साधना के सोपान

साधना के सोपान


(पूज्य श्री के तीन महीने के एकांत-मौन के बाद दक्षिण दिल्ली के पुष्पविहार में हुए सत्संग से उदधृत कुछ अमृत-पुष्प….)

चार जगर पर व्यावहारिक बात नहीं करनी चाहिए, केवल भगवत्स्मरण ही करना चाहिए। ये चार स्थान हैं- श्मशान, मंदिर, गुरु-निवास एवं रोगी के पास।

श्मशान में कभी गये तो ‘तुम्हार क्या हाल है ? आजकल धंधा कैसा चल रहा है ? सरकार का ऐसा है…..’ ना, ना। श्मशान में इधर उधर की बातें न करें वरन् अपने मन को समझायें- ‘आज इसका शरीर आया, देर सवेर शरीर यह शरीर भी ऐसे ही आयेगा…. इसको ‘मैं-मैं’ मत मान, जहाँ से मैं-मैं की शक्ति आती है वही मेरा है…. प्रभु ! तू ही तू… तू ही तू…. मैं तेरा, तू मेरा। अरे मन ! इधर-उधर की बातें मत कर… देख, यह शव जल रहा है, कभी यह शरीर भी जल जायेगा।’ इस प्रकार मन को सीख दें।

महिलाओं को श्मशान में नहीं जाना चाहिए और पुऱुशों को अगर श्मशान में जाने को न मिले तो आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ईश्वर की ओर’ पुस्तक बार-बार पढ़ें। उससे भी मन विवेक-वैराग्य से संपन्न होने लगेगा।

रोगी से मिलने जाओ तब भी संसार की बाते नहीं करनी चाहिए। रोगी से मिलते समय उसको ढाढ़स बँधाओ। उसको कहोः ‘रोग तुम्हारे शरीर को है….. शरीर तो कभी रोगी, कभी स्वस्थ होता है लेकिन तुम तो भगवान के सपूत, अमर आत्मा हो। एक दिन यह शऱीर नहीं रहेगा, फिर भी आप रहेंगे, आप तो ऐसे हैं….’ इस प्रकार रोगी में भगवदभाव की बातें भरें तो आपका रोगी से मिलना भी भगवान की भक्ति हो जायेगा। रोगी के अन्दर बैठा हुआ परमात्मा आप पर संतुष्ट होगा और आपके दिल में बैठा हुआ वह रब भी आप पर संतुष्ट होगा।

अगर आप मंदिर-गुरुद्वारे में जाते हो तो वहाँ पर भी सांसारिक चर्चा न करो, इधर-उधर की बातें छोड़ दो। वहाँ तो ऐसे रहो कि एक दूसरे को पहचानते ही नहीं और पहचानते भी हो तो रब के नाते। अन्यथा भगवान और गुरु का नाता तो ठंडा हो जाता है और पहचान बढ़ जाती है’ आप मेरे घर आइये… आप यह करिये…. आप वह करिये….., जरा ध्यान रखना उसका लड़का ठीक है, अपने ही हैं….’ मंदिर-गुरुद्वारे में जाकर भगवदभाव जगाना होता है, संसार को भूलना होता है। अगर वहाँ जाकर भी संसार की बातें करोगे तो मुक्ति कहाँ पाओगे ? दुःखों से विनिर्मुक्त कहाँ होगे ? इसलिए मुक्ति के रास्ते को गंदा मत करो, वरन् गंदे रास्तों को भी भगवदभक्ति से सँवार लो।

अगर गुरु के निवास पर जाते हो, गुरु के निकट जाते हो, तब भी सांसारिक बातों को महत्त्व न दो। गुरु को निर्दोष निगाहों से,  प्रेमभरी निगाहों से, भगवदभाव की निगाहों से देखो और उन्हें संसार की छोटी-छोटी समस्या सुनाकर उनका दिव्य खजाना पाने से वंचित न रहो। उनके पास से तो वह चीज मिलती है जो करोड़ों जन्मों में करोड़ों माता-पिता से भी नहीं मिली। ऐसे माता-पिता-गुरु मिले हैं तो फिर संसार के छोटे-मोटे खिलौनों की बात नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार चार जगहों पर सांसारिक चर्चा से बचकर भगवत्चर्चा, भगवत्सुमिरन करें, मंदिर-गुरुद्वारे एवं संतद्वार पर जप-ध्यान करें तो आपके लिए मुक्ति का पथ प्रशस्त हो जायेगा…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2001, पृष्ठ संख्या 15, अंक 106

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