आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी कौन ?

आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी कौन ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के 18वें अध्याय के 53वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूताय कल्पते।।

‘अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है।’

आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी होने के लिए साधक को उपरोक्त सदगुण अपने में लाने चाहिए और सदगुण लाने के लिए थोड़ा एकांत में जाना चाहिए।

अहंकार, दर्प आदि हमें परमात्मा से दूर कर देते हैं, आत्मशांति से दूर कर देते हैं। एकांत में अहंकार, काम-क्रोधादिक भी कम सताते हैं क्योंकि अहंकार आदि दूसरे के समान होते हैं। अकेलेपन में अहंकार आदि ज्यादा नहीं सताते।

हम जब अंतर्मुख होते हैं, मौन होते हैं, एकांत में होते हैं तब मानसिक शक्तियों का विकास होता है और आत्मशांति की झलकें आती हैं। जीवन में कामनाओं का त्याग, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध तथा परिग्रह का त्याग और सरलता, सहजता, मौन, एकांतवास व आत्मविश्लेषण साधक को ऊपर उठाते हैं।

आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी होने के लिए ये सदगुण अपने में जोड़ने होंगे और इन सदगुणों को जोड़ने के लिए जहाँ दुर्गुणों का बाजार लगा है, वहाँ से अपने को अलग ले जाना पड़ेगा, थोड़ा एकांत में ले जाना पड़ेगा।

एकांत में जाने के लिए कलियुग के लोगों के शरीर की ऐसी क्षमता नहीं है कि वे सब छोड़कर हिमालय चले जायें…. वातावरण ऐसा है, आंदोलन ऐसे हैं कि कुछ-न-कुछ विकार घेर लेते हैं, कोई-न-कोई कामना घेर लेती है और कामना के अनुसार नहीं होता है तो क्रोध घेर लेता है।

किसी में धन का बल, यश का बल या विद्या आदि का बल आ जाता है तो भी अहंकार हो जाता है। तुम्हारे पास बल तो है लेकिन वह बल यदि निर्बलों की रक्षा करने के काम नहीं आता तो किस काम का ? तुम्हारे पास संपत्तिरूपी धन हो, विद्या का धन हो, ज्ञान का धन हो, सेवा का धन हो किंतु वह धन यदि किसी के काम नहीं आता तो धन होते हुए भी तुम निर्धन हो। तुम्हारे पास भक्ति, योग तथा ज्ञान है और वह किसी के काम नहीं आता है तो वह नहीं के बराबर है। तुम्हारे जीवन में जो भी श्रेय है, जो भी अच्छा है, वह बाँटने के लिए है, रखने के लिए नहीं और मजे की बात यह है कि बाँटने से वह खर्च नहीं होता बल्कि बढ़ता है। जैसे कुएँ में से जितना पानी निकालो उतना पुनः भरता जाता है, ऐसे ही तुम परोपकार में जितना अपना श्रेय लगाते हो उतना ही श्रेय बढ़ता जाता है। संत श्री तुलसीदास जी कहते हैं-

राम नाम के कारणे सब धन दीन्हो खोय।

मूरख जाने घटि गयो दिन दिन दूनो होय।।

जैसे गंगा बहती जा रही है… गंगा ऐसा नहीं सोचती है कि मैं गाय को शीतल जल दूँ और शेर पीने के लिए आये तो उसको विष पिला दूँ। गंगा का तो अपना स्वभाव है कि जो भी आ जाय उसे शीतल जल देना…. कोई नहाता है तो नहा ले और कोई थूकता है तो थूक ले…. इससे गंगा को कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह तो कलकल-छलछल करती हुई बहती रहती है और उसमें शुद्ध, ताजा और बिल्लौरी काँच जैसा स्वच्छ जल आता रहता है।

सुनी है एक कहानीः एक बार नदी और तालाब के बीच बातचीत हुई। तालाब ने नदी से कहाः

“अरे पगली ! तू कहाँ भागी जा रही है ? तेरे पास इतना मधुर जल है, उसे सँभालकर रख। तू कुछ बन जा। समुद्र को पानी देती है तो वह तुरंत उसे खारा कर देता है। तू व्यर्थ ठोकरें खाती है, टक्करें झेलती है। तू चुपचाप अपना जल एकत्रित कर।”

नदी ने कहाः “यह नहीं हो सकता है। मेरा स्वभाव तो बहना है।”

कुछ दिन हुए। तालाब में पानी पड़ा रहा तो उसमें मच्छर होने लगे। मलेरिया फैलने लगा। पानी कम होने लगा तो मछलियाँ भी तड़प-तड़प कर मर गयीं। नगरपालिका ने पूरे नगर का कचरा उसमें डालकर तालाब भर दिया जबकि नदी का तो बहती ही रही और बारिश उसके जल की पूर्ति करती रही।

ऐसे ही कोई चाहे कैसा भी हो, तू बरसता जा। तू गंगा को लक्ष्य में रख। जो देता है वह पाता है। जो रखता है वह खोता है। अहंकार रखना चाहता है और प्रेम देना चाहता है।

उस विराट में, उन अनंत में अथाह शक्ति है, अथाह सामर्थ्य है। तुम्हारे पास जो कुछ भी है लाख, करोड़, अरब… वह तो कुछ भी नहीं है। उससे भी ज्यादा जिनके पास था वे लोग सब छोड़कर चले गये। तुम्हारे पास जो अक्ल है वह तो कुछ भी नहीं है। उससे भी बढ़िया अक्ल जिनके पास थी वे भी चले गये और वास्तव में देखा जाय तो जो कुछ भी तुम्हारे पास है वह तुम्हारा नहीं, अनंत का है।

यह तो अहंकार कहता है कि ‘मकान मेरा है, अक्ल मेरी है….’ अरे, भैया ! जरा-सा बुखार आ जाता है तो तेरी अक्ल की शक्ल बदल जाती है। अक्ल तेरी नहीं है, पैसे तेरे नहीं हैं, सौंदर्य तेरा नहीं है…..

रूप दिसी मगरूर न थी, ऐदो हुस्न ते नाज़ न कर….

‘अपने सौंदर्य को देखकर इतना गुमान न कर।’ यह तो एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा। अपने धन पर भी इतना गुमान न कर क्योंकि या तो धन चला जायेगा यह धनवाला चला जायेगा।

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

परिग्रहम्…. परिग्रह मत करो। केवल धन का परिग्रह नहीं, जो कुछ सुना है उसको भी भूल जाओ।

किसी ने पूछाः “बापू जी ! कथा भी भूल जायें ?”

हाँ, हाँ, जगत भूलने की अटकल आये तो कथा के शब्द भी भूल जाओ।

उसने फिर पूछाः “स्वामी जी ! जब भूलना ही है तो सुने ही क्यों ?”

एक बार अमथा सेठ परिवार सहित यात्रा के लिए गये। साथ में रसोइया भी था। गंतव्य स्थान पर पहुँचकर उन्होंने रसोइये से कहाः

“देख, रोटी-सब्जी तो बनाना लेकिन चारों ओर सूखे बाँस का जंगल है। सँभलकर आग जलाना और सँभलकर आग बुझा देना।

सेठ दर्शनीय स्थल देखने हेतु परिवार सहित निकल गये परन्तु रसोइया हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ गया। दोपहर हुई। सेठ आये तथा रसोइये से बोलेः “लाओ, खाना।”

रसोइयाः “खाना तो बनाया ही नहीं है।”

सेठः “क्यों नहीं बनाया ?”

रसोइयाः “सेठ जी ! आप ही तो कहकर गये थे कि आग जलाना, फिर सँभलकर बुझा देना। जब आग बुझानी ही है तो फिर जलानी ही क्यों ? इसलिए मैंने आग जलायी ही नहीं।”

जितना जलाना जरूरी है उतना बुझाना भी जरूरी है। ऐसे ही जितना भूलना जरूरी है उतना सुनना भी जरूरी है। सुने बिना तो तुम भूल भी नहीं सकोगे।

जगत को भूलने के लिए कथाएँ सुनो, कथाओं को भूलने के लिए सत्संग सुनो और सत्संग को भूलने के लिए तुम अपने-आपसे मिलो। तुम जब अपने-आप से मिलोगे तब सत्संग भी भूल जाओगे। तुम जो बोलोगे वह सत्संग हो जायेगा। तुम जो देखोगे, छुओगे वह प्रसाद हो जायेगा। तुम जहाँ रहोगे वह भूमि तीर्थ हो जायेगी। तुम इतने बढ़िया हो। तुम ऐसे महान हो।

तुम थोड़ा सा धन पाकर अपने को धनवान न मानो। तुम बिना धन के भी महान हो। बिना सत्ता के भी तुम महान हो। बिना परिवार के भी तुम महान हो। परिवार होने से तुम बड़े नहीं हो, धन होने से तुम बड़े नहीं हो, सत्ता होने से तुम बड़े नहीं हो….. तुम्हारे पास कुछ भी नहीं हो फिर भी तुम बहुत बड़े हो। तुम अपने बड़प्पन को नहीं जानते इसलिए छोटी-छोटी बातों में उलझ जाते हो, खिन्न हो जाते हो।

किसी के घर में चोरी हो जाये तो भी कुछ बच जाता है किन्तु यदि आग लग जाय या बाढ़ में घर ढह जाय तो सब कुछ नष्ट हो जाता है। ऐसे ही काम, लोभ, मोह आदि तुम्हारे पुण्यों की, तुम्हारी शांति की थोड़ी-थोड़ी चोरी करते हैं लेकिन जब क्रोध आता है तो तुम्हारे सारे पुण्यों को स्वाहा कर देता है। एक महीने का किया हुआ जप, तप, सेवा, स्मरण का पुण्य एक बार क्रोध का झटका आने से नष्ट हो जाता है।

कई लोग बीस-बीस साल से सतत जप करते हैं, सब प्रकार की विधिसहित साधना करते हैं फिर भी उनके जीवन में जो उन्नति दिखनी चाहिए, वह नहीं दिखती तो उसका एक ही कारण है कि वे क्रोध करके अपनी साधना नष्ट कर देते हैं।

कबीरदास जी ने कहा हैः

काम न क्रोध न लोभ कछु एकल भला अनीह।

साधक ऐसा चाहिए जैसे बन का सिंह।।

तुम अकेले रहने का अभ्यास करो। तुम किसी के नहीं हो तो कोई बात नहीं, कम-से-कम तुम अपने आपके तो हो जाओ। दिन में एकाध घंटा अपने-आप में बैठो। दूसरे मरने वालों के साथ तो जीवनभर बैठे हो। जो तुम्हारा साथ छोड़ देंगे उन साथियों के साथ तो तुमने पूरी जिंदगी गँवा दी, काफी उम्र तुमने दाँव पर लगा दी। अब एक घड़ी अपने-आपके साथ, अपने परमेश्वर के साथ बैठने हेतु तो दाँव पर  लगा कर देखो।

तुम अकेले एकांत में बैठने का अभ्यास करके तो देखो। भले ही तुम एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध तक ही बैठो। दृढ़ नियम-निष्ठा से बैठो अपने सोऽहं स्वभाव की स्मृति में…. अपने-आप में…..  निस्संग…..

साधु कहाँ बैठा है ?

साधु आत्मा में बैठा है। तुम आत्मा में बैठोगे तभी समझना कि साधु के साथ बैठे हो। नहीं तो साधु के आश्रम में बैठकर रोटी खाकर भी तुम लड़ाई कर सकते हो।

हठ से रोटी न खाने से क्रोध जाता नहीं है बल्कि क्रोध बढ़ता है, उद्वेग बढ़ता है, अशांति बढ़ती है। रोटी खाने से शांति नहीं मिलती, फल खाने से शांति नहीं मिलती लेकिन गम खाने से शांति मिलती है। गम तो खाना नहीं है बाकी का सब खाना है तो काम बनेगा नहीं। दूसरों को कोसना भी छोड़ो और अपने को कोसना भी छोड़ो।

ब्रह्मज्ञान की बात कोई सुना दे यह अलग बात है किन्तु ब्रह्मज्ञान का अधिकारी आदमी तब होता है, जब उसमें ये सदगुण आते हैं-

‘अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानंदघन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है।’

जैसे तिनकों का गंगा बहाकर ले जाती है, ऐसे ही तुम्हें जीवन की परिस्थितियाँ बहाकर ले जायेंगी…. कभी यश बहाकर ले जायेगा, कभी अपयश बहाकर ले जायेगा, कभी क्रोध बहाकर ले जायेगा। कभी मोह बहाकर ले जायेगा, कभी लोभ बहाकर ले जायेगा। इन विकारों का चंगुल तब तक बना ही रहेगा, जब तक तुम गुरु के वचनों को सुनने के अधिकारी नहीं बनोगे और सुनने का अधिकारी वही है जो सुनकर फिर उन वचनों को आदरसहित जीवन में लाने की कोशिश करे।

एक संकल्प जब दूसरे संकल्प से विपरीत होता है तब दुःख होता है। संकल्प के अनुसार जब हमारा जीवन चलता है अथवा हम संकल्पों की दुनिया को समझते हैं तब दुःख नहीं होता। एक बात और है कि जब हम जगत को मिथ्या मान लेते हैं तब संकल्प के अनुसार घटे तो भी क्या और नहीं घटे तो भी क्या ? सब सपना है।

जब तुम नौकरी पर जाते हो तो सैर का मजा चला जाता है। कोई घूमने के लिए हवाई जहाज में पहली बार जाता है तो जाने के महीनेभर पहले से मन में उत्साह रहता है और घूमकर आता है तब भी छाती फुलाकर सबसे बात करता है। कहने के पीछे हवाई जहाज का सुख नहीं, अपना उत्साह होता है। हवाई जहाज की परिचारिकाओं को ऐसा नहीं होता कि ‘हम अमेरिका घूमकर आये।’

मजा या सज़ा, सुख या दुःख परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है। अपने चित्त की कल्पना जिस समय जैसी होती है उस समय वैसा ही भासता है। इसलिए ऋषियों ने बाहर की वस्तुओं को बदलने की ज्यादा खटपट नहीं की।

चित्त की वृत्तियों को दृष्टाभाव से देखो और चित्त की वृत्तियों को ऐसे बदलो जिससे वे तुम पर राज्य न करें, तुम पर प्रभाव न डालें तो यह साधना हो गयी। तुम केवल वृत्तियों को देखते जाओ, फिर वृत्तियाँ तुम्हारे नियंत्रण में आ जायेंगी।

दूसरों को अपने बल से शोषित करने से अपने अहंकार का पोषण होता है, वह बल साधक का नहीं है। वह तो मूर्खों का बल है, वह शोषकों का बल है,  पामरों का बल है। ऐसे लोग जीवनभर जीतने का दाँव लगाते हैं और अंत में हारकर चले जाते हैं।

पामरों-भोगियों के बल से साधक का बल निराला होता है। साधक अहंकार के सर्जन का बल छोड़ देता है तभी वह ब्रह्मज्ञान का अधिकारी होती है। साधक को चाहिए कि बल छोड़ दे, दर्प छोड़ दे, काम छोड़ दे। काम का अर्थ केवल ‘सेक्स’ ही नहीं है। काम का अर्थ है कामनाएँ…. इस लोक से लेकर ब्रह्मलोक तक की चीजें अंत में बिछुड़ जायेंगी। अतः मिल भी गयीं तो क्या ? इस प्रकार का विवेक अंदर में वैराग्य प्राप्त कराता है। साधक के अंदर वैराग्य होने पर कामनाएँ ज्यादा पनपती नहीं हैं। जब कामनाएँ पनपती नहीं हैं तब चित्त के संकल्प कम हो जाते हैं और संकल्प कम होते ही आत्मशांति मिलती है।

चित्त और अहंकार दो चीजें नहीं हैं। जैसे बरफ और उसकी ठंड एक ही है, ऐसे ही चित्त और अहंकार एक ही चीज है, स्पंदन और अहंकार एक ही चीज है। अब आप स्पंदन में जो-जो आरोप करो…. धन का आरोप करो तो धन का अहंकार, सौंदर्य का आरोप करो तो सौंदर्य का अहंकार, विद्वता का आरोप करो तो विद्वता का अहंकार होगा। होता आरोप स्पंदन में ही है और अगर उस आरोप का अपवाद करने की कला आ जाय तो व्यक्ति को सत्य को उपलब्ध होने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। जीव को यदि संसार के आकर्षणों से विमोहित नहीं किया जाय, यदि संसार के आकर्षण के संस्कार न डालें जायें तो उसको आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं पड़ेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 2-6, अंक 113

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