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लाल किलाः समृद्धशाली हिन्दू समाज का प्रतीक…..


भारत के प्राचीन समृद्धशाली समाज का ऐसा जीवंत उदाहरण जिसे देखने के लिए प्रतिदिन लोगों की भीड़ लगी रहती है, जहाँ से स्वतंत्रता एवं गणतंत्र दिवस जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्वों पर भारत के प्रधानमंत्री देश की जनता को संबोधित करते हैं, भारत की राजधानी में जिसने आज भी अपनी विशेष पहचान बना रखी है, वह ऐतिहासिक स्थल है ‘लाल-किला।’

लोग झुलसाती गर्मियों में भी अपने सूखों कंठों की चिन्ता किये बिना, अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर इस भव्य किले को देखने के लिए आते हैं परन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बेवकूफ ही बनाया जाता है। भारत की आजादी के 45 वर्ष बाद भी अंग्रेजों के भारत विरोधी सिद्धान्त एवं तथ्यविहीन व्यक्तिगत मान्यताओं को भारतीय इतिहास के नाम पर पढ़ाया जाता है।

‘लाल-किला’ के बारे में जानने की उत्सुकता रखने  वालों को यह झूठा किस्सा सुना दिया जाता है कि भव्य किले का निर्माण भारत के पाँचवें मुगल शासक शाहजहाँ ने करवाया।

सरकारी इतिहास के अनुसार शाहजहाँ सन् 1628 में राजगद्दी पर बैठा। उस समय तक मुगलों ने आगरा को अपनी राजधानी बना रखा था, परन्तु शाहजहाँ ने एक नया शहर ‘शाहजहाँबाद’ (पुरानी दिल्ली) बसाया तथा वहाँ अपनी राजधानी स्थानान्तरित कर दी। उस भव्य शहर के किले (लाल-किला) में उसने 1648 में यमुना नदी की ओर स्थित द्वार से प्रवेश किया और उसने दिल्ली में अपना पहला दरबार लालकिले के दीवाने आम में लगाया।

सर्वप्रथम तो हम शाहजहाँ-प्रेमियों से यह पूछना चाहते हैं कि जब ‘ताजमहल’ को हथियाने की बात चलती है तब आप शाहजहाँ-मुमताज की थोथी प्रेमकथा गढ़ देते हो। वहाँ आप कहते हो कि मुमताज के मरने के बाद शाहजहाँ उसकी कब्र के पास बैठकर आँसू बहाया करता था। कभी वह ताजमहल को आइने में देखते-देखते रोता रहता था।

इतिहासकारों के अनुसार मुमताज की मृत्यु लगभग सन् 1629 (संदेहास्पद) में हुई तथा ताजमहल उसके 19 साल बाद बनकर तैयार हुआ। अर्थात् सन 1648 में तो शाहजहाँ पागलों की तरह कभी मुमताज की कब्र पर तो कभी ताजमहल को आइने में देखकर रोता रहता था, उसने इतने बड़े नगर को बसाने की योजना कब और कैसे बना ली ?

आगरा जैसी प्राचीन नगरी, जहाँ उसने अपनी जान से भी प्यारी बेगम के लिए ‘ताजमहल’ जैसा भव्य मकबरा बनाया ही, ऐसे स्थान में अपनी प्रियतमा की कब्र को हमेशा के लिए सूनी छोड़कर वह दिल्ली क्यों आ धमका ?

सबसे बड़ी बात यह है कि शाहजहाँ ने न तो ‘शाहजहाँबाद’ नामक कोई नगर बसाया था और न ‘ताजमहल’ एवं ‘लाल-किला’ बनवाया। फिर भी बिना किसी खोजबीन एवं पुरातत्वीय जाँचपड़ताल के सिरफिरे अंग्रेजों के झूठे पुलिंदों को ‘पत्थर पर लकीर’ मानकर उस पर सरकारी मुहर लग जाती है, यह कितनी शर्मनाक बात है।

‘लाल-किला’ की पुरातत्वीय जाँच में अभी तक इस बात का एक भी ऐसा ठोस प्रमाण नहीं है जो यह सिद्ध कर दे कि इसे शाहजहाँ ने बनवाया था। हाँ, इस बात के ढेरों प्रमाण मिलते हैं कि यह किसी समृद्धशाली हिन्दू सम्राट द्वारा निर्मित ऐसा भव्य किला है जिस पर जबरन शाहजहाँ जैसे दुष्ट एवं गँवार शासक का नाम थोप दिया गया है।

इस विषय में हम किले के रंग को ही पहला प्रमाण मानते हैं। किले का भगवा रंग हिन्दुओं के लिए आदरणीय है। भगवा हिन्दू धर्म की पवित्र पहचान है। मुस्लिम धर्म में हरे रंग का महत्व है। एक पुरानी कहावत भी है कि जब मुगल भारत पर अधिपत्य जमा रहे थे, तब वे भगवा रंग को देखते ही हरे (जहरीले) हो जाया करते थे। (शाहजहाँ स्वयं भी एक धर्मान्ध व्यक्ति था।) उसके जीवन में धार्मिक सहिष्णुता जैसी कोई चीज नहीं थी। ऐसा धर्मान्ध व्यक्ति अपने किले पर अपने शत्रुओं  या शाहजहाँ की भाषा में कहें तो काफिरों का धार्मिक रंग क्यों लगवाता ? वह तो उसे हरा रखना ही बेहतर समझता।

किले के लगभग 80 बुर्ज अष्टकोणात्मक रचनाएँ हैं। हिन्दू धर्म में अष्टकोणों का विशेष महत्व है जबकि मुगलों का इससे कोई लेना-देना नहीं। इन बुर्जों पर बने छत्र भी अष्टकोणिय हैं तथा उनके गुम्बदीय शीर्षों पर शिखरों के नीचे पुष्प बने हुए हैं। इस प्रकार के पुष्पाच्छादित गुम्बद मुस्लिम निर्माण में नहीं होते (चाणक्यपुरी, दिल्ली स्थित पाकिस्तानी दूतावास का गुम्बद इस बात का जीवंत उदाहरण हैं।)

लालकिले की निर्माण शैली पर यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि इसका निर्माण हिन्दू वास्तुकला के सिद्धान्तों पर किया गया है। किले की पूर्व दिशा में बह रही यमुना नदी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। हिन्दू घुटनों तक के जल में खड़े होकर प्रातःकाल के उदयीमान सूर्यनारायण को जल (अर्घ्य) चढ़ाकर उनकी अर्चना करते हैं। यमुना नदी का यह भाग इसीलिए ‘राजघाट’ कहलाता है क्योंकि यह राजाओं तथा राज परिवारों के लिए विशेष रूप से बनाया गया था। यदि शाहजहाँ ने लाल किला बनवाया होता तो शायद यह घाट होता ही नहीं और यदि होता भी तो ‘बादशाह घाट’ या ‘बेगम घाट’ ही कहलाता ‘राजघाट’ नहीं।

लालकिले की प्रत्येक मेहराब के दाएँ-बाएँ स्कन्धों पर सूर्यमुखी पुष्प बने हुए हैं। ये सूर्यमुखी पुष्प इस किले का सूर्यवन्शी हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित होने का प्रमाण देते हैं।

लालकिले के ‘खासमहल’ के भीतर बना हुआ प्राचीन हिन्दू राजवंशी राजचिन्ह आज भी लाल किला की सत्यता प्रकट कर रहा है। इस राजचिन्ह में एक कलश में कमलदण्डी खड़ी है। इस कमलदण्डी के ऊपरी छोर पर न्यायतुला झूल रही है। न्यायतुला के ऊपर जाज्वल्यमान सूर्यनारायण एवं दोनों ओर भगवान श्रीविष्णु के हाथ में शोभायमान होने वाला शंख है।

उपरोक्त चिन्ह की प्रत्येक वस्तु हिन्दू धर्म में अत्यन्त पवित्र मानी जाती है जबकि इस्लाम से इनका कोई संबंध नहीं है। ‘ताजमहल’, ‘पुरानी दिल्ली’, ‘लालकिला’ एवं जामा मस्जिद जैसी आश्चर्यजनक कृतियों को बनाने वाला शाहजहाँ क्या इतना बड़ा मूर्ख रहा होगा कि वह अपने निवास के एक महत्वपूर्ण स्थान पर जिसे खासमहल कहा जाता है वह उन काफिरों के धार्मिक चिन्ह बनवाये जिन्हें कुचलने के लिए वह सदा तत्पर रहता था ?

तथाकथित दीवाने-आम के चारों ओर का क्षेत्र आज भी गुलाल-बाड़ी के नाम से जाना जाता है। गुलाल या कुमकुम का लाल रंग हिन्दुओं के ललाटों पर तिलक के रूप में शोभायमान होता है। हिन्दुओं की सुहागिन नारियाँ अपने पति की दीर्घायु की कामना हेतु इससे अपनी माँग सजाती है। उनके लिए यह सबसे बड़ा सौभाग्यसूचक चिन्ह है, जबकि मुसलमानों में गुलाल का कोई विशेष महत्व नहीं है।

अतः शाहजहाँ द्वारा निर्मित लालकिले के उस क्षेत्र को घेरने वाला स्थान जहाँ उसने अपना पहला दरबार लगाया था, गुलालबाड़ी नहीं हो सकता। दीवाने आम की तरह उसका भी कोई अरबी नाम होना चाहिए था।

संदर्भ ग्रंथः ‘दिल्ली का लाल किला लाल कोट है’, ‘भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें एवं विश्व इतिहास के विलुप्त अध्याय।’ (लेखक पी.एन.ओक.)

संकलनकर्ताः मदन लखेड़ा, साहित्य विभाग, संत श्री आसारामजी आश्रम

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 25-27 अंक 108

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भक्त तुलाधार


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री रामचरितमानस में आया हैः

गौधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।

जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

भक्त तुलाधार इसी संतोषरूपी धन के धनी थे। उन्होंने अयाचक व्रत ( न माँगने का  व्रत) धारण किया था। वे खेत में फसल कटने पर अन्न के गिरे हुए दाने बीनकर एकत्र कर लेते थे एवं उन्हीं से अपनी क्षुधा शांत कर लेते थे। शरीर पर वस्त्र के नाम पर एक ही फटी धोती एवं फटा गमछा था।

पत्नी भी ऐसी ही पवित्र थी। वह पति के व्रत में सहयोगी थी। दोनों भगवद भजन में मस्त रहते थे। इच्छाएँ छोड़कर भगवान के रस में इतने तृप्त हो गये थे कि बड़े-बड़े राजाओं का सुख भी उनको आत्मसुख के आगे तुच्छ दिखता था। जो निष्कामी होते हैं, निःस्पृहि होते हैं, आत्मारामी होते हैं, ऐसे पवित्र संतों को प्रसिद्ध करने के लिए भगवान भी कभी कुछ-न-कुछ लीला कर लिया करते हैं !

तुलाधार स्वयं तो कुछ नहीं चाहते थे लेकिन उनकी महिमा बढ़ाने के लिए भगवान ने उनकी परीक्षा की। एक दिन जब तुलाधार स्नान करने के लिए नदी पर गये तो देखा कि चार-पाँच नये वस्त्र पड़े हैं। तुलाधार ने देखा लेकिन मन-ही-मन विचार करने लगे कि मेरा गुजारा तो इस फटी धोती से ही हो जाता है। जिस शरीर को ढँकता हूँ, वह शरीर भी एक दिन न रहेगा तो ढँकने का साधन ये वस्त्र कितने दिन तक ? किसी के पड़े हुए वस्त्र मैं क्यों लूँ ? जिस शरीर को एक दिन जला देना है उसके लिए चिंता क्यों करूँ ? मुझे तो भगवान का चिंतन करना चाहिए।

तुलाधार ने वस्त्र न उठाये, स्नान करके अपने घर चले गये। भगवान ने देखा कि है तो पक्का। दूसरे दिन भगवान ने मार्ग में तुलाधार को दिखे इस प्रकार अशर्फियों से भरा घड़ा रख दिया।

तुलाधार स्नान करने के लिए गये तो देखा कि अशर्फियों से भरा घड़ा ! सोने की मोहरें देखकर उन्हें अपनी दरिद्रता का ख्याल भी आया। परंतु उनके हृदय ने कहाः ‘मैंने तो अयाचक व्रत लिया है। मेरा सोना तो मेरा आत्मा, मेरा राम है। मेरा सोना तो पवित्र आचार है। फिर भी मैं अगर यह धन ले लूँ तो धन तो अनर्थों की जड़ है। धन आते ही भोग की इच्छा बढ़ने लगती है। धन आते ही अहंकार बढ़ने लगता है। धन आते ही कुटुंबी और स्वजनों में राग-द्वेष बढ़ने लगता है।

तुलाधार सोने की अशर्फियों को वहीं छोड़कर स्नान करके चले गये।

भगवान ने देखाः तुलाधार बड़ा पक्का है। इतनी स्वर्णमुहरें भी उसके चित्त को चलित न कर पायीं ! अब भगवान से रहा न गया… परीक्षा का पेपर जितना बढ़िया होता है उतनी कड़क जाँच होती है, वैसे ही भक्त जितना बढ़िया होता है उतनी कसौटी भी ज्यादा होती है।

भगवान एक ज्योतिषी का रूप लेकर भक्त के नगर में प्रविष्ट हुए। किसी का हाथ देखते थे, किसी का ललाट देखते थे और उसका भविष्य बता देते थे। देखते-देखते वे तुलाधार के पड़ोस में पहुँचे। तुलाधार की पत्नी ने देखाः कोई बड़े ज्योतिषी आये हैं और सब सच-सच बता देते हैं’ वह भी गयी ज्योतिषी के पास ?

उसे देखते ही ज्योतिषी ने कहाः

“आपके पति का नाम तुलाधार है।”

पत्नीः “आप धन्य हैं महाराज ! धन्य हैं।”

ज्योतिषीः “आपके पति अयाचक व्रत में दृढ़ नहीं हैं। आप गरीबी नहीं चाहती हो लेकिन पतिव्रता होने के कारण आपने पति की इच्छा को में मिला दिया है।”

पत्नीः “महाराज ! आप बिल्कुल सच कहते हैं।”

ज्योतिषीः “आपके पास ही एक ही साड़ी है। उसी को स्नान के पश्चात गीली होने पर रसोईघर में वहाँ की गरमी से अपने तन पर सुखाती हो। आप लोग खेत में अन्न के दाने चुनकर लाते हो और उन्हीं से सत्तू बनाकर भगवान को भोग लगाकर खा लेते हो। आज तक भगवान ने आपको कुछ न दिया, फिर भी उसी भगवान का आप भजन करते हो?”

पत्नीः “महाराज ! ऐसा न कहें। आपकी बात तो सच है, लेकिन हम धन या अन्न वस्त्र पाने के लिए उन्हें नहीं रिझाते।”

ज्योतिषीः दो दिन पहले ही आपके पति जब नदीं में नहाने के लिए गये थे, तब उन्हें रास्ते में पाँच-छः सुंदर धोती और साड़ियाँ पड़ी मिली थीं। आपके पति ने उन्हें छुआ तक नहीं और नहाकर वापस चले आये।”

पत्नीः “महाराज ! आप सच कहते हैं ?”

ज्योतिषी तो भगवान का स्वरूप थे। वे सच न बोलेंगे तो कौन बोलेगा ?

पत्नी भागी-भागी गयी अपने पति के पास और बोलीः “एक अंतर्यामी महाराज आये हैं, वे पूरे अंतर्यामी हैं। आप भी चलकर उनका दर्शन करें।”

तुलाधार ने आकर ज्योतिषी को प्रणाम किया और कहाः

“महाराज ! जरा आप हमारा भी ललाट देखें परंतु हमारे पास देने के लिए दक्षिणा नहीं है।”

ज्योतिषी ने कहाः “हम दक्षिणा लेते ही नहीं हैं। हम लेने को नहीं देने को निकले हैं।”

फिर तुलाधार का हाथ देखते हुए बोलेः “आपको दो दिन पहले धोती और साड़ियाँ मिली थीं, परन्तु आपने उन्हें नहीं लिया। धन की रेखा तो है लेकिन ‘ना-ना’ करके यह चौकड़ी आ गयी हैं। आज सुबह भी आपको स्वर्णमुद्राओ से भरा कलश  मिला था….”

यह सुनकर तुलाधार को बड़ा आश्चर्य हुआः “महाराज ! ये बातें तो मैंने किसी को नहीं बतायीं, आपको कैसे पता चल गयी ?

ज्योतिषीः “किसी को नहीं बतायीं  लेकिन रेखाएँ साफ—साफ बोल रही हैं। आपने उन स्वर्णमुहरों को देखा, आपको अपनी गरीबी भी याद आयी। फिर भी आपने नहीं ली।”

तुलाधारः “महाराज ! आपकी बात सही है।”

ज्योतिषीः “तुलाधार ! आप अपने भाग्य को स्वयं ठोकर मारते हो। हम ज्योतिषी हैं इसलिए सच्ची बात बताते हैं। सब गुण धन में आश्रित होते हैं। धनवान के अवगुण दब जाते हैं। धन से आदमी होम-हवन, यज्ञ-याग कर सकता है। धन से आदमी माता-पिता और गुरुजनों की सेवा करके आशीर्वाद पा सकता है। धन से क्या नहीं हो सकता है ?”

तुलाधारः “महाराज ! धन से सब कुछ होता है। धन से स्वर्ग का सुख मिलता है और स्वर्ग का सुख भोगकर फिर नरक में जाना पड़ता है। धन से अभिमान बढ़ता है, धन से भोग-वासना बढ़ती है, धन से लोभ बढ़ता है और धन की रक्षा-रक्षा में आदमी की आयुष्य पूरी हो जाती है।”

ज्योतिषी महाराज कहते हैं कि धन से सब कुछ होता है और तुलाधार भी कहते हैं कि धन से सब कुछ होता है, लेकिन जहाँ ज्योतिषी धन का प्रलोभन दिखा रहे हैं, वही तुलाधार धन के दोष बता रहे हैं। जिनको आत्मधन मिल गया वे नश्वर धन की कामना क्यों करेंगे ? जिनको आत्मसुख मिल गया वे संसार के नश्वर सुख की इच्छा क्यों करेंगे ? जिनको आत्मजीवन मिल गया वे देह की आसक्ति क्यों करेंगे ?

आखिरी ज्योतिषी चुप हो गये क्योंकि सत्य के आगे तो न्यायाधीशों को भी चुप रहना पड़ता है। तुलाधार धन के पूरे दोष बताने में सफल हो गये तो भगवान मौन हो गये। भगवान भीतर से बड़े प्रसन्न हो गये और अपनी प्रसन्नता की जरा-सी निगाह तुलाधार पर डाल दी।

अब तुलाधार को हुआः ‘हमारा हित चाहने के लिए इन्होंने इतनी बातें बतायीं और मैंने इनकी सब बातें काट दीं, फिर भी ये क्रोधित न हुए। जिसको कामना होती है, उसी को क्रोध आता है। मालूम होता है कि ये कोई महात्मा हैं या फिर स्वयं परमात्मा हैं क्योंकि इन्हें तनिक भी क्रोध नहीं आया।’

तुलाधार ने गहराई से देखा तो उसके चित्त में शांति और प्रसन्नता का साम्राज्य बढ़ा। उन्होंने ज्योतिषी के चरण पकड़ लिये और बोलेः

“भगवान ! आप और इस वेश में ! आप यह छलिया-वेश धारण करके आये ! अब आप अपने असली वेश में प्रगट हो जायें कृपा करें…. प्रभु !”

भगवान नारायण अपने असली रूप में प्रगट हो गये और तुलाधार को गले से लगा लिया।

जिनको कोई कामना नहीं है उन्हीं को भगवान अपने गले से लगाते हैं। कामना घटाने दो तरीके हैं-

ईश्वर से प्रीति इतनी हो जाये कि उनके सिवाय कोई कामना उठे ही नहीं।

अगर कामना उठे भी तो खुद सुख लेने की नहीं, वरन् दूसरों को सुख देने की कामना उठे। जो दूसरों को सुख देता है, वह स्वयं सुख का दाता हो जाता है। राजवैभव से युक्त जनक, श्रीकृष्ण, श्रीराम तथा विरक्त प्रारब्धप्रधान शुकदेव और तुलाधार ये सभी अनासक्ति एवं आत्मसुख की तृप्ति के अनुभव में एक ही थे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 18-20, अंक 108

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चरित्र की पवित्रता


चरित्र की पवित्रता हर कार्य में सफल बनाती है। जिसका जीवन संयमी है, सच्चचरित्रता से परिपूर्ण है उसकी गाथा इतिहास के पन्नों पर गायी जाती है। हरि सिंह नलवा का व्यक्तित्व ऐसा ही था।

पंजाब के पड़ोसी काबुल द्वारा बार-बार पंजाब के सीमावर्ती इलाकों पर आक्रमण हो रहा था। उसका सामना करने के लिए प्रधान सेनापति हरिसिंह नलवा के नेतृत्व में सेना ने काबुल की ओर प्रस्थान किया।

हरिसिंह के शौर्य के आगे काबुली सेना ज्यादा देर न टिक सकी। उनका सरदार हरिसिंह के हाथों मारा गया।

काबुली सरदार की पुत्री मेहर खूबसूरत भी थी और वीरांगना भी। उसने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहा। उसने सोचाः ‘यदि आमने सामने प्रतिशोध पूरा न कर सकी तो रूप जाल में फँसाकर हरिसिंह को खत्म कर दूँगी। आखिर वह अभी युवा है और बहादुर होने का साथ मोहक भी है। उसका प्रचंड पौरूष मेरे रूप लावण्य के आगे न टिक सकेगा।’

एक दिन उसे हरिसिंह के तंबू का सुराग मिल ही गया। वह रात्रि के अँधेरे में अकेली ही तलवार लेकर निकल पड़ी। रात्रि का दूसरा पहर बीत रहा था, किंतु हरिसिंह के सैनिक पूरी तरह सजाग थे। उन्होंने मेहर को रोक दिया और पूछाः

“इस मध्य रात्रि में इस तरह अकेली क्यों आयी हो ?”

मेहरः “तुम्हारे सेनापति से मिलना है।”

प्रहरी चौंका कि इतनी रात में ! उसने कहाः “तुम सुबह आओ। वैसे भी हमारे सेनापति स्त्रियों से दूर रहते हैं। तुम यहाँ से चली जाओ।”

मेहरः “असंभव ! मैं हरि सिंह से मिले बिना नहीं जाऊँगी। तुम उनसे जाकर कह दो कि काबुल के सरदार की बेटी मेहर आयी है।”

हरिसिंह ने सुना तो उसे सादर बुला लिया।

मध्य रात्रि थी, पूर्ण एकांत था और मेहर की वेशभूषा एवं श्रृंगार उसे और अधिक मादक बना रहा था, लेकिन हरि सिंह किसी और ही धातु के बने थे। उन्होंने मेहर की ओर एक नजर डालकर मुस्कुराते हुए कहाः “बैठो, बहन  !”

हरिसिंह की निश्छल मुस्कान और ‘बहन’ के संबोधन को सुनकर मेहर के हृदय का सारा प्रतिशोध ठंडा हो गया। वह आश्चर्यचकित होकर बोल उठीः

“आपने मुझे ‘बहन’ कहा ?”

हरिसिंहः “हाँ। तुम उम्र में मुझसे कुछ छोटी ही होगी। इसलिए मेरी छोटी बहन के समान हो। हमें तुम्हारे पिता के मारे जाने का बेहद अफसोस है। पर, तुम हमारी मजबूरी समझने की कोशिश करो। क्या तुम अपने यहाँ के लोगों के आतंक से परिचित नहीं हो ? हमारी लगातार चेतावनी से भी जब वे बाज नहीं आये, तब हमें सैनिक अभियान के लिए विवश होना पड़ा।”

मेहर इस सत्य से अवगत थी, लेकिन अबी तक उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई व्यक्ति इतना संवेदनशील और उज्जवल चरित्रवाला भी हो सकता है, क्योंकि उसके देश में यह असंभव सा था। उसने नतमस्तक होते हुए कहाः

“भाईजान ! हमने आपकी बहादुरी के बहुत किस्से सुने थे। पर आज जान लिया कि उसका वास्तविक रहस्य क्या है।”

तब हरिसिंह ने कहाः “मेरे ही नहीं, किसी के भी शौर्य का रहस्य उसके उज्जवल चरित्र में निहित होता है।”

वस्तुतः, मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ संपत्ति उसका उज्जवल चरित्र ही है। जिसके जीवन में चरित्र की पवित्रता है उसका जीवन सदैव सफलताओं से भरपूर रहता है। वह साहसी, निडर, बुद्धिमान एवं धैर्यवान होता है। क्षमा, दया आदि सदगुण उसके जीवन सहज ही खिलने लगते हैं।

हे भारत के नौजवानों ! तुम भी इस रहस्य को जान लो। पाश्चात्य भोगवाद के अंधानुकरण से बचो। अपने देश भारत के वीर, साहसी एवं ऐतिहासिक पुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को भी चरित्र की पवित्रता से सुरभित होने दो…..युवाधन सुरक्षा के उपायों को अपनाकर, संतों-महापुरुषों का सान्निध्य एवं मार्गदर्शन पाकर अपने जीवन को तो उन्नत करो ही, साथ ही, दूसरों को भी उन्नति की ओर चलने के लिए प्रेरित करो। सबकी उन्नति में ही देश की  उन्नति निहित है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 108

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