में मन लगता नहीं है इसलिए इधर-उधर भटकता है। जप-ध्यान, सेवा में नियम से लगता नहीं है, इधर-उधर की बातों में ज्यादा लगता है। अतः यत्नपूर्वक मन को जप ध्यान-सेवा में लगायें। इधर-उधर के फालतू विचार आयें तो मन को कह दें-खबरदार ! मेरा मनुष्य जीवन है और परमात्मा में लगाना है। मन ! तू इधर-उधर की बातें कब तक सुनेगा और सुनायेगा ? एक-दूसरे के झगड़े में, टाँग खींचने में अथवा विकारों में कब तक खपता रहेगा ?”

जो अपना समय एक-दूसरे को लड़ाने में, टाँग खींचने में अथवा विकारों में नष्ट करते हैं, उऩका विनाश हो जाता है। फिर वे ‘कोचमैन’ का घोड़ा बनकर भी कर्म नहीं काट सकते और कुम्हार का गधा बनने पर भी उनके पूरे कर्म नहीं कटते। सुअर, कुत्ता, पेड़-पौधा आदि कई योनियों में भटकते हैं फिर भी कर्मों का अंत नहीं होता।

केवल मनुष्य जन्म में ही जीव सारे कर्मों का अन्त करके अनंत को पा सकता है। मनुष्य जीवन बड़ी कीमती है। इस कीमती समय को जो गप-शप में खर्चता है उसके जैसा अभागा दूसरा कोई नहीं है। इस कीमती समय को जो दूसरों की टाँग खींचने में या निंदा-चुगली में लगाता है, उसके जैसा बेवकूफ दूसरा कौन हो सकता है ? इस कीमती समय को छल-कपट करके अपने हृदय को जो मंद बना देता है उस जैसा आत्महत्यारा कौन ?

रक्षताम् रक्षताम् कोषानामपि हृदयकोषम्।

‘रक्षा करो, रक्षा करो अपने हृदय की रक्षा करो।’ इसमें मलिन विचार न आयें, इसमें छल-कपट न आये। अगर किसी कारणवश आ भी जाये तो तुरंत सचेत होकर उससे अलग हो जायें। तभी हृदय शुद्ध होगा। यदि कोई हृदय में छल कपट, बेईमानी रखता है तो जप-ध्यान पूरा फलता नहीं है।

कोई बोलते हैं किः ‘राम-राम करेंगे तो तर जायेंगे। गीध, गणिका, अजामिल आदि तर गये, बिल्वमंगल तर गये।’ लेकिन कब तरे ? जब वैश्या का रास्ता छोड़ सच्चाई से ईश्वर का रास्ता पकड़ा, ध्यान-भजन में बरकत आयी तब तरे। अजामिल ‘नारायण-नारायण’ करके तर गये। कैसे तरे कि बुराइयाँ छोड़कर अच्छे मार्ग पर कदम रखा, तब तरे। ऐसा हीं कि भलाई का काम भी करते रहे और अंदर से बुराई, छल-कपट भी करते रहे ! बुराई को बुराई जानें और जो सच्चाई है उसको सच्चाई जानें।

अपनी बुद्धि को बलवान बनायें। आत्मविषयिणी बुद्धि करें, फिर मन उसके अनुरूप चले और इन्द्रियाँ भी उसके कहने पर चलें। एक बार परब्रह्मपरमात्मा का साक्षात्कार कर लें फिर विकारों में होते हुए भी निर्विकारी नारायण में रहेंगे। भोग में रहते हुए भी आत्मयोग में रहेंगे। तमाम व्यवहार करने पर भी, जनक की तरह लेना-देना, राज्य करना पड़े फिर भी अंतःकरण में भगवत्-रस, भगवत्-ज्ञान, भगवत्-शांति बनी रहेगी।

एक बार भगवत्तत्व को पाने तक अपने चित्त की रक्षा करो, फिर तो स्वाभाविक ही सुरक्षित रहता है। जैसे एक बार दही से मक्खन निकाल दो फिर छाछ में डालो तब ऊपर ही रहेगा, ऐसे ही एक बार बुद्धि को इन विकारों से, प्रपंचों से ऊपर ऩिकालकर परमात्मसुख का स्वाद दिला दो फिर बुद्धिपूर्वक संसार में रहो तो भी कोई लेप नहीं लगता। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। (गीता) उसकी प्रज्ञा परब्रह्म में प्रतिष्ठित हो जाती है।

अतः आप भी प्रयत्न करो, पुरुषार्थ करो, शाश्वत फल पाओ। प्रज्ञा को परब्रह्म में प्रतिष्ठित करके मोक्ष सुख को पा लो। स्वर्ग भी जहाँ फीका हो जाय उस आत्म-परमात्म सुख को दाँव पर लगा कर वृद्ध होने वाले, बीमार होने वाले और छूट जाने वाले कल्पित शरीर के पीछे आत्मा का घात कर रहे हैं। चैतन्य-चंदन को भूले जा रहे हैं, खोय जा रहे हैं। काश ! अभी भी रुक जायें। आखिर कब तक इस नश्वर की ममता करेंगे ! शाश्वत का संगीत, शाश्वत आनंद और शाश्वत सुख को पाने के  प्रयास में लगें। ॐ शांति…. ॐ आंतरिक सुख… ॐ अंतरात्मा का माधुर्य-ज्ञान…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 105

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