साधक जीवन की दो समस्याएँ

साधक जीवन की दो समस्याएँ


संत श्री आसाराम बापू के सत्संग-प्रवचन से

साधक के जीवन में दो समस्याएँ आती हैं- एक तरफ संसार का आकर्षण और संसार की जवाबदारियाँ एवं दूसरी तरफ भगवत्प्राप्ति की लालसा।

जिस साधक के जीवन में भगवत्प्राप्ति की लालसा होती  वह संसारियों से ज्यादा दुःखी होता है क्योंकि संसारियों को तो केवल संसार की लालसा होती है, उनका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति नहीं होता जबकि साधक का लक्ष्य होता है भगवत्प्राप्ति और साथ में उसे निभानी पड़ती है संसार  की जवाबदारियाँ।

संसारी आकांक्षाओं से थोड़े ऊपर उठे हुए साधक के जीवन में विक्षेप आता है। एक तरफ वह ईश्वर की महत्ता सुनता है, जानता है और उसका विवेक जागता है, दूसरी तरफ संसार की पुरानी आदतें उसे नीचे घसीटती हैं। वह जप करता है फिर भी उसे राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि परेशान करते हैं और हर साधक को इस संघर्ष से गुजरना पड़ता है। नहीं चाहते हुए भी उससे कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ,ऐसा चिंतन हो जाता है जो उसे दुःख देता है क्योंकि उसका विवेक जग चुका है, उसके जीवन में कुछ प्रकाश हुआ है। आरम्भिक साधक की दशा कुछ ऐसी होती है किः

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति। जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति।।

‘धर्म को जानता हूँ पर उसमें प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को जानता हूँ परन्तु उससे निवृत्ति नहीं होती।’ हर साधक इस दशा में आता ही है।

सुकरात ब़ड़े बेचैन रहते थे। सुकरात से किसी मित्र ने कहाः “तुम इत़ने बेचैन रहते हो उसकी अपेक्षा तो यह सुअर पत्नी, पुत्रादिसहित नाले में प़ड़ा है बड़े आनन्द से जी रहा है, उसको कोई चिंता नहीं है। चिंतित सुकरात होने के बजाये निश्चिंत सुअर होना कहीं अधिक अच्छा है।”

सुकरात ने कहाः ” मैं बेवकूफी से नाले में सुखी रहने की अपेक्षा, निश्चिंत सुअर होने की अपेक्षा छटपटाने वाले सुकरात के जीवन को अधिक पसंद करूँगा क्योंकि यह छटपटाहट मुझे परमात्मद्वार तक पहुँचा देगी।”

जो हतभागी होते हैं,मंदभागी होते है वो संसार को सार समझकर उससे चिपके रहते हैं और उसमें से कुछ मिलता है तो अपने जीवन को धन्य-धन्य मान लेते हैं,लेकिन साधक उसमें चिपकता नहीं है और यदि उसे कुछ मिलता है तब भी वह सोचता है कि आखिर क्या ?  उसे संसार में रस नहीं आता है।

जो भजन तो करता है, जप भी करता है लेकिन भगवदरस में पहुँचा नहीं है वह बेचारा संसार की जवाबदारियाँ, प्रलोभन या सुख-दुःख आने पर हिल जाता है, क्योंकि जप के साथ उसने ध्यान का माहात्म्य नहीं  जाना। कोई जप तो करता है लेकिन ध्यान द्वारा अपने भीतर का रस नहीं पाया तो उसे संसार का रस आकर्षित कर देगा। जिसने भीतर के निर्दुःखपने का स्वाद नहीं लिया, उसे संसार के दुःख हिला देते हैं। यदि हम सुख दुःख में हिल जाते हैं तो समझना चाहिए कि ध्यान-ज्ञान के प्रसाद में अभी पूर्ण स्थिति नहीं हुई। अभी तक वह प्रसाद नहीं मिला है, जिससे सब दुःखों की निवृत्ति होती है।

श्रीमद् भगवद् गीता में आता हैः

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।

‘प्रसाद से अर्थात् अंतःकरण की प्रसन्नता से सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।’ (गीताः 2.35)

जिन प्यारों पर सदगुरुओं की अहैतुकी कृपा होती है, वे ही बुलाये जाते हैं अर्थात् जिनके पुण्य परिपक्व होते हैं और जिन पर परमात्मा कि विशेष कृपा होती है, वे ही ऐसे प्रसाद की महफिल में बुलाये जाते हैं। औरों का इस महफिल में प्रवेश नहीं होता।

यदि भगवान की विशेष करूणा-कृपा होती है तो साधन-भजन की जगह नजदीक लगती है, भगवान नजदीक लगते हैं और यदि हम भगवान की विशेष कृपा के पात्र नहीं होते तो भोग नजदीक लगते हैं, भगवान दूर लगते हैं।

ईश्वरीय कृपा तो सब पर है लेकिन जो ईश्वर के लिए छटपटाता है उस पर उनकी विशेष कृपा होती है। जो ईश्वर के लिए काम करता है उस पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है। जो भोग के लिए, वाहवाही के लिए, संसार के लिए काम करता है उस पर संसार की कृपा होती है और संसार की कृपा यही है कि वह दुःख बढ़ाता है। जितना संसार से प्रेम बढ़ेगा उतना दुःख बढ़ेगा और जितना भगवान से प्रेम बढ़ेगा उतना अंतरंगसुख, सच्चा सुख बढ़ेगा।

साधक के जीवन में एक तरफ उसे संसार खींचता है तो दूसरी तरफ परमात्मारस खींचता है। साधक बेचारा सीमा पर है। जब वह संसारियों का संग करता है और संसार की तरफ आता है तो अशांत होता है और भगवान की तरफ जाता है तो आनंद का अनुभव करता है।

वस्तुतः देखा जाये तो संसार में जो सुख दिखता है वह सुख है ही नहीं। जैसे मूर्ख कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और उसके मसूढ़ों से खून निकलने लगता है तो उसी के स्वाद में वह सुख मानता है। अगर उसको समझ में आ जाये कि इसमें कोई सार नहीं है तो वह हड्डी क्यों चबायेगा ? ऐसे ही अगर मनुष्य को समझ में आ जाये कि संसार में जो सुख दिखता है वह वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति का सुख नहीं अपितु अपने भीतर का ही सुख है तो वह उनमें क्यों फँसेगा ?

एक बार भी यदि भीतर का सुख प्रकट हो जाये तो संसार के सुख कोई प्रभाव नहीं डाल सकते। हम लोग जप,तप, देवदर्शन आदि तो करते हैं लेकिन देवदर्शन जिससे किया जाता है उसमें गोता नहीं मारते, इसीलिए संसार का प्रभाव हमारे चित्त से दूर नहीं होता और संसार का प्रभाव यह है कि वह हर्ष और शोक देता है।

आनंद तो संसार में है ही नहीं। सुख तो संसार में है ही नहीं। हर्ष को ही हमने सुख मान लिया है। हमें सच्चे सुख का पता ही नहीं है इसीलिए हम लोग हर्ष को सुख समझ बैठे हैं। जितना हर्ष होता है उतना ही शोक भी बढ़ता है।

आज हम हर्ष के साथ बह जाते हैं, इसीलिए जीवन में शोक भी उतनी ही तेजी से आता है। पहले हर्ष को मूल्य नहीं दिया जाता था, भीतर की विश्रांति को मूल्य दिया जाता था। हमारे परदादे जितने प्रसन्न रहते थे, जितनी ईमानदारी से जीते थे और जितने तंदरुस्त रहते थे, उतनी हमारे दादाओं के पास योग्यताएँ नहीं थीं। हमारे दादाओं के पास जितनी योग्यताएँ थीं उतनी हमारे पिताओं के पास नहीं रहीं। हमारे पिताओं के पास जितनी योग्यताएँ हैं उतनी हमारे पास नहीं हैं और हमारे पास जितनी सहनशक्ति और भीतर की शांति है उतनी अपने बच्चों के पास हम नहीं देख पाते क्योंकि हमारे बच्चों के पास हर्ष के जितने अधिक साधन आये उतने वे अशांत हो गये, उतने वे शोकातुर हो गये।

संसार काजो सुख है, वह वास्तव में सुख नहीं है, हर्ष है। सुविधाओं को हमने सुख मान लिया है। सुविधाएँ हर्ष दे सकती हैं, सुख नहीं दे सकती। सुविधाओ का औषधवत् उपयोग किया जाय तो ठीक है। सुख तो भीतर का खजाना है। इसी को भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः ‘प्रसादे सर्वदुःखानाम्…।’ उस प्रसाद से सब दुःख दूर होते हैं।

संसार में सब दुःख दूर करने की ताकत नहीं है। पूरा संसार मिलकर भी एक आदमी को पूरा सुख नहीं दे सकता और सारा संसार मिलकर भी एक आदमी के सारे दुःख दूर नहीं कर सकता। चाहे फिर वह किसी भी पद पर पहुँच जाये लेकिन प्रकृति वहाँ उसे ठहरने नहीं देगी।

सारी दुनिया में आपने पहलवानों में पहला स्थान पा लिया लेकिन फिर क्या ? आखिर तो मृत्यु झपेट लेगी। पूरे विश्व में आप अच्छे विद्वान घोषित हो गये लेकिन मृत्यु का झटका आपकी सारी विद्वता को झपेट लेगा। सारे विश्व में आप धनवानों में पहले नंबर पर हो गये लेकिन आखिर क्या ? संत नरसिंह मेहता ने कहा हैः

ज्यां लागी आत्मतत्व चीन्यो नहीं, त्यां लगी साधना सर्व झूठी।

अर्थात्

जब तक आत्मा को नहीं पहचाना, तब तक झूठी हैं सब साधना।

दुनिया के पदों को पाने की सारी उपलब्धियों,योग्यताओं को मृत्यु छीन लेती है लेकिन आत्मज्ञान पाने की जो साधना है वह तो बेड़ा पार कर देती है। आत्मज्ञान आपको तो निहाल कर देता है लेकिन आपकी मीठी निगाहें जिन पर पड़ती हैं उनको भी खुशहाल कर देता है। आत्मज्ञान की ऐसी महिमा है ! अतः ऊँचा लक्ष्य बनायें। हर्ष शोक में बह न जायें। व्यर्थ के शोक व चिंता में समय न गँवायें….. हरि ૐ तत्सत् और सब गपशप….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 107

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