वैराग्य अग्नि प्रज्वलित करें….

वैराग्य अग्नि प्रज्वलित करें….


(जैसे गाय दिन भर के चारे का कुछ साररूप अमृत अपने बछड़े को दूधरूप में पिलाती है ऐसे ही प्राचीन ग्रंथों-पुराणों और उपनिषदों का साररूप अमृत-रस  संचित करके, पूज्य बापू जी अपने भक्तों को पिला रहे हैं। यह ज्ञानामृत ‘चित्त का इलाज’ कैसेट से संकलित है।)

पुराण में यह प्रसंग आता है, श्री कृष्ण उद्धव को यह प्रसंग सुनाते हैं-

भगवान श्रीहरि के अंशावतार नर-नारायण नामक ऋषि पवित्र स्थान बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे थे। उनके तप को भंग करने के लिए देवराज इन्द्र ने अप्सराएँ भेजीं, लेकिन नर-नारायण ने चित्त से पार का निर्विकल्प सुख पाया था, वे क्रिया के सुख में कैसे गिर सकते थे ?

नर-नारायण ने उन अप्सराओं की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं ! कामदेव और रति के साथ आयी हुई वे अप्सराएँ अपने प्रयत्न में असफल रहीं। नर-नारायण अपने सहजस्वरूप से नीचे नहीं आये। निर्विकल्प से सविकल्प में, सविकल्प से भाव में और भाव से क्रिया में नहीं आये।

होता ऐसा है कि तत्त्व से, निर्विकल्प से सविकल्प में आया जाता है, सविकल्प से भाव में और भाव से क्रिया होती है। क्रिया में उलझ गये तो क्रिया को थामो, भाव में आओ। भाव को बदलो, समाधि में आओ। समाधि को बदलकर तत्त्व में चले आओ तो आप भी नर-नारायण स्वरूप हो जाओगे।

देवराज इन्द्र की भेजी हुई अप्सराओं से नर-नारायण विचलित न हुए, वरन् नारायण में अपने उरु से एक अत्यंत रूपवती अप्सरा ‘उर्वशी’ को उत्पन्न किया। जिसके आगे इन्द्र की अप्सराएँ भी फीकी पड़ गयीं। नारायण ने वह उर्वशी इन्द्र को भेंट दे दी।

स्वर्ग से आयी अप्सरा ने कहाः “देवेन्द्र ने हमें आपकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए भेजा था।

महाभाग ! आप देवाधिदेव ऩारायण हैं। हम चाहती हैं कि आपकी सेवा करें। आप हमें स्वीकार करने की कृपा करें।”

नारायणः “अभी नहीं। हमने इस जन्म में तय कर रखा है कि विवाह नहीं करेंगे। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के द्वापर में मैं भूमण्डल पर प्रकट होऊँगा। उस समय तुम सभी अलग-अलग जन्म लेकर मेरी पत्नी बनोगी।”

वे ही नर और नारायण द्वापर में श्रीकृष्ण और बलराम के रूप में प्रगट हुए थे एवं वे ही अप्सराएँ श्रीकृष्ण की रानियाँ बनी थीं, ऐसी कथा है।

नारायण द्वारा प्रगट की गयी उर्वशी नृत्यकला में अद्वितीय थी। शोभा एवं रूप-लावण्य में भी सबसे बढ़-चढ़कर थी।

जब योग्यता बढ़ जाती है और अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता तो परिच्छिन्नता रहती है, अहंकार आ जाता है और जब अहंकार आ जाता है तब सारी योग्यताओं पर पानी फिर जाता है।

कोई कितना भी पुण्यात्मा हो, कितना भी धर्मात्मा हो, कितना भी बलवान हो, कितना भी विद्वान हो, कितना भी धनवान हो, कितना भी सत्तावान हो लेकिन जब अहंकार आ जाता है तब सारे गुण अवगुण में परिवर्तित हो जाते हैं।

उर्वशी नृत्य कर रही थी। नृत्य करते-करते उसे लगाः ‘मैं कितना सुन्दर नृत्य कर रही हूँ !’ उसमें मैं की परिच्छिन्नता आ गयी….

क्रिया सहज में होती है तो समाधि जैसा सुख होता है लेकिन क्रिया का मूल्यांकन करके जीव कर्ता बन जाता है तो सहज क्रिया के नीचे की स्थिति में आ जाता है। आप जब ऑफिस में, दुकान में, देश में, परदेश में, जहाँ भी काम करते हो और आनंद आता है तो समझो, आप अपने कर्ताभाव को भूले हुए हो। क्रिया तो हो रही है लेकिन अनजाने में आप भावना के जगत में पहुँचे हो, तब काम करने में आपको मजा आता है। आप जब आनंदित होते हो तो आपके द्वारा सुहावने निर्णय आते हैं। अतः जिस समय जो काम करें, फल की आकांक्षा के लिए नहीं। यदि व्यवहार करते समय हमारी नजर फल पर होती है तो व्यवहार का रस नहीं मिलता, लेकिन यदि हमारी नजर परमात्मा पर होती है तो व्यवहार का फल भी सुन्दर होता है और अंतःकरण भी शुद्ध होता है।

उर्वशी को गर्व हुआ कि मैं कितना सुन्दर नृत्य कर रही हूँ तो वह नृत्य की कला भूल गयी। तब ब्रह्मदेव ने शाप दियाः ‘जा, मृत्युलोक को प्राप्त हो।’

उर्वशी को अपनी गल्ती का पता चल गया कि मुझमें मद आ गया था। उर्वशी ने क्षमायाचना की। ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ और बोलेः

“जब तू ऐल (पुरुरवा) राजा को नग्न अवस्था में देखेगी तब शाप से मुक्त होगी और तुझे पुनः स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा।”

इन्द्र ने देखा कि बेचारी उर्वशी मृत्युलोक में जा रही है। वह जल्दी से शापनिवृत्त हो जाय इसलिए दो अश्विनी कुमारों को मेढ़े के रूप में साथ में दे दिया।

ऐल राजा महाप्रतापी था। बड़े-बड़े मुकुटधारी राजा उसके आगे नतमस्तक होते थे। वह गरीबों का सहायक और प्रजा का पालक था, साधु संतों का आदर करने वाला था, मित्रों का परम सुहृद था और शत्रुओं के लिए काल के समान था। विद्या एवं धन से सम्पन्न होते हुए भी निरभिमानी और दानी था।

ऐसे रूप, गुण, वैभव, सदाचार एवं शक्तिसम्पन्न राजा ऐल को उर्वशी ने अपने चंगुल में फँसा लिया। राजा पुरुरवा उसके मोह में पड़ गया। मोह में पड़ा तो इन्द्रियों के सुख में पड़ गया और इन्द्रियों का सुख बार-बार भोगने से आदमी आत्मसुख से, समाधि के सुख से, भाव के सुख से नीचे आ जाता है।

समाधि का सुख बार-बार लेने से इन्द्रियों के सुख से मनुष्य ऊपर उठ जाता है। जबकि बार-बार विकारों का सुख भोगने से मनुष्य समाधि के सुख से, आत्मसुख से नीचे आ जाता है।

इतना प्रतापी और यशस्वी राजा भी धीरे-धीरे उर्वशी के वश में हो गया। उर्वशी जैसा कहती वैसा ही राजा करता। जैसे, बंदर मदारी के इशारे पर नाचता है ऐसे ही वह राजा उसके इशारे पर नाचता। इस तरह वर्षों बीत गये।

एक रात्रि को इन्द्र की प्रेरणा से गंधर्व मेढ़ों को चुराकर ले गये। जब वे मेढ़ों को ले चले तो मेढ़े चिल्लाने लगे। उर्वशी उन मेढ़ों को पुत्र के समान मानती थी। उनके चिल्लाने की आवाज सुनकर वह क्रोधित हो उठी और बोलीः

“राजन् ! मेढ़ों को सुरक्षित रखने की तुमने प्रतिज्ञा की थी, किन्तु ! आज तुम्हारे विश्वास में आकर मैं बरबाद हो गयी। मेरे पुत्र के सामन आँखें मूँदे पड़े हो। तुम्हें धिक्कार है ! तुम कैसे राजा हो ? कैसे वीर हो ? चोरों से मेढ़ों को नहीं छुड़वा सकते ?”

जब स्त्री अपमान कर देती है तो पुरुष को ज्यादा जोश आ जाता है।

राजा हथियार लेकर  मेढ़ों के पीछे भागा तो कपड़ों तक का ख्याल न रहा। कहाँ तो प्रतापी, यशस्वी राजा ऐल और कहाँ स्त्री का आज्ञा से मेढ़ों के बचाने के लिए भागा जा रहा है… कटिवस्त्र भी छूट गया, एकदम दिगम्बर हो गया। इतने में बिजली चमकी और बिजली के प्रकाश में उर्वशी ने राजा को नग्नावस्था में देख लिया। राजा का बचा हुआ तप-तेज उर्वशी के हिस्से चला गया और वह शाप से मुक्त हो गयी, उसका को तो काम बन गया।

मेढ़ों को लेकर अपने भवन में लौटने पर राजा को उर्वशी स्वर्ग में जाने के लिए तत्पर दिखाई दी। उर्वशी को देखकर राजा बोलाः “अरी सुन्दरी ! कमललोचनी ! ठहरो। मुझे सुखी करो। मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है। तुम्हारे बिना मैं कैसे जीऊँगा ? तुम्हारे लिए तो मैंने अपना राज्य तक छोड़ दिया।”

इस प्रकार राजा ऐल विलाप करने लगे।

उर्वशीः “महाराज ! तुम बड़े मूर्ख हो। तुम्हारी बुद्धि कुण्ठित हो गयी है। इस दुनिया में किसी का कोई सहारा नहीं होता। सच्चा सहारा तो परमात्मा ही है।”

स्त्री फटकारे, लानत दे फिर भी अन्दर वैराग्य नहीं होता, विवेक नहीं होता क्योंकि क्रिया के सुख से हम लोगों का इतना तादात्म्य हो जाता है कि अपमान भी उस वक्त मजाक लगता है।

उर्वशी ने राजा को समझाने का यत्न किया कि तुमने कई बार मेरे शरीर का आलिंगन किया, वर्षों तक किया। इससे तुम्हें क्या मिला ? जरा सोचो। देह नश्वर है और देह का सुख भी नश्वर है। क्रिया के नश्वर सुख में तुम अपने शाश्वत प्रभु को क्यों भूलते हो ?”

फिर भी राजा ऐल का मोह न गया। ऐल गिड़गिड़ाने लगा। आखिर उर्वशी का हृदय पिघला। उसने गन्धर्वों से अग्निपात्र लेकर दिया और कहाः “इस अग्निपात्र में हवन करोगे तो तुम स्वर्ग को प्राप्त होगे और हम फिर वहाँ भोग भोगेंगे।”

अग्निपात्र लेकर राजा अपने महल में चला गया। अग्निपात्र में उसने हवन किया। उसके प्रताप से वह स्वर्ग गया और उसने चिरकाल तक उर्वशी के साथ भोग भोगे।

उर्वशी के साथ भोगते-भोगते ऐल जब क्षीणकाय हुआ, पुण्य क्षीण हुए तब उसे वैराग्य आया कि अरे ! मुझे धिक्कार है। मैं कहाँ तो प्रतापी राजा, कहाँ तेजस्वी राजा और कहाँ मैंने अपना जीवन विषय-विकारों में बरबाद कर दिया ! इसमें उर्वशी का कसूर नहीं है, कसूर मेरा ही है। मैं अपने महा प्रताप को भूलकर शापित उर्वशी के चक्कर में पड़ा ! अरे काम ! तुझे धिक्कार है ! अरे ! क्रिया के सुख ! तुझे धिक्कार है ! मुझ जैसे प्रतापी राजा को तूने हरण कर लिया ! बड़े-बड़े ऋषियों को, तपस्वियों को भी तूने ही गिराया है ! अरे, काम ! तुझे धिक्कार है। जो तेरा ग्रास हो जाता है उसके पश्चाताप का कोई पार नहीं रहता है।

जीव जब परमात्मा की शरण में जाता है तो उसका हृदय शुद्ध होने लगता है। जब वह भोग-भोगता है तो उसका हृदय अशुद्ध होता है। भोगों की तुच्छता का ख्याल करके परमात्मा की स्मृति करता है तो चित्त शुद्ध होता है।

पानी को जब अग्नि का संयोग मिलता है तो वाष्पीभूत होने लगता है। एक पानी की बूँद को जब अग्नि का संयोग मिलता है तो उसमें 1300 गुनी ताकत आ जाती है। ऐसे ही चित्त को जब विवेक वैराग्य की अग्नि मिलती है तब चित्त बड़ा शक्तिशाली हो जाता है, सूक्ष्म हो जाता है और ऐसा चित्त परमात्म-यात्रा में सफल होने लगता है।

अतः भोगों की नश्वरता एवं क्षणभंगुरता का ख्याल करके विवेक जगायें, वैराग्य रूपी अग्नि से चित्त को सूक्ष्म करके परमात्म-पथ पर अग्रसर होते जायें। यही जीवन का साफल्य है।

जानिअ तबहिं जीव जग जागा, जब सब विषय बिलास बिरागा।

(श्रीरामचरितमानस)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2001, पृष्ठ संख्या 16-18, अंक 106

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