Monthly Archives: May 2002

सेठ की समझ


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

किसी सेठ ने एक महात्मा से कई बार  प्रार्थना की कि आप हमारे घर में अपने श्रीचरण घुमायें। आखिर एक दिन महात्मा जी ने कह दियाः

“चलो, तुम्हारी बात रख लेते हैं। फलानी तारीख को आयेंगे।”

सेठ जी बड़े प्रसन्न हो गये। बाबा जी आने वाले हैं इसलिए बड़ी तैयारियाँ की गयीं। बाबा जी के आने में केवल एक दिन ही बाकी था। सेठ ने अपने बड़े बेटे को फोन कियाः “बेटा ! अब तुम आ जाओ।’

बड़े बेटे ने कहाः “पिता जी ! मार्केट बड़ा टाइट है। मनी टाइट है। बैंक में बेलेन्स सेट करना है। पिता जी ! मैं अभी नहीं आ पाऊँगा।”

मझले बेटे ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया। सेठ ने अपने छोटे बेटे को फोन किया तब उसने कहाः

“पिता जी ! काम तो बहुत हैं लेकिन सारे काम संसार के हैं। गुरु जी आ रहे हैं तो मैं अभी आया।”

छोटा बेटा पहुँच गया संत सेवा के लिए। उसने अन्न, वस्त्र, दक्षिणा आदि के द्वारा गुरुदेव का सत्कार किया और बड़े प्रेम से उनकी सेवा की। बाबा जी ने सेठ से पूछाः “सेठ ! तुम्हारे कितने बेटे हैं ?”

सेठः “एक बेटा है।”

बाबा जीः “मैंने तो सुना है कि आपके तीन बेटे हैं !”

सेठः “वे मेरे बेटे नहीं हैं। वे तो सुख के बेटे हैं, सुख के क्या वे तो मन के बेटे हैं। जो धर्म के काम में न आयें, संत-सेवा में बुलाने पर भी न आवें वे मेरे बेटे कैसे ? मेरा बेटा तो एक ही है जो सत्कर्म में उत्साह से लगता है।”

बाबा जीः “अच्छा, सेठ ! तुम्हारी उम्र कितनी है ?”

सेठः “दो साल, छः माह और सात दिन।”

बाबा जीः “इतने बड़े हो, तीन बेटों के बाप हो और उम्र केवल दो साल, छः माह और सात दिन !”

सेठः “बाबा जी ! जबसे हमने दीक्षा ली है, जप ध्यान करने लगे हैं, आपके बने हैं, तभी से हमारी सच्ची जिंदगी शुरु हुई है। नहीं तो उम्र ऐसे ही भोगों में नष्ट हो रही थी। जीवन तो तभी से शुरु हुआ जबसे संत-शरण मिली, जबसे सच्चे संत मिले। नहीं तो मर ही रहे थे, गुरुदेव ! मरने वाले शरीर को ही मैं मान रहे थे।”

बाबा जीः “अच्छा सेठ ! तुम्हारे पास कितनी सम्पत्ति है ?”

सेठः “मेरे पास सम्पत्ति कोई खास नहीं है। बस, इतने हजार हैं।”

बाबा जीः “लग तो तुम करोड़पति रहे हो ?”

सेठः “गुरुदेव ! यह सम्पत्ति तो इधर ही पड़ी रहेगी। जितनी सम्पत्ति आपकी सेवा में, आपके दैवी कार्य में लगायी उतनी ही मेरी है।”

कैसी बढ़िया समझ है सेठ की ! जिसके जीवन में सत्संग है, वही यह बात समझ सकता है। बाकी के लोग तो शरीर को ‘मैं’ मानकर, बेटों को मेरे मानकर तथा नश्वर धन को मेरी सम्पत्ति मानकर यूँ ही आयुष्य पूरी कर देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 19, अंक 113

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

श्रीमद् आद्यशंकराचार्य


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

(श्रीमद् आद्यशंकराचार्य जयंतीः 17 मई 2002)

जब-जब वसुधा पर धर्म का होने लगता ह्रास है।

तब-तब अवतरित हो संत-सुमन फैलाते धर्म-सुवास हैं।।

जब भारत में बौद्ध धर्म के अनुयायी वेदधर्म (सनातन धर्म) की निंदा कर समाज को पथभ्रष्ट करने में लगे थे तथा तांत्रिक और कापालिक समुदाय भी धर्म के नाम पर जनता को गुमराह कर रहे थे, ऐसे समय में पूरे भारत में पुनः सनातन धर्म की स्थापना करने के लिए जिन महापुरुष का आविर्भाव हुआ था, वे थे श्रीमद् आद्यशंकराचार्य।

शंकराचार्य जी ने 16 वर्ष की उम्र में ही समस्त वेद-वेदांगों का अध्ययन कर अन्य ग्रन्थों के अलावा ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भी भाष्य की रचना कर दी थी और भारत के विभिन्न भागों में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ में विभिन्न मतवादियों को परास्त करके पूरे भारत में सनातन धर्म का ध्वज फहरा दिया था।

श्री शंकराचार्य के यश, तेज और प्रभाव से तत्कालीन तांत्रिकों और कापालिकों का प्रभाव घटने लगा था। अतः वे शंकराचार्य से द्वेष करने लगे तथा उनकी हत्या करने का अवसर खोज रहे थे।

एक बार उग्रभैरव नामक कापालिक ने आद्य शंकराचार्य को एकांत में बैठे हुए देखा। वह कपटपूर्वक उनकी हत्या के उद्देश्य से आचार्य के पास गया और उनकी स्तुति करते हुए बोलाः

“इसी देह से कैलास जाने के लिए और वहाँ महादेव के साथ रमण करने के लिए मैंने कई वर्षों तक अत्यंत उग्र तपस्या की। मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव न कहाः

“यदि तुम मेरी प्रसन्नता के लिए किसी आत्मज्ञानी महापुरुष या किसी राजा के सिर का हवन करोगे तो अपने इच्छित पुरुषार्थ को अवश्य प्राप्त करोगे।”

उसी दिन से मैं सर्वज्ञ महापुरुष अथवा राजा के सिर की खोज में लगा हूँ। आज सौभाग्य से आपके दर्शन हो गये। अब लगता है कि मेरा मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा।

आपने परोपकार के लिए शरीर धारण किया है, आप विरक्त हैं, देहाभिमान से शून्य हैं। अतः आप मेरा मनोरथ पूरा करें।”

शंकराचार्य ने कहाः

पतत्यवश्यं हि विकृष्यमाणं कालेन यत्नादपि रक्ष्यमाणम्।

वर्ष्मामुना सिध्यति चेत् परार्थः स एव मर्त्यस्य परः पुमर्थः।।

“यह शरीर यत्न से रक्षा किये जाने के बावजूद भी काल के द्वारा खींचे जाने पर एक दिन अवश्य नष्ट हो जाता है। यदि इस शरीर से किसी दूसरे का अर्थ सिद्ध हो जाय तो यह मनुष्य का बड़ा भारी पुरुषार्थ है। (श्रीशंकर दिग्विजय, सर्गः 11.26)

….किन्तु मेरे शिष्यों के सामने तुम मेरा सिर नहीं ले सकोगे। तुम कोई ऐसा समय और स्थान निश्चित करो कि जहाँ मेरे शिष्य न देख सकें।”

उग्रभैरवः “महाराज ! अमावस्या की रात को आप श्रीशैल पर्वत पर पधारिये। मैं आपको वहाँ ले जाऊँगा।”

शंकराचार्य जी नियत समय पर श्रीशैल पर्वत पर पहुँच गये। वह पर्वत उस समय कापालिकों का गढ़ था। वहाँ पहले से ही त्रिशूल-तलवार आदि तैयार रखे हुए थे।

कापालिक बोलाः “महाराज ! आप इस शिला पर बैठ जाइये। इस यज्ञकुण्ड में आपके सिर का होम कर दिया जायेगा और मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा।”

शंकराचार्यः “तनिक ठहरो। मैं जरा ध्यानस्थ हो जाऊँ। यह शरीर मैं नहीं हूँ, मन मैं नहीं हूँ, इन्द्रियाँ मैं नहीं हूँ, बुद्धि मैं नहीं हूँ। जन्म और मरण मैं नहीं हूँ। चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं…. की अनुभूति में मैं जरा समाधिस्थ हो जाऊँ। फिर तुम अपना काम कर लेना।”

शंकराचार्य समाधिस्थ हो गये अपने परमेश्वरीय स्वभाव में। वे परमेश्वर-स्वभाव में बैठ गये तो प्रकृति में उथल-पुथल मच गयी। शंकराचार्य जी के शिष्य पद्मपाद को स्वप्न आया जिसमें यह सारा दृश्य दिखायी पड़ा। दृश्य देखकर पद्मपाद ने अपने इष्टदेव नृसिंह भगवान से प्रार्थना कीः “मेरे गुरुदेव की रक्षा करें, प्रभो !”

भगवान नृसिंह का सूक्ष्म तत्व पद्मपाद में प्रविष्ट हो गया था वे गर्जना करते हुए उसी पर्वत की ओर भागे जहाँ कापालिक लोग तैयार थे। जिस तलवार से कापालिक शंकराचार्य जी का मस्तक काटना चाहता था, उसी तलवार से नृसिंह भगवान ने कापालिक का ही सिर काटकर यज्ञकुण्ड में होम कर दिया। फिर वे गर्जने लगे। उनकी गर्जना सुनकर शंकराचार्य जी की समाधि खुल गयी। आचार्य ने देखा कि पद्मपाद में तो नृसिंह भगवान का आवेश आया है। उन्होंने  प्रार्थना की तो नृसिंह भगवान शिष्य में से अंतर्धान हो गये और आचार्य कुशलक्षेम पूर्वक अपने निवास पर पहुँच गये।

जो अपने परमेश्वरीय स्वभाव में स्थित हैं ऐसे शंकराचार्य जी ने देखा कि कर्नाटक देश में तांत्रिक विद्या का बड़ा फैलाव हो गया है और दिव्य ब्रह्मज्ञान को छोड़कर लोग उसी में अपना जीवन तबाह कर रहे हैं। अतः आचार्य कर्नाटक देश जाने की तैयारी करने लगे। उस वक्त राजा सुधन्वा अपने सैनिकों सहित आचार्य के साथ ही थे।

कर्नाटक देश में आचार्य के पहुँचने पर कापालिकों का सरदार क्रकच उनसे मिलने आया तथा आचार्य को परास्त करना चाहा किन्तु वह घड़ी भर में ही शंकराचार्य जी से परास्त हो गया।

अपने अपमान से लज्जित होकर क्रकच ने कापालिकों के झुण्ड को लड़ने के लिए भेजा किन्तु राजा सुधन्वा तथा उनकी सेना के द्वारा सब कापालिक मारे गये। युद्ध में अपने अनुयायियों को नष्ट हुआ देखकर क्रकच का क्रोध और भड़का। उसने अपनी तांत्रिक विद्या से भैरव को प्रकट किया तथा भैरव से प्रार्थना कीः

“आपके भक्त से द्रोह करने वाले इस शंकर को दृष्टिमात्र से मार डालिये।”

यह सुनकर भैरव बोलेः “ये शंकर तो मेरे ही स्वरूप हैं। इनकी सत्ता से ही हम पूजे जाते हैं। क्या तुम मेरे ही स्वरूप से द्रोह करते हो ?” इतना कहकर भैरव ने क्रकच कापालिक का सिर काट डाला।

कितना विरोध हुआ आचार्य शंकर का ! यहाँ तक कि जब उन महापुरुष की माँ का देहान्त हुआ तब माँ को कंधा देने के लिए समाज का एक भी व्यक्ति उन्हें नहीं मिला !

अनेकों विरोधों के बावजूद भी आचार्य मानव-कल्याण के कार्यों में डटे रहे। सनातन धर्म की रक्षा में उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे महापुरुषों की करुणा-कृपा को याद करने वाले कहाँ ! जब ऐसे महापुरुष धरा पर विद्यमान होते हैं तब लोग उनका विरोध करते हैं और बाद में उन्हीं को भगवान मानकर पूजते हैं। कैसा दुर्भाग्य है समाज का !

काश ! ऐसे महापुरुषों की उपस्थिति काल में समाज उनसे पूर्ण लाभ उठाये तो कितना अच्छा हो ! गोरखनाथ ने कहा हैः

गोरख ! जागता नर सेविये….

16 वर्ष की नन्हीं सी उम्र में ही ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने  वाले, पूरे भारत में वैदिक ज्ञान तथा सनातन ज्ञान का डंका बजाने वाले उन महापुरुष श्रीमद् आद्यशंकराचार्य के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 113

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

परम सुहृद् परमात्मा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

आप कभी यह न सोचें किः अरे, भगवान ने दुनिया ऐसी क्यों बनायी ?

दुनिया आपके किसी शत्रु ने नहीं बनायी, किसी बेवकूफ ने नहीं बनायी, किसी शोषक ने नहीं बनायी, किसी पराधीन ने नहीं बनायी और किसी अज्ञानी ने भी नहीं बनायी वरन् आपके परम सुहृद् ने बनायी है, परम हितैषी ने बनायी है, परम ज्ञानी ने बनायी है और परम समर्थ ने बनायी है।

दुनिया को दोष मत दो, अपनी दोषवृत्ति को निकालने का प्रयास करो।

कइयों का प्रश्न होता हैः “बाबा जी ! भगवान सर्व समर्थ हैं, सब जानते हैं फिर ऐसा अँधेर क्यों हो रहा है ? लोग एक दूसरे का गला दबोच रहे हैं, एक दूसरे को शोषित कर रहे हैं, चोरी कर रहे हैं। कोई पड़ोस की लड़की या लड़के को बुरी नजर से देखे और उसी समय भगवान उसको अंधा बना दें तो कोई बुरी नजर से नहीं देखेगा। कोई चोरी करे और उसी समय हाथ को लकवा (पेरालिसिस) मार जाय तो कोई चोरी नहीं करेगा। कोई झूठ बोले और उसकी जीभ वहीं कट जाय तो कोई झूठ नहीं बोलेगा… इतने सारे जज, इतने सारे वकील, इतने सारे सिपाही…. फिर भी दुनिया में इतनी गड़बड़ी ? जब भगवान सर्वसमर्थ हैं और हर दिल में बैठे हैं तो ऐसा क्यों नहीं करते ?

यह सवाल ही बिना सिर-पैर का है। व्यर्थ का है। जैसे लोग बोलते हैं कि ‘भगवान का भजन क्यों करें ?’ यह व्यर्थ का सवाल है। ‘भजन क्यों न करें ?’ यह असली सवाल है।

अल्पमति, स्वार्थी मति और रजोगुणी मति में ही ऐसे स्वर्थ के सवाल उठते हैं। फिर भी उसका जवाब सुन लो। यदि आपका बेटा आपके घर में ही चोरी करे तो क्या तुम चाहोगे कि उसके हाथ को लकवा मार जाय ? आपका बेटा किसी पड़ोस की लड़की पर बुरी नज़र डाले तो क्या आप चाहोगे कि वह अंधा हो जाय ? आपका बेटा झूठ बोले तो क्या आप चाहोगे कि उसकी जीभ कट जाय ? नहीं, क्योंकि वह आपका बेटा है। आपका बेटा तो सिर्फ 15-20 साल से है फिर भी आप सोचते हो किः ‘अभी बच्चा है, अक्ल का कच्चा है, आज नहीं तो कल सुधरेगा, बदलेगा। चलो, कोई बात नहीं।’ आखिर माता-पिता और हितैषी के हृदय में भी ऐसा होता है किः ‘चलो, दुबारा गलती न करेगा। मौका दे दो ताकि सुधर जाय।

आप अपने कुटुम्बी के सुधरने के लिए इतना इंतजार करते हो और सुधरने का  संकल्प होते हुए भी वह बिगड़ता है फिर भी आप उसे क्षमा करते जाते हो। जब 15-20 साल के सम्बन्ध के प्रति भी तुम इतनी करुणा से भरे होते हो तो सदियों से आपका जिस परमपिता से पुत्र के नाते सम्बंध है उसको कितनी करुणा होगी ! उसका कितना धैर्य होगा ! वह परमपिता भी ऐसे ही सोचता हैः ‘चलो, इस मनुष्य-जीवन में नहीं सुधरा तो दूसरे चोले में, तीसरे चोले में सुधरेगा…।’

उस परम पिता के पास कोई कमी नहीं है। चौरासी-चौरासी लाख वस्त्र हैं। अलग-अलग वस्त्रों में, रूपों में लाते-लाते देर-सवेर वह तुम्हें परब्रह्म-परमात्म-स्वरूप का, अपने आत्म-स्वरूप का अनुभव कराना चाहता है।

वह प्राणिमात्र का परम सुहृद है। उसके बिना एक सैकेण्ड का सौवाँ हिस्सा तो क्या, माइक्रो सैकेण्ड के लाखवें हिस्सा जितना समय भी हम जीवित नहीं रह सकते। जैसे पानी के बिना तरंग नहीं होती, ऐसे ही परमेश्वर के बिना आप हम नहीं हो सकते।

वह परमेश्वर जीवमात्र का परम सुहृद् है, परम हितैषी है। हम मानते हैं कि हमारी माँ हमारी हितैषी है लेकिन उसका सामर्थ्य नपा-तुला है। बालक की आवश्यकता का पता बालक को उतना नहीं होता है जितना उसकी माँ को पता होता है। अपनी आवश्यकता पूरी करने का जितना सामर्थ्य बालक के पास है, उससे ज्यादा माँ के पास है। बालक अपना हित उतना नहीं जानता, जितना उसकी माँ जानती है क्योंकि बालक तो अज्ञानता में अपने मैले में हाथ घुमाता है, साँप को भी पकड़ने दौड़ता है किन्तु माँ जानती है कि साँप-बिच्छू को, अग्नि को छूने से क्या होता है। बच्चे की अपेक्षा माँ में बच्चे का हित करने का ज्ञान ज्यादा है परन्तु माँ की बुद्धि, माँ का सामर्थ्य और माँ की योग्यता से भगवान का ज्ञान, भगवान का सामर्थ्य अनंत गुना ज्यादा है।

ऐसी कोई माँ नहीं कि बच्चे का अहित चाहे। हित चाहते हुए भी कभी अज्ञानता से वह बच्चे को गलत खुराक दे सकती है। बच्चे को वायुप्रकोप हो और माँ ने कोई ऐसी चीज खिला दी जो वायु प्रकोप को बढ़ाये, पित्तप्रकोप है और माँ ने ऐसी गरम चीज खिला दी जो पित्त प्रकोप को और बढ़ाये – ऐसा हो सकता है क्योंकि माँ की समझ नपी-तुली होती है किन्तु भगवान में पूर्ण समझ है।

माँ तो हमारे स्थूल शरीर की रखवाली करती है परन्तु भगवान हमारी रखवाली करते हैं। हमें सफलता मिलती है और हमारी वाहवाही होती है तो भगवान सोचते हैं कि बेचारा कहीं मोह-माया में न फँस जाये ! अतः हमें सत्संग में ले जाते हैं। अगर में सत्संगी नहीं हैं तो फिर हमें मुसीबत में ले जाते हैं ताकि संसार से वैराग्य आये।

यदि हम सुख-सुविधा से भर गये हैं तो वे परम हितैषी हमें विघ्न-बाधा और निंदा देकर हमको संसार से तारते हैं और अगर हमें मुसीबत व कष्ट मिले हैं तथा हम उनसे हताश-निराश हो गये हैं तो वे परम सुहृद सफलता दिलाकर हममें हिम्मत भरते हैं। दुःख और विघ्न हटाने की सूझबूझ देते हैं तथा शस्त्र देकर ज्ञान भी देते है। भगवन्मय मूर्तियों की तरफ ऋषियों को प्रेरित करके, मूर्तिपूजा आदि करवाकर हमारी भावना जगाते हैं। भावना शुद्ध कराकर अमूर्त आत्मा की तरफ ले जाने वाले सद्गुरुओं के पास जाने की प्रेरणा देते हैं और सद्गुरुओं के द्वारा वे परमात्मा ऐसी-ऐसी दिव्य अनुभूतियों से सम्पन्न दिव्य बातें बोलते हैं कि हमारा उद्धार हो जाता है और सद्गुरुओं को पता भी नहीं कि कौन-सी बात से, किसका कितना कल्याण हो गया ! किन्तु वह गुरुओं का गुरु, परम गुरु, परम सुहृद् जानता है कि किस बात से किसका कितना कल्याण होता है।

सदगुरु लोग उन दिव्य बातों का खजाना कहाँ से लाते हैं ? भगवान से ही तो लाते हैं। भगवान से अलग होकर गुरु, गुरु नहीं रह सकते ईश्वर से अलग होकर गुरु का अस्तित्व नहीं हो सकता। वास्तव में ईश्वर ही गुरु के अंतःकरण में ये सारी व्यवस्था करते हैं और ईश्वर ही शिष्य के हृदय में सत्प्रेरणा देकर सदगुरु की तरफ ले जाते हैं। कितने करुणा-वरुणालय हैं  प्रभु !

उन्हीं परमेश्वर ने किसी के हृदय में मण्डप बनाने की प्रेरणा दी, किसी के अंतःकरण में चीजें जुटाने की प्रेरणा दी, किसी के अंतःकरण में आने की प्रेरणा दी और मेरे अंतःकरण में सत्संग करने की प्रेरणा दी। आयोजक-संयोजक तो वह परमात्मा ही है।

क्या आप सब अपनी अक्ल-होशियारी से इधर बैठे हो ? क्या मैं मेरी अक्ल होशियारी से ये सब बनाकर बैठा हूँ ? अक्ल होशियारी की गहराई में भी उसकी प्रेरणा है। हम अपनी स्वतंत्र अक्ल-होशियारी कहाँ से लायेंगे ? समस्त ज्ञान का भण्डार वह परम सुहृद परमात्मा है तो हम ज्ञान अपना कहाँ से लायेंगे, बाबा ?

पिता से अलग होकर बेटा कारखाना, मकान, दुकान आदि ले सकता है परन्तु वह परमेश्वर सर्वत्र है, उससे अलग होकर हम कहाँ और क्या बना सकते हैं ? जैसे, पानी से अलग होकर तरंग अपना अलग अस्तित्व बना सकती। तरंग पानी से रूठ जाय तो पानी से अलग होकर तरंग बचेगी क्या ? सोने से अलग होकर गहना बनेगा कैसे ? शक्कर के खिलौने शक्कर से अलग कैसे रहेंगे ? ऐसे ही आप-हम ईश्वर से अलग नहीं रह सकते और ईश्वर आपसे-हमसे अलग नहीं हो सकता – यह उसकी विवशता है।

भगवान की बड़े-में-बड़ी कमजोरी है कि वे आपको नहीं छोड़ सकते। चाहे आप कैसे भी हों – कितने भी पापी-तापी हो जायें, फिर भी ईश्वर आपको छोड़ नहीं सकते क्योंकि वे व्यापक हैं। यही उनकी महानता भी है। ‘कमजोरी’ तो विनोद का शब्द है। वह परम सुहृद है, अपना है, प्यारा है इसीलिए जरा छेड़खानी कर देते हैं।

उस परम सुहृद परमात्मा की महिमा का क्या बयान करें, कितना करें ? इसीलिए तो श्रुति भगवती कहती है-

यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह।

आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान। न बिभेति कदाचनेति।

‘जहाँ से मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रह्मानंद को जानने वाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता।’ (तैत्तीरयोपनिषद्- 4.1)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 12-14, अंक 113

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ