Monthly Archives: November 2001

सब दुःखों का नाशकः आत्मविचार


संत श्री आसाराम जी के सत्संग प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः

“हे राम जी ! एक आत्मदृष्टि ही सबसे श्रेष्ठ है, जिसे पाने से सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं और परमानंद प्राप्त होता है। यह आत्मचिंतन सब दुःखों का नाशक है। यह चिरकाल से तीनों तापों से तपे और जन्म मरण से थके हुए जीवों के श्रम को दूर करता है और तपन मिटाता है। अनर्थकारिणी, समस्त दुःखों की खान अविद्या को आत्मचिंतन ही नष्ट करता है।”

जप, स्मरण और ध्यान – ये सब अपनी-अपनी जगह पर ठीक हैं लेकिन आत्मविद्या का विचार अपनी जगह पर है। जप में जो मंत्र होगा उसकी आवृत्ति होते-होते रजो-तमोगुण क्षीण होगा, सत्वगुण की अभिवृद्धि होगी। स्मरण में बार-बार वृत्ति इष्ट की ओर जायेगी तो चित्तवृष्टि इष्टाकार बनेगी। एक ही जगह पर चित्त की वृत्ति स्थित करने का अभ्यास करना अथवा निःसंकल्प होने का अभ्यास करना ध्यान है।

यज्ञ, व्रत, तप, तीर्थ आदि बहिरंग साधन हैं। जप, स्मरण, ध्यान – ये अंतरंग साधन हैं, अन्तरात्मा के निकटवाले हैं। फिर भी आत्मविचार के आगे ये साधन भी बहिरंग हैं। आत्मविचार और ज्यादा अंतरंग हैं। अविद्या का नाश आत्मविचार से ही होता है।

सारे दुःखों की खान, सारे कष्टों का मूल अविद्या ही है। अविद्या कैसे ? जो पहले विद्यमान नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की तरफ जा रहा है। ये सारा जगत, जगत के पदार्थ और जगत की परिस्थितियाँ अविद्या के कारण ही सत्य भासती हैं। अगर अविद्या हट जाय तो सब दुःख सदा के लिए नष्ट हो जायें।

अविद्या कैसे हटेगी ? अविद्या हटेगी विद्या से, अंधेरा हटेगा उजाले से। आत्मविद्या का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करें तो सब दुःखों की मूल अविद्या हट जाती है और जीवात्मा को अपने परमेश्वर-स्वभाव का ज्ञान हो जाता है।

ऐसा नहीं कि खूब ध्यान भजन करेंगे, जप-तप करेंगे तो भगवान आ जायेंगे और अविद्या मिट जायेगी ! हाँ, इनसे भगवान तो आ सकते हैं लेकिन अविद्या नहीं मिटती है। भगवान जिससे भगवान हैं और भगवान को बुलाने वाल भक्त जिससे भक्त है उस असली स्वरूप को पहचानना ही विद्या है।

भगवान के असली स्वरूप को न पहचान कर भक्त भगवान से कुछ माँगता है और भगवान मर्यादा के अनुकूल, नीति के अनुकूल जो कुछ दे सकते हैं, वह भक्त को दे देते हैं। इससे माँगने वाला तो मँगता (भिखारी) बना रहता है और देने वाला दाता बन जाता है। माँगने वाला डरता रहता है कि देने वाले कभी रूठ न जाय ! इस प्रकार अविद्या तो बनी ही रहती है और जब तक अविद्या रहेगी तब तक भय भी बना रहेगा।

जब आत्मज्ञान सुनेंगे, उसका मनन करके उसमें शांत होते जायेंगे, मौन होते जायेंगे तो आत्मविषयिणी बुद्धि पैदा होगी। आत्मविषयिणी मति पैदा होने से अविद्या हट जायेगी। अविद्या हटते ही जीव को अपने शिवस्वरूप का बोध हो जायेगा और वह उसी में जग जायेगा।

राम जी बोलेः “हे मुनीश्वर ! आपका उपदेश दृश्यरूपी तृणों का नाशकर्ता दावानल के समान है। हे मुनीश्वर ! आपके उपदेश से मैंने पाँच विकल्प विचारे हैं। प्रथम यह कि जगत मिथ्या है और इसका स्वरूप अनिर्वचनीय है। दूसरा यह कि जगत आत्मा में आभासरूप है। तीसरा यह कि इसका स्वभाव परिणामी है। चौथा यह कि जगत अज्ञान से ही उपजा है और पाँचवा यह कि जगत अनादि और अज्ञानपर्यंत है। ज्ञान होते ही चित्त से उसका प्रभाव बाधित हो जाता है।

जगत अनिर्वचनीय है का मतलब है, इसको सत्य नहीं कह सकते क्योंकि सत्य हो तो सदा हो। इसको असत्य भी नहीं कह सकते क्योंकि असत्य हो तो दिखे नहीं। इसलिए जगत मिथ्या और अनिर्वचनीय कहा गया है।

जगत आत्मा में आभासरूप है अर्थात् जैसे जलाशय में चन्द्रमा आभासरूप है, सूरज आभासरूप है, वैसे ही परब्रह्म परमात्मा में यह जगत आभासरूप है।

जगत परिणामी है अर्थात् बदलने वाला है। कितना भी बढ़िया भोजन बनाकर रखो, दो-चार घंटे बाद देखो तो बासी हो जायेगा, सड़ना-गलना, परिणाम शुरु हो जायेगा। प्रत्येक  वस्तु में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता ही रहता है इसीलिए इसे परिणामी कहा गया है।

जगत अविद्या से भासता है और अनादि है। जगत लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़, अरब  अथवा दस अरब वर्ष से चल रहा है, ऐसी बात नहीं है और लाख, दस लाख वर्ष बाद बंद हो जायेगा, ऐसी बात भी नहीं है। यह अनादि है और अज्ञानपर्यंत है। जब परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है तब इसकी सत्यता शांत हो जाती है। इसलिए अज्ञान को मिटाकर आत्मज्ञान पाना ही सार है।

जगत मिथ्या है, आभासरूप है, परिणामी है, अविद्या का कार्य है और अनादि, अज्ञानपर्यंत है लेकिन भगवान सत्य हैं, शाश्वत हैं, एकरस हैं, ज्ञानस्वरूप हैं और सारे गुण उन्हीं में से स्फुरते हैं। जैसे, सूर्य के अपनी जगह पर होते हुए भी धरती पर पेड़-पौधे पुष्ट हो जाते हैं, प्राणियों के शरीरों को जीवनीशक्ति मिलती है, ऐसे ही परमात्मा की सत्ता अपने-आपमें शांत हैं, उससे अंतःकरण में सारे सदगुण स्फुरित होते हैं। वासना होती है तो द्वेष स्फुरित होता है और शुभ भावना होती है तो सदगुण स्फुरित होते हैं, इन शुभाशुभ का मूल उदगम-स्थान आप परमात्मा, साक्षी चैतन्य है, उसको नहीं जानते और अविद्यमान जगत को सच्चा मानते हैं इसीलिए दुःखी हो रहे हैं। यदि आत्मविचार द्वारा एक बार भी इस जगत के मूल को, परमात्मा को जान लें तो जगत की सत्यता नष्ट हो जाती है और जगत की सत्यता नष्ट होते ही सब दुःख भी सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 8-9, अंक 107

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मिठाई की दुकान अर्थात् यमदूत का घर – स्वामी विवेकानन्द


आयुर्वेद-शास्त्र में आता है कि केवल दूध ही पचने में भारी है तो फिर दूध को जलाकर जो मावा बनाया जाता है वह पचने में कितना भारी होगा ! आचार्य सुश्रुत ने कहा हैः भैंस का दूध पचने में अति भारी, अतिशय अभिष्यंदी होने से रसवाही स्रोतों को कफ से अवरूद्ध करने वाला एवं जठराग्नि का नाश करने वाला है। यदि भैंस का दूध इतना नुकसान कर सकता है तो उसका मावा जठराग्नि का कितना भयंकर नाश करता होगा ? मावे के लिए शास्त्र में किलाटक शब्द का उपयोग किया गया है, जो भारी होने के कारण भूख मिटा देता हैः

किरति विक्षिपत क्षुधं गुरुत्वात् कृ विक्षेपे किरे लश्रति किलाटः इति हेमः ततः स्वार्थेकन्।

नई बयायी हुई गाय-भैंस के शुरुआत के दूध को पीयूष भी कहते हैं। यही कच्चा दूध बिगड़कर गाढ़ा हो जाता है, जिसे क्षीरशाक कहते हैं। दूध को दही अथवा छाछ से फाड़कर स्वच्छ वस्त्र में बाँधकर उसका पानी निकाल लिया जाता है उसे तक्रपिंड (छेना) कहते हैं।

भावप्रकाश निघंटु में लिखा गया है कि  ये सब चीजें पचने में अत्यंत भारी एवं कफकारक होने से अत्यंत तीव्र जठराग्निवालों को ही पुष्टि देती है, अन्य के लिए तो रोगकारक ही साबित होती हैं।

श्रीखंड और पनीर भी पचने में अति भारी, कब्जियत करने वाला एवं अभिष्यंदी है। यह चरबी, कफ, पित्त एवं सूजन उत्पन्न करने वाला है और यदि नहीं पचता है तो चक्कर, ज्वर, रक्तपित्त (रक्त का बहना), रक्तवात, त्वचारोग, पांडु (रक्त न बनना) तथा रक्त का कैंसर आदि रोगों का जन्म देता है।

उसमें भी मावा, पीयूष, छेना (तक्रपिंड), क्षीरशाक, दही वगैरह की मिठाई बनाने में शक्कर का उपयोग किया जाता है, तब तो वे और भी ज्यादा कफ करने वाले और पचने में भारी हो जाते हैं एवं अभिष्यंदी स्रोतो को अत्यधिक अवरुद्ध करने वाले बन जाते हैं। पाचन में अत्यंत भारी ऐसी मिठाईयाँ खाने से कब्जियात एवं मंदाग्नि होती है जो सब रोगों का मूल है। इसका योग्य उपचार न किया जाय तो ज्वर आता है एवं ज्वर को दबाया जाय अथवा गल्त चिकित्सा हो जाय तो रक्तपित्त, रक्तवात, त्वचा के रोग, पांडु, रक्त का कैंसर, गाँठ, चक्कर आना, उच्च रक्तचाप, किडनी के रोग, लकवा,  कोलेस्ट्रॉल बढ़ने से हृदयरोग डायबिटीज आदि रोग होते हैं। मंदाग्नि होने से सातवीं धातु वीर्य कैसे बन सकता है ? अतः, अंत में नपुंसकता आ जाती है।

आज का विज्ञान भी कहता है कि बौद्धिक कार्य करने वाले व्यक्ति के लिए दिन के दौरान भोजन में केवल 40 से 50 ग्राम वसा (चर्बी) पर्याप्त है और कठिन श्रम करने वालों के लिए 90 ग्राम। इतनी वसा तो सामान्य भोजन में लिये जाने वाले घी, तेल, मक्खन, गेहूँ,चावल, दूध आदि में से ही मिल जाती है। इसके अलावा मिठाई खाने से कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है। धमनियों की जकड़न बढ़ती है, नाड़ियाँ मोटी होती जाती हैं। दूसरी और रक्त में चर्बी की मात्रा बढ़ती है और वह इन नाड़ियों में जाती है। जब तक नाड़ियों में कोमलता होती है तब तक वह फैलकर इस चरबी को जाने के लिए रास्ता देती है। परन्तु जब वह कड़क हो जाती है, उसकी फैलने की सीमा पूरी हो जाती है तब वह चर्बी वहीं रूक जाती है और हृदयरोग को जन्म देती है।

मिठाई में अनेक प्रकार की दूसरी ऐसी चीजें भी मिलायी जाती हैं, जो घृणा उत्पन्न करें। शक्कर अथवा बूरे में कास्टिक सोडा अथवा चॉक का चूरा भी मिलाया जाता है जिसके सेवन से आँतों में छाले पड़ जाते हैं। प्रत्येक मिठाई में प्रायः कृत्रिम (एनेलिन) रंग मिलाये जाते हैं जिसके कारण कैंसर जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।

जलेबी में कृत्रिम पीला रंग (मेटालीन यलो) मिलाया जाता है, जो हानिकारक है। लोग उसमें टॉफी, खराब मैदा अथवा घटिया किस्म का गुड़ भी मिलाते हैं। उसे आयस्टोन एवं पेराफी से ढाँका जाता है, वह भी हानिकारक है। उसी प्रकार मिठाईयों को मोहक दिखाने वाले चाँदी के वर्क एल्यूमीनियम फॉइल में से बने होते हैं एवं उसमें जो केसर डाली जाती है, वह तो केसर के बदले भुट्टे के रेशे, मुर्गी का खून भी हो सकता है।

आधुनिक विदेशी मिठाईयों में पीपरमेंट, गोले, चॉकलेट, बिस्किट लालीपॉप, केक, टॉफी, जेम्स, जेलीज, ब्रेड वगैरह में घटिया किस्म का मैदा, सफेद खड़ी, प्लॉस्टर ऑफ पेरिस, बाजरी अथवा अन्य अनाजका बिगड़ा हुआ आटा मिलाया जाता है। अच्छे केक में भी अंडे का पाउडर मिलाकर बनावटी मक्खन, घटिया किस्म के शक्कर एवं जहरीले सुगंधित पदार्थ मिलाये जाते हैं। नानखटाई में इमली के बीज के आटे का उपयोग होता है। कॉन्फेक्शनरी में फ्रेंच चॉक, ग्लुकोज का बिगड़ा हुआ सीरप एवं सामान्य रंग अथवा एसेन्स मिलाये जाते हैं। बिस्किट बनाने के उपयोग में आने वाले आकर्षक जहरी रंग हानिकारक होते हैं।

इस प्रकार, ऐसी मिठाईयाँ वस्तुतः मिठाई न होते हुए बल, बुद्धि, स्वास्थ्यनाशक, रोगकारक एवं तमस ब़ढ़ाने वाली साबित होती हैं।

मिठाईयों का शौक कुप्रवृत्तियों का कारण एवं परिणाम है। डॉ. ब्लोच लिखते हैं कि मिठाई का शौक जल्दी कुप्रवृत्तयों की ओर प्रेरित करता है। जो बालक मिठाई के ज्यादा शौकीन होते हैं उनके पतन की ज्यादा सम्भावना रहती है और वे दूसरे बालकों की अपेक्षा हस्तमैथुन जैसे कुकर्मों की ओर जल्दी खिंच जाते हैं।

स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा हैः

मिठाई (कंदोई) की दुकान साक्षात् यमदूत का घर है।

जैसे, खमीर लाकर बनाये गये इडली-डोसे वगैरह खाने में तो सुंदर लगते हैं परन्तु स्वास्थ्य के लिए खूब हानिकारक होते हैं, इसी प्रकार मावे एवं दूध को फाड़कर बने पनीर से बनायी गयी मिठाईयाँ लगती तो हैं मिठाईयाँ पर होती है जहर के समान। मिठाई खाने से लीवर और आँतों की भयंकर असाध्य बीमारियाँ होती हैं। अतः ऐसी मिठाईयों से आप भी बचें और ओरों को भी बचायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 29-31, अंक 107

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गुफा में सांप


सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) के तलहार शहर की बात हैः

मैं (स्वामी केवलराम) और संत कृष्णदास दोनों साथ में रहते थे और गुरुद्वार पर अध्ययन करते थे। एक बार हम दोनों टंडेमहमदखान से सदगुरु स्वामी श्री केशवानंद जी की आज्ञा लेकर श्रीलीलाशाह जी के दर्शन के लिए तलहार गये।

हम सब गुरुभाई एक ही सदगुरु के श्रीचरणों में पढ़ते थे परंतु साधना की अवस्था में तो हम सब केवल विद्यार्थी ही थे। जबकि श्रीलीलाशाह जी वेदान्त का अभ्यास पूर्ण कर चुके थे। श्री लीलाशाह जी योगाभ्यास सीखते-सीखते दूसरे विद्यार्थियों एवं भक्तों को योगासन एवं योगक्रियाएँ सिखाते थे।

स्वामी श्री लीलाशाहजी तलहार शहर से दूर एक बगीचे में बनी कुटिया में रहते थे। तलहार पहुँचते-पहुँचते हमें रात हो गयी। हम उनके निवास स्थान पर पहुँचे तो द्वार खुला हुआ था। मानों, उन्हें पहले से ही हमारे आने का पता लग गया था !

हम कुटिया में गये तो भीतर कोई भी न था। तभी ‘हरि ૐ… हरि ૐ…. प्रभु ! विराजो।’ की ध्वनि सुनायी दी। लालटेन जल रही थी। हम दोनों बैठ गये। थोड़ी ही देर में श्री लीलाशाहजी महाराज गुफा से बाहर आये और हमसे बड़े प्रेम से मिले। फिर पूछाः

“आप लोग यहाँ आऩे के लिए सुबह की ट्रेन से निकले होंगे, अतः भूखे होंगे?”

इतना कहकर थोड़ी ही देर में भोजन की दो थालियाँ लाकर हमारे सामने रखते हुए बोलेः “पहले भोजन कर लो, फिर शांति से बात करेंगे।”

हमें भी जमकर भूख लगी थी लेकिन आश्चर्य तो इस बात का हुआ कि बिना पूर्व सूचना के इतनी देर रात में इस जंगल में यह भोजन कहाँ से आया? हम तो विस्मय में पड़ गये।

स्वामी जी कहाः “प्यारे ! जल्दी भोजन करके थालियाँ बाहर टंकी पर रख देना, मैं ले जाऊँगा।”

“मैं ले जाऊँगा” यह सुनकर हमें और आश्चर्य हुआ। मैं कृष्णदास के सामने देखूँ और

कृष्णदास मेरे सामने। हमें आश्चर्यचकित देखकर श्रीलीलाशाहजी हँसते हँसते बोलेः

“आप लोगों को क्या हो गया है? भोजन क्यों नहीं कर रहे हो?”

हमने कहाः “स्वामी जी ! आप साक्षात श्रीकृष्ण जैसी लीला कर रहे हैं। आप भी हमारे साथ भोजन कीजिये।”

किंतु स्वामी जी ने भोजन लेने से मना कर दिया क्योंकि वे उन दिनों केवल फलाहार ही करते थे, भोजन नहीं लेते थे एवं योग साधना में रत रहते थे।

हमने भोजन किया एवं थाली साफ करके बाहर रख आये। उसके पश्चात स्वामी जी ने सब समाचार पूछे। थोड़ी देर सत्संग की बातें हुई। फिर स्वामी जी ने कहाः “अब आपको आराम करना होगा?”

मैंने कहाः ”हाँ, जैसी आपकी आज्ञा लेकिन आराम करने से पूर्व मैं आपकी गुफा के दर्शन

करना चाहता हूँ।”

स्वामी जी ने अनुमति देते हुए कहाः ” हाँ, भले जाओ लेकिन सँभलकर उतरना, सीढ़ियाँ थोड़ी ऊँची हैं। डरना मत।”

मैने कहाः ”स्वामी जी ! इसमें डरने की क्या बात है ?”

ऐसा कहकर मैं गुफा की ओर आगे बढ़ा। अंदर दीपक जल रहा था। मुश्किल से मैं दो ही सीढ़ी उतरा होऊँगा, इतने में अंदर का परिदृश्य देखकर मैं डर के पीछे हट गया…. एक भयंकर विषधर फन निकालकर बैठा था ! मैं जल्दी से ऊपर आकर स्वामीजी के पास बैठ गया।

स्वामी जी ने पूछाः ”जल्दी वापस क्यों आ गये? गुफा में अंदर गये  कि नहीं ?”

हाथ जोड़ते हुए मैंने कहाः ”स्वामी जी ! आपकी लीला अपरम्पार है। आप असीम शक्ति के भंडार हैं। साँप अंदर बैठा हो तो मैं कैसे अंदर जा सकता हूँ ?”

स्वामी जी ने हँसकर कहाः ”भाई ! अंदर साँप नहीं है, आपको भ्रांति हो गई है। चलो मैं आपके साथ आता हूँ।”

फिर हम तीनों गये। संत कृष्णदास से स्वामी जी ने कहाः ” अंदर जाकर देखोतो साँप दिखता है क्या ?”

संत कृष्णदास ने सीढ़ियों से उतरकर अंदर देखा और कहाः ”स्वामीजी ! साँप तो नहीं है।”

यह कहकर वे बाहर निकल आये। फिर स्वामी जी ने मुझसे कहाः ”अब आप जाकर देखो।”

मैं नीचे उतरा, ध्यान से देखा तो साँप फन निकालकर बैठा है ! मैं फिर से पीछे हट गया। फिर स्वामी जी हँसते-हँसते मुझे अपने साथ  ले गये, उस वक्त साँप न दिखा !

पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज अनंत-अनंत यौगिक शक्तियों के धनी थे। अगर कोई अधिकारी होता और उसमें हित समाया होता तो कभी-कभार वे अपने उस अथाह योग-सामर्थ्य के एकाध अंश की झलक दिखा देते थे। यह भी उनकी मौज थी। अन्यथा संतों को किसी भी लीला में न तो आसक्ति होती है न ही लोकैषणा की भावना !

स्वामी केवलराम, अजमेर

(पूज्य श्री लीलाशाह जी बापू के गुरुभाई)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 25-26, अंक 107

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