झूठ बोलने की आदत

झूठ बोलने की आदत


एक आदमी को झूठ बोलने की आदत थी परन्तु उसे अपना उद्धार करने की भी बड़ी चिंता थी। अतः वह एक महात्मा के पास गया और बोलाः

“महाराज ! मैंने मंत्रदीक्षा ली है, मंत्रजप भी करता हूँ लेकिन मुझे झूठ बोलने की आदत है। मैं झूठ बोलना नहीं छोड़ सकता। महाराज ! आप बोलें तो मैं घर छोड़ दूँ, आप बोलें तो मैं एक वक्त का भोजन छोड़ दूँ परन्तु झूठ नहीं छोड़ सकता। आप मेरे उद्धार का कोई उपाय बताइये।”

महात्मा ने देखा कि बंदा भले झूठ बोलने की आदत वाला है लेकिन है तो ईमानदार ! एक गुण भी गुरु के सामने आ जाय तो अन्य सभी दुर्गुणों से उबारने की युक्ति गुरुलोग जानते हैं। महाराज ने कहाः

“ठीक है। तू जितना झूठ बोलता है उससे दुगना बोल किन्तु मेरी एक बात मान।”

व्यक्तिः महाराज ! एक क्या दस मानूँगा, केवल झूठ बोलना नहीं छोड़ सकता।”

महाराजः “मैं तुमसे झूठ नहीं छुड़वा रहा हूँ। तू ऐसा कर कि जितना भी झूठ बोलना हो, गप्प लगानी हो सब सियाराम के आगे लगा। युगल सरकार सियाराम सिंहासन पर बैठे हैं उनको साक्षात् मानते हुए उनके आगे झूठी गप्प लगाकर उनका मनोरंजन कर। तुम्हारे गप्पमय मनोरंजन से वे मंद-मंद मुस्करा रहे हैं, प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं। उनकी प्रसन्नता देखकर तुम प्रसन्न होते जाओ कि प्रभु मेरी सेवा से सदा प्रसन्न हो रहे हैं।”

उस आदमी ने आज्ञा शिरोधार्य की और भगवान सियाराम को झूठ मूठ की बातें सुनाने लगा। किसी को झूठ सुनाओ तो वह रोके टोके भी कि झूठ बोलता है, किन्तु सियाराम तो सदा मुस्कराते मिलेंगे।

थोड़े दिन बीते। वह पुनः उन महात्मा के  पास गया एवं बोलाः

“महाराज आपने जो युक्ति बताई उसमें बड़ा आनन्द आ रहा है।”

महात्माः “देख तू इतनी गप्पें लगाता है फिर भी भगवान तुझ पर राज़ी हैं। रोज तेरी गप्पें सुने जा रहे हैं।”

व्यक्तिः “महाराज ! मुझे भी बड़ा मज़ा आता है।”

महात्माः “तू गपशप करता है तब भी इतना मज़ा आता है, सच बोले तो कितना मज़ा आये ?”

व्यक्तिः “नहीं, महाराज ! यह बात मत करो। मैं तो झूठ बोलूँगा, इसके बिना नहीं चलेगा।”

महात्माः “अच्छा ठीक है। परन्तु झूठ बोलते हुए भी ऐसा मत बोल कि ‘मैं झूठ बोल रहा हूँ….’ यह भी तो सच हो गया ! झूठ भले बोले पर सोच कि झूठ बोलने वाली जीभ है, झूठ सोचने वाला मन है, झूठा निर्णय करने वाली बुद्धि है। तू तो भगवान का सखा है, सखा।”

व्यक्तिः “हाँ, महाराज !”

महाराजः “तू भगवान से जरा भी कम नहीं है।”

व्यक्तिः “हाँ महाराज ! ऐसा तो मैं कर सकता हूँ।”

गहराई में तो सभी भगवद्स्वरूप हैं किन्तु अपने को जानते नहीं हैं। बाबा जी ने बता दी युक्ति।

भगवान के सामने गप्पें लगाते-लगाते उस आदमी का मन ऐसा भगवदाकार हो गया कि झूठ चला गया, भगवान ही उसके दिल में रह गये। अंतर-शांति, अंतर-आराम, अंतर-प्रकाश से सूझबूझ बढ़ी। आप भी अपने क्रियाकलाप में भगवद्प्रसन्नता व भगवद्शांति ले आओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2002, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 112

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