ऐतरेय ऋषि की ज्ञाननिष्ठा

ऐतरेय ऋषि की ज्ञाननिष्ठा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

इतरा माता के पुत्र बालक ऐतरेय को पूर्वजन्म में जो गुरुमंत्र मिला था, उसका वह बाल्यकाल से ही जप करता था। वह न तो किसी की बात सुनता था, न स्वयं कुछ बोलता था। न अन्य बालकों की तरह खेलता ही था और न ही अध्ययन करता था।

आखिर लोगों ने कहाः “यह तो मूर्ख है। कुछ बोलता ही नहीं है।”

गुरुवाणी में कहा गया हैः

बहुतु सिआणप जप का भउ बिआपै।

जगत में ज्यादा चतुर न बनो। बहुत चतुराई करोगे तो यम का भय व्याप्त हो जायेगा। जगत के लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए तुम्हारा समय और शक्ति खींच लेंगे। पत्नी तुमसे तब प्रेम करती है जब उसे तुमसे सुख मिलता है, पति भी पत्नी से तब प्रेम करता है जब उसे पत्नी से सुख मिलता है। सेठ नौकर से प्रेम करता है क्योंकि वह उसका काम करता है और नौकर भी सेठ को इसीलिए चाहता है कि सेठ उसे पैसे देता है। सारा संसार केवल स्वार्थ से बंधा है।

जगत के लोग तुम्हें प्रेम करेंगे, तुम्हारी वाहवाही करेंगे तुम्हारा शोषण करने के लिए और सदगुरु एवं भगवान तुम्हें प्रेम करेंगे तुम्हारा पोषण करने के लिए।

एक दिन माँ ने दुःखी होकर ऐतरेय से कहाः “माता-पिता तब खुश होते हैं जब उनके बेटे-बेटी का यश होता है। तेरी तो निन्दा हो रही है। संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान न हो।”

तब ऐतरेय हँस पड़े एवं माता के चरणों में प्रणाम करके बोलेः “माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो। अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो। निंदा और स्तुति संसार के लोग अपनी-अपनी दृष्टि से करते हैं। निंदा करते हैं तो किसकी करते हैं ? जिसमें कुछ खड़ी हड्डियाँ हैं, कुछ आड़ी हड्डियाँ हैं और थोड़ा माँस है जो रगों से बँधा है, उन निंदनीय शरीर की निंदा करते हैं। इस निंदनीय शरीर की निंदा हो चाहे स्तुति, क्या फर्क पड़ता है ? मैं निंदनीय कर्म तो कर नहीं रहा, केवल जान-बूझकर मैंने मूर्ख का स्वाँग किया है।

यह संसार स्वार्थ से भरा है। निःस्वार्थ तो केवल एक भगवान हैं और भगवत्प्राप्त महापुरुष हैं। इसीलिए माँ ! मैं तो भगवान के नाम का जप कर रहा हूँ और मेरे हृदय में भगवत्शांति है, भगवत्सुख है। मेरी निंदा सुनकर तू दुःखी मत हो।

माँ ! ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए जिससे मन में दुःख हो, बुद्धि में द्वेष हो और चित्त में संसार का आकर्षण हो। संसार का चिंतन करने से जीव बंधन में पड़ता है और चैतन्यस्वरूप परमात्मा का चिंतन करने से जीव मुक्त हो जाता है।

वास्तव में मैं यह शरीर नहीं हूँ और माँ ! तुम भी यह शरीर नहीं हो। यह शरीर तो कई बार पैदा हुआ और कई बार मर गया। शरीर को मैं मानने से, शरीर के साथ सम्बंधित वस्तुओं को मेरा मानने से ही यह जीव बंधन में फँसता है। आत्मा को मैं मानने से और परमात्मा को मेरा मानने से जीव मुक्त हो जाता है।

माँ ! ऐसा चिंतन-मनन करके तू भी मुक्तात्मा बन जा। अपनी मान्यता बदल दे। मान्यता के कारण ही जीव बंधन का शिकार होता है। अगर वह मान्यता को छोड़ दे तो जीवात्मा परमात्मा का सनातन स्वरूप ही है।

माँ ! जीवन की शाम हो जाय उसके पहले जीवनदाता का ज्ञान पा ले। आँखों की देखने की शक्ति क्षीण हो जाये उसके पहले जिससे देखा जाता है उसे देखने का अभ्यास कर ले, माँ ! कान सुनने से इन्कार कर दें, उसके पहले जिससे सुना जाता है उसमें शांत होती जा…. यही जीवन का सार है माँ !”

इतरा ने देखा कि बेटा लगता तो मूर्ख जैसा है किन्तु बड़े-बड़े तपस्वियों से भी ऊँचे अनुभव की बात करता है। माँ को बड़ा संतोष हुआ।

यही बालक ऐतरेय आगे चलकर ऐतरेय ऋषि बन गये। ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद के रचयिता यही ऐतरेय ऋषि हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 18, अंक 112

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