स्वभाव पर विजय

स्वभाव पर विजय


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री कृष्ण से उद्धवजी ने पूछाः

“बड़े में बड़ा पुरुषार्थ क्या है ? बड़ी उपलब्धि क्या है ? बड़ी बहादुरी किसमें है ?”

श्रीकृष्ण ने कहाः “स्वभावं विजयः शौर्यः …… विषयों के प्रति इन्द्रियों का आकर्षित होने का जो स्वभाव है उस पर विजय पाकर आत्मसुख में स्थित होना यह बड़ी शूरता है।” आँख रूप की तरफ आकर्षित करती है, जीभ चटोरेपन की तरफ हलवाई की दुकान की तरफ ले जाती है, नाम इत्र आदि सुगंधित पदार्थों की तरफ भटकाती है, कान शब्द के लिए भटकाता है तो शरीर स्पर्श के लिए, विकारी काम के लिए खींचता है।

पाँच विषयों की तरफ भटकने वाला यह जीव अपनी इस विकारी भटकान पर विजय पा ले – यह बड़ी बहादुरी है। रणभूमि में किसी को मात कर दिया अथवा कहीं बम-धड़ाका कर दिया…. यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो यह है कि जीव अपने विकारी आकर्षणों पर विजय पाकर निर्विकारी परमात्मा के सुख को, परमात्मा की सत्ता को, अपने परमात्म-स्वभाव को जान ले।

फिर भी मनुष्य अपने पुराने विकारी स्वभाव में भटककर अपने को लाचार बना देता है। फिर हे वाहवाही ! तू सुख दे… हे स्वाद ! तू सुख दे… हे इत्र ! तू सुख दे… करके स्वयं को खपा देता है।

जो बिछुड़े हैं पियारे से दरबदर भटकते फिरते हैं।

हमारा यार है हममें हमन को बेकरारी क्या ?

विषय-विकारों में जीव दरबदर भटकता फिरता है। कोई विरले संत ही होते हैं जो अपने आप में रहते हैं (अपने स्वरूप में जगे होते हैं।) और अपने आप में आये हुओं का संग ही जीव को मुक्तात्मा बना देता है। वशिष्ठजी कहते हैं- ‘इस जीव में चिरकाल की वासना और इन्द्रिय-सुखों के प्रति आकर्षित होने का स्वभाव है। इसलिए अभ्यास भी चिरकाल तक करना चाहिए।’

सारी पृथ्वी पर राज करना – यह कोई बड़ी बात बहादुरी का काम नहीं है। मौत के आगे तो किसी की दाल नहीं गलती। शूरमा तो वह है जो अपने आत्म-स्वभाव को जगाता है। स्वभावं विजयः शौर्यः …… जो अपने आत्म-स्वभाव में स्थिति करे, अपने जीवभाव पर विजय पाये, वही वास्तव में शूर है।

जो शूरवीर होता है वह दूसरों को भी शूरवीर बनाता है और जो डरपोक होता है वह दूसरों को भी डरपोक बनाता है। ‘ऐसा हो जायेगा तो ? हम मर जायेंगे तो ?….’ अरे ! आप मर सकें ऐसी चीज़ हैं क्या ? ऐसी कौन सी मौत है जो आपको मारेगी ? मारेगी तो शरीर को मारेगी और शरीर तो एक दिन ऐसे भी मरेगा ही। अतः, ऐसा हीन चिंतन करके डरना क्यों ?

काम विकार में गिरना, लोभ में फँसना, मोह ममता में फँसना, अहंकार में उलझना, चिंता में चूर होना इत्यादि जीव का स्वभाव है। इन तुच्छ स्वभावों पर विजय पाकर अपने आत्म स्वभाव को जगाना यही शूरता है।

जिस स्वभाव से दुःख पैदा होता है, चिंता पैदा होती है, पाप पैदा होता है तथा आप ईश्वर से दूर होते जाते हैं उस स्वभाव पर विजय पायें। ईश्वर के निकट आयें, पुण्यमय हो जायें, निश्चिंत हो जायें, निर्दुःख हो जायें, आत्मा को जानने वाला स्वभाव हो जाय – ऐसा यत्न करना चाहिए।

अपना असली स्वभाव तो सहज में है ही, केवल अपने नीच स्वभाव पर विजय पाना है। असली स्वभाव पर विजय नहीं पाना है, नीच स्वभाव पर विजय पाना है। असली स्वभाव तो आपका अमर आत्मा है।

आप रोग छोड़ दो तो तंदुरुस्ती आपका स्वभाव है, चिंता छोड़ दो निश्चिंतता आपका स्वभाव है, आप दुःख छोड़ दो तो सुख आपका स्वभाव है।

एक होता है नश्वर सुख, दूसरा होता है शाश्वत सुख। आप नश्वर सुख के आकर्षण पर विजय पाइये तो शाश्वत सुख को कहीं ले जाना नहीं पड़ेगा। वह तो आपके पास है ही। जैसे, कपड़े का मैलापन गया को स्वच्छता तो उसका स्वभाव है ही। हमने कपड़े को सफेद नहीं किया केवल उसका मैल हटाया। ऐसे ही जीवात्मा का स्वभाव है नित्यता, शाश्वतता, अमरता और मुक्ति….

जीव का स्वभाव वास्तव में शाश्वत है, नित्य है और वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है परन्तु शरीर नश्वर है, अनित्य है और विकारों से आक्रान्त है। मन में क्रोध आया, आप क्रोधी हो गये, क्रोध चला गया तो आप शांत हो गये। मन में काम आया, आप कामी हो गये, काम चला गया तो आप शांत हो गये… तो शांति आपका स्वभाव है, निश्चिंतता आपका स्वभाव है, सुख आपका स्वभाव है।

अकेला सैनिक होता है तो उसे डर लगता है। किन्तु जब सैनिक सोचता है कि मेरे पीछे सेनापति है, सेनापति सोचता है कि मेरे पीछे राष्ट्रपति है, राष्ट्रपति सोचता है कि मेरे पीछे राष्ट्र का संविधान है तो इससे बल मिलता है। ऐसे ही साधक सोचे कि ‘मेरे पीछे भगवान हैं, शास्त्र हैं। मेरे पीछे गुरु की कृपा है, शुभ संकल्प है, गुरुमंत्र है। शास्त्र का संविधान, भगवान की नियति मेरे साथ है। मैं अपने स्वभाव पर विजय पाऊँगा। मैं अवश्य आगे बढ़ूँगा।

और आगे बढ़ने के प्रयास में एक बार नहीं, दसों बार फिसल जाओ फिर भी डरो नहीं। ग्यारहवाँ कदम फिर रखो। सौ बार गिर गये तो कोई बात नहीं, Try and try, you will be successful. स्वभाव पर विजय पाने का यत्न करते रहो, सफलता अवश्य मिलेगी। स्वभाव पर विजय पाने का दृढ़ संकल्प करो और उस संकल्प को पूरा करने का कोई न कोई व्रत ले लो। इससे सफलता शीघ्र मिलेगी।

कुछ लोग बोलते हैं कि ‘मैं कोशिश करूँगा, मैं देखूँगा हो सकता है कि नहीं…..’ ऐसे  विचार करना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।

शिकागो (अमेरिका) में जंगली प्याज होती थी। वहाँ बहुत बड़ा प्याज का जंगल था। ‘प्याज के जंगल का हम लोग बढ़िया शहर बनायेंगे। We will do it.’ वहाँ के कुछ लोगों ने ऐसा संकल्प किया और प्याज का वह जंगल समय पाकर अमेरिका का प्रसिद्ध शहर शिकागो हो गया।

ऐसे ही आप परमात्मा को पाने का इरादा पक्का करो और उस  इरादे को रोज याद करो। अपना लक्ष्य सदैव ऊँचा रखो। शास्त्र और संतों के साथ कदम मिलाकर चलो अर्थात् उनके उपदेशानुसार चला तो सफलता आपके कदम चूमेगी।

लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल।

सफलता तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

परमात्म-सुख पाने का ऊँचा लक्ष्य बनायें और उस लक्ष्य को बार-बार याद करते रहें। शास्त्र और संत के उपदेश के अनुसार अपना प्रयास जारी रखें तो एक दिन सफलता अवश्य मिलेगी। भगवान आपके साथ हैं, सदगुरु की कृपा आपके साथ है। उनकी मदद कदम-कदम पर मिलती ही है। इसलिए आप उनसे दूर जाने के बजाय अपने स्वभाव पर विजय पा लें। यही शूरवीरता है। सारे विश्व में यही बड़ी बहादुरी का काम है।

संगी साथी चल गये सारे कोई न निभियो साथ।

कह नानक इह विपत में टेक एक रघुनाथ।।

आप जगत में जिनको संगी-साथी मानते हैं वे सभी शरीर के संगी-साथी हैं और एक दिन आपको छोड़कर अलविदा हो जाते हैं किन्तु जो वास्तव में आपके संगी-साथी हैं वे ईश्वर तो आपके रोम-रोम में रम रहे हैं।

जो जीव के पाप-तापों को हर लेते हैं और उसमें अपने सच्चे स्वभाव को भर देते हैं उन परमात्मा की शरण गये बिना इस जीव का परम मंगल नहीं हो सकता, परम कल्याण उसी से हो सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2002, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 111

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