तीव्र विवेक

तीव्र विवेक


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

विवेक किसको बोलते हैं ?

दो चीजें मिल गयी हों, मिश्रित हो गयी हों उनको अलग करने की कला का नाम है विवेक। परमात्मा चेतन है, जगत जड़ है और दोनों के मिश्रण से सृष्टि चलती है। सृष्टि में सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छा-बुरा, जीवन-मरण ये सब मिश्रित हो गया है। उसमें से सार-असार को, नित्य-अनित्य को, जड़ और चेतन को पृथक समझने की कला है विवेक।

जगत में जितने भी दुःख हैं, क्लेश हैं, अनर्थ हैं सबके मूल में है विवेक की कमी। विवेक की कमी के कारण ही हम जो हैं उसका हमको पता नहीं है और जो हम नहीं हैं उसको (देह को) हम ‘मैं’ मान बैठे हैं।

सत् क्या है – असत् क्या है ? शाश्वत क्या है – नश्वर क्या है ? नित्य क्या है – अनित्य क्या है ? इसका अगर विवेक हो जाये तो नश्वर का नश्वर समझने से दुःख नहीं होगा और शाश्वत को शाश्वत मानने से उसे पाये बिना मन नहीं मानेगा।

जैसे, मिट्टी का घड़ा। कच्चे घड़े में यदि पानी डालो तो वह पानी में पिघल जाता है लेकिन उस घड़े को आग में बराबर पकाओ तो वह पक्का घड़ा पानी की गर्मी आदि दोषों को हर लेता है और पानी को भी अमृतसम शीतल बना देता है। ऐसे ही सत्संग के द्वारा विवेक को जागृत किया जाता है। फिर ध्यानादि करके विवेक को परिपक्व किया जाता है। विवेक परिपक्व होने से संसार का व्यवहार भी शीतल हो जाता है, दोषों को हरने वाला हो जाता है और दूसरों को भी सुख से, शीतलता से भरने वाला हो जाता है।

कच्चा घड़ा पानी को नहीं थाम सकता। घड़ा अग्नि में परिपक्व होता है तभी वह पानी को थाम सकता है। ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा के आनंद को, रस को, माधुर्य को वही थाम सकता है जिसका चित्त योगाग्नि में परिपक्व हुआ है।

सुना तो हैः ‘परमात्मा अपना आत्मा है… संसार स्वप्न है… सब मरते हैं… दुःखी होने की कोई जरूरत नहीं है…’ फिर भी दुःखी हो रहे हैं, चिंता कर रहे हैं। क्यों ? क्योंकि चित्तरूपी घड़ा अभी ध्यानगोरूपी अग्नि में परिपक्व नहीं हुआ है। जब यह परिपक्व होगा तभी संसार का जल उसमें शीतल होगा अर्थात् दुःख नहीं देगा।

आप दुनिया में दो रोटी कमाकर, दो बच्चे-बच्ची पैदा करके, उनको पाल-पोसकर मर मिटने के लिए नहीं आये हो अपितु सत्य-असत्य का विवेक करके, मिथ्या और शाश्वत का विवेक करके, नित्य-अनित्य का विवेक करके मुक्ति पाने के लिए आये हो।

‘मैं कौन हूँ ? शरीर मेरा है तो मैं शरीर नहीं हूँ। मन मेरा है तो मन मैं नहीं हूँ। बुद्धि मेरी है तो मैं बुद्धि नहीं हूँ… आखिर मैं कौन हूँ ?’ इसका विवेक करके अपने-आपको पाकर उसमें विश्रांति पाने के लिये आये हो।

विवेक से अपने स्वरूप का बोध मिल जाय और आप उसमें टिक जायें तो  परिपक्व स्थिति आ जायेगी। परिपक्व स्थिति आने से आपका संसाररूपी सर्प मारने योग्य अथवा जहर फूँकने योग्य नहीं होगा लेकिन संसाररूपी सर्प का व्यवहार भी आदर्श हो जायेगा, सुखदायी हो जायेगा। अपने लिए और दूसरों के लिए प्रेम देने  वाला हो जायेगा, माधुर्य निखारने  वाला हो जायेगा।

विवेक तीर्व होगा तो तुच्छ चीजों में राग करके फँसने का अवसर नहीं आयेगा वरन् वैराग्य आयेगा कि ‘इतना भोगा….. आखिर कब तक ? ऐसे बन गये…. फिर क्या?’

हम दिन रात विवेक को ढाँककर ही काम कर रहे हैं। इसलिए कर –करके मर जाते हैं फिर भी कर्तव्य का अंत नहीं होता है। पा-पाकर मर जाते हैं फिर भी पाने की वासना का अंत  नहीं होता है, जान-जानकर थक जाते हैं फिर भी जानकारी का अंत नहीं होता।

राजगृह में धन्यकुमार सुभद्रा आदि रानियों के साथ बात कर रहे थे। रानी सुभद्रा ने कहाः “मेरा भाई अब संन्यासी हो जायेगा। आचार्य धर्मघोष का प्रवचन सुनता है और प्रतिदिन एक-एक रानी से मिलता है और बोलता है कि अब मैं सदा के लिए साधु हो जाऊँगा। ऐसा करके वह 15 रानियों का त्याग कर चुका है। कुल 32 रानियाँ हैं। उसके बाद मेरा भाई संन्यासी हो जायेगा।”

धन्यकुमारः “तेरा भाई क्या साधु होगा, खाक ?”

सुभद्रा बोलीः “वह ऐसे ही थोड़ी रानियों को छोड़ रहा है ?”

धन्यकुमारः “ऐसे थोड़े ही साधु बनते हैं !”

सुभद्राः “तो कैसे बनते हैं ?”

धन्यकुमारः “ऐसे बनते हैं, देख। यह मैं साधु बना और चला। तुम्हारा भाई तो एक-एक रानी को छोड़ रहा है, अभी 17 बाकी हैं। मैं तो एक साथ मेरी आठों रानियों को छोड़ रहा हूँ।”

यह कहकर धन्यकुमार निकल पड़ा।

यदि दूरदर्शिता नहीं है, तीव्र विवेक नहीं है तो साधु होना मुश्किल है। जब तीव्र विवेक आता है तो एक झटके में ही सब छूट जाता है।

कई लोग बोलते हैं कि ‘धीरे-धीरे छोड़ूँगा… देखूँगा…. प्रयत्न करूँगा….’ तो उनके लिए छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जो एक ही झटके में छोड़ देते हैं वे ही छोड़ पाते हैं। ‘धीरे-धीरे भजन करेंगे… संसार में रहकर भजन करेंगे…’ तो करते रहो भजन और संसार भी भोगते रहो। फिर हो गया भजन !

विवेक होता है तो तीर लग जाता है, बात चुभ जाती है और मनुष्य लग पड़ता है।

विवेक तीव्र होने पर तो दो शब्द सुनकर भई व्यक्ति लग जाता हैः ‘कुछ भी हो जाय, ईश्वर को पाना ही है… समय नहीं गँवाना है।’

आवारा मन होता है वही फालतू बातें करता है, फालतू तर्क देता है, फालतू सुख-सुविधाएँ खोजता रहता है। जिनको लगन लगी है वे तो बस, ईश्वर की ही बातें सुनेंगे, ईश्वर का ही ध्यान करेंगे, ईश्वर के लिए ही सत्शास्त्र पढ़ेंगे अथवा ईश्वर के लिए ही सेवाकार्य करेंगे। विवेक नहीं है तो सुविधाएँ होते हुए भी व्यक्ति का मन भजन में नहीं लगता। जिनको तीव्र पुण्यमय विवेक होता है वे सुविधा हो तब भी और सुविधा न हो तब भी अपना काम बना लेते हैं। बस, विवेक होना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2002, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 109

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