श्रीमद् आद्यशंकराचार्य

श्रीमद् आद्यशंकराचार्य


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

(श्रीमद् आद्यशंकराचार्य जयंतीः 17 मई 2002)

जब-जब वसुधा पर धर्म का होने लगता ह्रास है।

तब-तब अवतरित हो संत-सुमन फैलाते धर्म-सुवास हैं।।

जब भारत में बौद्ध धर्म के अनुयायी वेदधर्म (सनातन धर्म) की निंदा कर समाज को पथभ्रष्ट करने में लगे थे तथा तांत्रिक और कापालिक समुदाय भी धर्म के नाम पर जनता को गुमराह कर रहे थे, ऐसे समय में पूरे भारत में पुनः सनातन धर्म की स्थापना करने के लिए जिन महापुरुष का आविर्भाव हुआ था, वे थे श्रीमद् आद्यशंकराचार्य।

शंकराचार्य जी ने 16 वर्ष की उम्र में ही समस्त वेद-वेदांगों का अध्ययन कर अन्य ग्रन्थों के अलावा ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भी भाष्य की रचना कर दी थी और भारत के विभिन्न भागों में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ में विभिन्न मतवादियों को परास्त करके पूरे भारत में सनातन धर्म का ध्वज फहरा दिया था।

श्री शंकराचार्य के यश, तेज और प्रभाव से तत्कालीन तांत्रिकों और कापालिकों का प्रभाव घटने लगा था। अतः वे शंकराचार्य से द्वेष करने लगे तथा उनकी हत्या करने का अवसर खोज रहे थे।

एक बार उग्रभैरव नामक कापालिक ने आद्य शंकराचार्य को एकांत में बैठे हुए देखा। वह कपटपूर्वक उनकी हत्या के उद्देश्य से आचार्य के पास गया और उनकी स्तुति करते हुए बोलाः

“इसी देह से कैलास जाने के लिए और वहाँ महादेव के साथ रमण करने के लिए मैंने कई वर्षों तक अत्यंत उग्र तपस्या की। मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव न कहाः

“यदि तुम मेरी प्रसन्नता के लिए किसी आत्मज्ञानी महापुरुष या किसी राजा के सिर का हवन करोगे तो अपने इच्छित पुरुषार्थ को अवश्य प्राप्त करोगे।”

उसी दिन से मैं सर्वज्ञ महापुरुष अथवा राजा के सिर की खोज में लगा हूँ। आज सौभाग्य से आपके दर्शन हो गये। अब लगता है कि मेरा मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा।

आपने परोपकार के लिए शरीर धारण किया है, आप विरक्त हैं, देहाभिमान से शून्य हैं। अतः आप मेरा मनोरथ पूरा करें।”

शंकराचार्य ने कहाः

पतत्यवश्यं हि विकृष्यमाणं कालेन यत्नादपि रक्ष्यमाणम्।

वर्ष्मामुना सिध्यति चेत् परार्थः स एव मर्त्यस्य परः पुमर्थः।।

“यह शरीर यत्न से रक्षा किये जाने के बावजूद भी काल के द्वारा खींचे जाने पर एक दिन अवश्य नष्ट हो जाता है। यदि इस शरीर से किसी दूसरे का अर्थ सिद्ध हो जाय तो यह मनुष्य का बड़ा भारी पुरुषार्थ है। (श्रीशंकर दिग्विजय, सर्गः 11.26)

….किन्तु मेरे शिष्यों के सामने तुम मेरा सिर नहीं ले सकोगे। तुम कोई ऐसा समय और स्थान निश्चित करो कि जहाँ मेरे शिष्य न देख सकें।”

उग्रभैरवः “महाराज ! अमावस्या की रात को आप श्रीशैल पर्वत पर पधारिये। मैं आपको वहाँ ले जाऊँगा।”

शंकराचार्य जी नियत समय पर श्रीशैल पर्वत पर पहुँच गये। वह पर्वत उस समय कापालिकों का गढ़ था। वहाँ पहले से ही त्रिशूल-तलवार आदि तैयार रखे हुए थे।

कापालिक बोलाः “महाराज ! आप इस शिला पर बैठ जाइये। इस यज्ञकुण्ड में आपके सिर का होम कर दिया जायेगा और मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा।”

शंकराचार्यः “तनिक ठहरो। मैं जरा ध्यानस्थ हो जाऊँ। यह शरीर मैं नहीं हूँ, मन मैं नहीं हूँ, इन्द्रियाँ मैं नहीं हूँ, बुद्धि मैं नहीं हूँ। जन्म और मरण मैं नहीं हूँ। चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं…. की अनुभूति में मैं जरा समाधिस्थ हो जाऊँ। फिर तुम अपना काम कर लेना।”

शंकराचार्य समाधिस्थ हो गये अपने परमेश्वरीय स्वभाव में। वे परमेश्वर-स्वभाव में बैठ गये तो प्रकृति में उथल-पुथल मच गयी। शंकराचार्य जी के शिष्य पद्मपाद को स्वप्न आया जिसमें यह सारा दृश्य दिखायी पड़ा। दृश्य देखकर पद्मपाद ने अपने इष्टदेव नृसिंह भगवान से प्रार्थना कीः “मेरे गुरुदेव की रक्षा करें, प्रभो !”

भगवान नृसिंह का सूक्ष्म तत्व पद्मपाद में प्रविष्ट हो गया था वे गर्जना करते हुए उसी पर्वत की ओर भागे जहाँ कापालिक लोग तैयार थे। जिस तलवार से कापालिक शंकराचार्य जी का मस्तक काटना चाहता था, उसी तलवार से नृसिंह भगवान ने कापालिक का ही सिर काटकर यज्ञकुण्ड में होम कर दिया। फिर वे गर्जने लगे। उनकी गर्जना सुनकर शंकराचार्य जी की समाधि खुल गयी। आचार्य ने देखा कि पद्मपाद में तो नृसिंह भगवान का आवेश आया है। उन्होंने  प्रार्थना की तो नृसिंह भगवान शिष्य में से अंतर्धान हो गये और आचार्य कुशलक्षेम पूर्वक अपने निवास पर पहुँच गये।

जो अपने परमेश्वरीय स्वभाव में स्थित हैं ऐसे शंकराचार्य जी ने देखा कि कर्नाटक देश में तांत्रिक विद्या का बड़ा फैलाव हो गया है और दिव्य ब्रह्मज्ञान को छोड़कर लोग उसी में अपना जीवन तबाह कर रहे हैं। अतः आचार्य कर्नाटक देश जाने की तैयारी करने लगे। उस वक्त राजा सुधन्वा अपने सैनिकों सहित आचार्य के साथ ही थे।

कर्नाटक देश में आचार्य के पहुँचने पर कापालिकों का सरदार क्रकच उनसे मिलने आया तथा आचार्य को परास्त करना चाहा किन्तु वह घड़ी भर में ही शंकराचार्य जी से परास्त हो गया।

अपने अपमान से लज्जित होकर क्रकच ने कापालिकों के झुण्ड को लड़ने के लिए भेजा किन्तु राजा सुधन्वा तथा उनकी सेना के द्वारा सब कापालिक मारे गये। युद्ध में अपने अनुयायियों को नष्ट हुआ देखकर क्रकच का क्रोध और भड़का। उसने अपनी तांत्रिक विद्या से भैरव को प्रकट किया तथा भैरव से प्रार्थना कीः

“आपके भक्त से द्रोह करने वाले इस शंकर को दृष्टिमात्र से मार डालिये।”

यह सुनकर भैरव बोलेः “ये शंकर तो मेरे ही स्वरूप हैं। इनकी सत्ता से ही हम पूजे जाते हैं। क्या तुम मेरे ही स्वरूप से द्रोह करते हो ?” इतना कहकर भैरव ने क्रकच कापालिक का सिर काट डाला।

कितना विरोध हुआ आचार्य शंकर का ! यहाँ तक कि जब उन महापुरुष की माँ का देहान्त हुआ तब माँ को कंधा देने के लिए समाज का एक भी व्यक्ति उन्हें नहीं मिला !

अनेकों विरोधों के बावजूद भी आचार्य मानव-कल्याण के कार्यों में डटे रहे। सनातन धर्म की रक्षा में उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे महापुरुषों की करुणा-कृपा को याद करने वाले कहाँ ! जब ऐसे महापुरुष धरा पर विद्यमान होते हैं तब लोग उनका विरोध करते हैं और बाद में उन्हीं को भगवान मानकर पूजते हैं। कैसा दुर्भाग्य है समाज का !

काश ! ऐसे महापुरुषों की उपस्थिति काल में समाज उनसे पूर्ण लाभ उठाये तो कितना अच्छा हो ! गोरखनाथ ने कहा हैः

गोरख ! जागता नर सेविये….

16 वर्ष की नन्हीं सी उम्र में ही ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने  वाले, पूरे भारत में वैदिक ज्ञान तथा सनातन ज्ञान का डंका बजाने वाले उन महापुरुष श्रीमद् आद्यशंकराचार्य के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 113

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