Monthly Archives: May 2002

पंचसकारी साधना


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

आप संसारी वस्तुएँ पाने की इच्छा करें तो इच्छामात्र से संसार की चीजें आपको नहीं मिल सकतीं। उनकी प्राप्ति के लिए आपका प्रारब्ध और पुरुषार्थ चाहिए। किन्तु आप ईश्वर को पाना चाहते हैं तो केवल ईश्वर को पाने की तीव्र इच्छा रखें। इससे अंतर्यामी ईश्वर आपके भाव को समझ जाता है कि आप उनसे मिलना चाहते हो।

जैसे-चींटी गरुड़ से मिलने की इच्छा रखे और गरुड़ को भी पता चल जाये तो चींटी अपनी चाल से गरुड़ की ओर चलेगी लेकिन गरुड़ चींटी से मिलने के लिए अपनी गति से भागेगा। ऐसे ही जीवात्मा अपनी गति से ईश्वर को पाने का प्रयत्न करेगा तो ईश्वर भी अपनी उदारता से उसे उपयुक्त वातावरण दे देगा, जल्दी साधना के जहाज में बिठा देगा। यही कारण है कि आप अभी यहाँ बैठे हैं।

आपकी केवल तीव्र इच्छा थी ईश्वर के रास्ते जाने की… मंडप बनाने वालों ने मंडप बनाया, माईक लगाने वालों ने माईक लगाया, सजावट करने वालों ने सजावट की, कथा करने  वालों ने कथा की, आपकी तो केवल इच्छा थी कि सत्संग मिल जाय और आपको सब कुछ तैयार मिल रहा है….

परन्तु शादी की इच्छामात्र से सब तैयार नहीं मिलेगा…. सब तैयार करना पड़ेगा और बारातियों के आगे नाक रगड़ने पड़ेगी। उसके बाद भी कोई राज़ी तो कोई नाराज तथा शादी के बाद भी लांछन सहने के लिए तैयार रहना पड़ेगा और कभी कुछ तो कभी कुछ, खटपट चलती ही रहेगी… कभी साला बीमार तो कभी साली बीमार, कभी साले का साला बीमार तो वहाँ भी सलामी भरने जाना पड़ेगा। यहाँ तो ईश्वरप्राप्ति की इच्छामात्र से सब तैयार मिल रहा है !

ईश्वर को पाने की इच्छामात्र से हृदय में पवित्र भाव आने लगते हैं तथा संसार के भोग पाने की इच्छामात्र से हृदय में खटपट चालू हो जाती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए चलते हो और जब ईश्वर मिलता है तब पूरे-का-पूरा मिलता है किन्तु संसार आज तक किसी को पूरे-का-पूरा नहीं मिला। संसार का एक छोटा सा टुकड़ा भारत है, वह भी किसी को पूरे का पूरा नहीं मिला। उसमें भी लगभग एक अरब लोग हैं।

संसार मिलेगा भी तो आंशिक ही मिलेगा और कब छूट जाय इसका कोई पता नहीं लेकिन परमात्मा मिलेगा तो पूरे-का-पूरा मिलेगा और उसे छीनने की ताकत किसी में नहीं है !

परमात्मा मिलता कैसे है ? साधना से…. पंचसकारी साधना से जन्म-मरण का, भवरोग का मूल दूर हो जाता है। ईश्वरत्व का अनुभव करने में, अंतर्यामी राम का दीदार करने में यह पंचसकारी साधना सहयोग करती है। कोई किसी भी जाति, संप्रदाय अथवा मजहब का क्यों न हो, सबके जीवन में यह साधना चार चाँद लगा देती है।

इस साधना के पाँच अंग हैं तथा पाँचों अंगों के नाम ‘स’ कार से आरम्भ होते हैं, इसलिए इसे पंचसकारी संज्ञा दी गयी है।

सहिष्णुताः अपने जीवन में सहिष्णुता (सहनशीलता) लायें। जरा-जरा सी बात में डरें नहीं, जरा-जरा सी बात में उद्विग्न न हों, जरा-जरा सी बात में बहक न जायें, जरा-जरा सी बात में सिकुड़ न जायें। थोड़ी सहनशक्ति रखें। तटस्थ रहें। विचार करें कि यह भी बीत जायेगा।

यह विश्व जो है दीखता, आभास अपना जान रे।

आभास कुछ देता नहीं, सब विश्व मिथ्या मान रे।।

होता वहाँ ही दुःख है, कुछ मानना होता जहाँ।

कुछ मानकर हो न दुःखी, कुछ भी नहीं तेरा यहाँ।।

चाहे कितना भी कठिन वक्त हो चाहे कितना भी बढ़िया वक्त हो – दोनों बीतने वाले हैं और आपका चैतन्य रहने वाला है। ये परिस्थितियाँ आपके साथ नहीं रहेंगी किन्तु आपका परमेश्वर तो मौत के बाद भी आपके साथ रहेगा। इस प्रकार की समझ बनाये रखें।

पिछले जन्म के प्रमाणपत्र आपके साथ नहीं हैं, पिछले जन्म के दोस्त आपके साथ नहीं हैं, पिछले जन्म के माता-पिता भी आपके साथ नहीं हैं और इस जन्म के भी बचपन के मित्र अभी नहीं हैं, बचपन की तोतली भाषा अभी नहीं है लेकिन बचपन में जो दिलबर आपके दिल की धड़कन चला रहा था, वह अभी भी है और बाद में भी रहेगा। इसीलिए सिख धर्म के आदिगुरु नानकदेव ने कहाः

आद सत् जुगाद सत् है भी सत् नानक होसे भी सत्।।

आप सत्य का, ईश्वर का आश्रय लीजिए और परिस्थितियों के प्रभाव से बचिये। जो लोग परिस्थितियों को सत्य मानते हैं वे इनसे घबराकर कभी आत्महत्या की बात भी बोल देते हैं – यह बहुत बड़ा अपराध है। अन्वेषणकर्त्ताओं के आँकड़े बताते हैं कि विश्व में हर रोज 12000 मनुष्य आत्महत्या का संकल्प करते हैं, प्रयास करते हैं तथा उनमें से कुछ सफल हो जाते हैं। 9 में से 8 मनुष्य आत्महत्या करते-करते चिल्ला पड़ते हैं और बच जाते हैं, नौवां सफल हो जाता है। सफल तो क्या होता है, आत्महत्या करके प्रेत हो जाता है। आत्महत्या जैसा घोर पातक दूसरा नहीं है।

एक मनोविज्ञान के प्रोफेसर कुछ विद्यार्थियों को ऊँची छत पर ले गये और उनसे कहाः “नीचे झाँकों।’ फिर पूछाः “नीचे झाँकने से डर क्यों लगता है ?”

अंत में प्रोफेसर ने कहाः “ऊँची छत से नीचे झाँकते हैं तो डर लगता है। इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में कभी-न-कभी एकाध बार मर जाने का सोच लेता है। मर जाने का जो विचार है वही उसे ऊँची छत पर से नीचे देखने पर डराता है कि कहीं मर न जाऊँ।”

किसी भी परिस्थिति में मरने का विचार नहीं करना चाहिए तथा अपने चित्त को दुःखी होने से बचाना चाहिए। अगर जीवन में सहिष्णुता का गुण होगा तभी आप बच पायेंगे।

टी.वी. में विज्ञापन देखो तो जरा सह लो। पेप्सी देखी, लाये और पी ली आप बिखर जाओगे। उन दृश्यों को गुजर जाने दो। आप किस-किस  विज्ञापन का कौन-कौन सा माल खरीदोगे ? विज्ञापन देने वाले लाखों रुपये विज्ञापन में खर्च करते हैं उससे कई गुना आपसे नोचते हैं, इसीलिए जरा सावधान रहो।

इसी प्रकार दूसरे की उन्नति के तेज को भी सह लीजिये और अपने अपमान को भी सह लीजिए। पड़ोसी के सुख को भी पचा लीजिये और अपने दुःख को भी सह लीजिये। अपने दुःखों में परेशान मत होइये। आज वहाँ फूल खिला है तो कल यहाँ भी खिलेगा। आज
उस पेड़ ने फल दिये हैं तो कल इस पेड़ में भी फल लगेंगे। ऐसा करने से ईर्ष्या के दुर्गुण से भी बचने में मदद मिलेगी और सहिष्णुता का गुण हमारे चित्त को पावन करने में भी मदद करेगा।

सेवाः आपके जीवन में सेवा का सदगुण हो। ईश्वर की सृष्टि को सँवारने के भाव से आप पुत्र-पौत्र, पति-पत्नी आदि की सेवा कर लो। ‘पत्नी मुझे सुख दे।’ अगर इस भाव से सेवा की तो  पति पत्नी में झगड़ा रहेगा। ‘पति मुझे सुख दें।’ इस भाव से की तो स्वार्थ हो जायेगा और स्वार्थ लंबे समय तक शांति नहीं दे सकता। ‘पति की गति पति जानें मैं तो सेवा करके अपना फर्ज निभा लूँ….. पत्नी की गति पत्नी जाने मैं तो अपना उत्तरदियत्व निभा लूँ…..।’ ऐसे विचारों से सेवा कर लें।

पत्नी लाली-लिपस्टिक लगाये कोई जरूरी नहीं है, डिस्को करे कोई जरूरी नहीं है। जो लोग अपनी पत्नी को कठपुतली बनाकर, डिस्को करवाकर दूसरे के हवाले करते हैं और पत्नियाँ बदलते हैं वे नारी जाति का घोर अपमान करते हैं। वे नारी को भोग्या बना देते हैं। भारत की नारी भोग्या, कठपुतली नहीं है, वह तो भगवान की सुपुत्री है। नारी तो नारायणी है।

सम्मानदानः तीसरा सदगुण है सम्मानदान। छोटे-से-छोटा प्राणी और बड़े-से-बड़ा व्यक्ति भी सम्मान चाहता है। सम्मान देने में रुपया-पैसा नहीं लगता है और सम्मान देते समय आपका हृदय भी पवित्र होता है। अगर आप किसी से निर्दोष प्यार करते हैं तो खुशामद से हजारगुना ज्यादा प्रभाव उस पर पड़ता है। अतः स्वयं मान पाने की इच्छा न रखें वरन् औरों को सम्मान दें।

स्वार्थ-त्यागः चौथा सदगुण है स्वार्थ-त्याग। कर्म निःस्वार्थ होकर करें, स्वार्थ-भाव से नहीं। स्वार्थत्याग की भावना अन्य गुणों को भी विकसित करती है।

समताः पाँचवीं बात है कि आपमें समता का सदगुण आ जाय। चित्त सम रहेगा तो आपकी आत्मिक शक्ति बढ़ेगी, आपका योग सिद्ध होगा और आप आत्मज्ञान पाने में सफल हो जायेंगे।

यह ‘पंचसकारी साधना’ ज्ञानयोग की साधना है। इसका आश्रय लेने से आप भी ज्ञानयोग में स्थिति पा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 113

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आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी कौन ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के 18वें अध्याय के 53वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूताय कल्पते।।

‘अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है।’

आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी होने के लिए साधक को उपरोक्त सदगुण अपने में लाने चाहिए और सदगुण लाने के लिए थोड़ा एकांत में जाना चाहिए।

अहंकार, दर्प आदि हमें परमात्मा से दूर कर देते हैं, आत्मशांति से दूर कर देते हैं। एकांत में अहंकार, काम-क्रोधादिक भी कम सताते हैं क्योंकि अहंकार आदि दूसरे के समान होते हैं। अकेलेपन में अहंकार आदि ज्यादा नहीं सताते।

हम जब अंतर्मुख होते हैं, मौन होते हैं, एकांत में होते हैं तब मानसिक शक्तियों का विकास होता है और आत्मशांति की झलकें आती हैं। जीवन में कामनाओं का त्याग, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध तथा परिग्रह का त्याग और सरलता, सहजता, मौन, एकांतवास व आत्मविश्लेषण साधक को ऊपर उठाते हैं।

आत्म-साक्षात्कार का अधिकारी होने के लिए ये सदगुण अपने में जोड़ने होंगे और इन सदगुणों को जोड़ने के लिए जहाँ दुर्गुणों का बाजार लगा है, वहाँ से अपने को अलग ले जाना पड़ेगा, थोड़ा एकांत में ले जाना पड़ेगा।

एकांत में जाने के लिए कलियुग के लोगों के शरीर की ऐसी क्षमता नहीं है कि वे सब छोड़कर हिमालय चले जायें…. वातावरण ऐसा है, आंदोलन ऐसे हैं कि कुछ-न-कुछ विकार घेर लेते हैं, कोई-न-कोई कामना घेर लेती है और कामना के अनुसार नहीं होता है तो क्रोध घेर लेता है।

किसी में धन का बल, यश का बल या विद्या आदि का बल आ जाता है तो भी अहंकार हो जाता है। तुम्हारे पास बल तो है लेकिन वह बल यदि निर्बलों की रक्षा करने के काम नहीं आता तो किस काम का ? तुम्हारे पास संपत्तिरूपी धन हो, विद्या का धन हो, ज्ञान का धन हो, सेवा का धन हो किंतु वह धन यदि किसी के काम नहीं आता तो धन होते हुए भी तुम निर्धन हो। तुम्हारे पास भक्ति, योग तथा ज्ञान है और वह किसी के काम नहीं आता है तो वह नहीं के बराबर है। तुम्हारे जीवन में जो भी श्रेय है, जो भी अच्छा है, वह बाँटने के लिए है, रखने के लिए नहीं और मजे की बात यह है कि बाँटने से वह खर्च नहीं होता बल्कि बढ़ता है। जैसे कुएँ में से जितना पानी निकालो उतना पुनः भरता जाता है, ऐसे ही तुम परोपकार में जितना अपना श्रेय लगाते हो उतना ही श्रेय बढ़ता जाता है। संत श्री तुलसीदास जी कहते हैं-

राम नाम के कारणे सब धन दीन्हो खोय।

मूरख जाने घटि गयो दिन दिन दूनो होय।।

जैसे गंगा बहती जा रही है… गंगा ऐसा नहीं सोचती है कि मैं गाय को शीतल जल दूँ और शेर पीने के लिए आये तो उसको विष पिला दूँ। गंगा का तो अपना स्वभाव है कि जो भी आ जाय उसे शीतल जल देना…. कोई नहाता है तो नहा ले और कोई थूकता है तो थूक ले…. इससे गंगा को कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह तो कलकल-छलछल करती हुई बहती रहती है और उसमें शुद्ध, ताजा और बिल्लौरी काँच जैसा स्वच्छ जल आता रहता है।

सुनी है एक कहानीः एक बार नदी और तालाब के बीच बातचीत हुई। तालाब ने नदी से कहाः

“अरे पगली ! तू कहाँ भागी जा रही है ? तेरे पास इतना मधुर जल है, उसे सँभालकर रख। तू कुछ बन जा। समुद्र को पानी देती है तो वह तुरंत उसे खारा कर देता है। तू व्यर्थ ठोकरें खाती है, टक्करें झेलती है। तू चुपचाप अपना जल एकत्रित कर।”

नदी ने कहाः “यह नहीं हो सकता है। मेरा स्वभाव तो बहना है।”

कुछ दिन हुए। तालाब में पानी पड़ा रहा तो उसमें मच्छर होने लगे। मलेरिया फैलने लगा। पानी कम होने लगा तो मछलियाँ भी तड़प-तड़प कर मर गयीं। नगरपालिका ने पूरे नगर का कचरा उसमें डालकर तालाब भर दिया जबकि नदी का तो बहती ही रही और बारिश उसके जल की पूर्ति करती रही।

ऐसे ही कोई चाहे कैसा भी हो, तू बरसता जा। तू गंगा को लक्ष्य में रख। जो देता है वह पाता है। जो रखता है वह खोता है। अहंकार रखना चाहता है और प्रेम देना चाहता है।

उस विराट में, उन अनंत में अथाह शक्ति है, अथाह सामर्थ्य है। तुम्हारे पास जो कुछ भी है लाख, करोड़, अरब… वह तो कुछ भी नहीं है। उससे भी ज्यादा जिनके पास था वे लोग सब छोड़कर चले गये। तुम्हारे पास जो अक्ल है वह तो कुछ भी नहीं है। उससे भी बढ़िया अक्ल जिनके पास थी वे भी चले गये और वास्तव में देखा जाय तो जो कुछ भी तुम्हारे पास है वह तुम्हारा नहीं, अनंत का है।

यह तो अहंकार कहता है कि ‘मकान मेरा है, अक्ल मेरी है….’ अरे, भैया ! जरा-सा बुखार आ जाता है तो तेरी अक्ल की शक्ल बदल जाती है। अक्ल तेरी नहीं है, पैसे तेरे नहीं हैं, सौंदर्य तेरा नहीं है…..

रूप दिसी मगरूर न थी, ऐदो हुस्न ते नाज़ न कर….

‘अपने सौंदर्य को देखकर इतना गुमान न कर।’ यह तो एक दिन मिट्टी में मिल जायेगा। अपने धन पर भी इतना गुमान न कर क्योंकि या तो धन चला जायेगा यह धनवाला चला जायेगा।

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

परिग्रहम्…. परिग्रह मत करो। केवल धन का परिग्रह नहीं, जो कुछ सुना है उसको भी भूल जाओ।

किसी ने पूछाः “बापू जी ! कथा भी भूल जायें ?”

हाँ, हाँ, जगत भूलने की अटकल आये तो कथा के शब्द भी भूल जाओ।

उसने फिर पूछाः “स्वामी जी ! जब भूलना ही है तो सुने ही क्यों ?”

एक बार अमथा सेठ परिवार सहित यात्रा के लिए गये। साथ में रसोइया भी था। गंतव्य स्थान पर पहुँचकर उन्होंने रसोइये से कहाः

“देख, रोटी-सब्जी तो बनाना लेकिन चारों ओर सूखे बाँस का जंगल है। सँभलकर आग जलाना और सँभलकर आग बुझा देना।

सेठ दर्शनीय स्थल देखने हेतु परिवार सहित निकल गये परन्तु रसोइया हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ गया। दोपहर हुई। सेठ आये तथा रसोइये से बोलेः “लाओ, खाना।”

रसोइयाः “खाना तो बनाया ही नहीं है।”

सेठः “क्यों नहीं बनाया ?”

रसोइयाः “सेठ जी ! आप ही तो कहकर गये थे कि आग जलाना, फिर सँभलकर बुझा देना। जब आग बुझानी ही है तो फिर जलानी ही क्यों ? इसलिए मैंने आग जलायी ही नहीं।”

जितना जलाना जरूरी है उतना बुझाना भी जरूरी है। ऐसे ही जितना भूलना जरूरी है उतना सुनना भी जरूरी है। सुने बिना तो तुम भूल भी नहीं सकोगे।

जगत को भूलने के लिए कथाएँ सुनो, कथाओं को भूलने के लिए सत्संग सुनो और सत्संग को भूलने के लिए तुम अपने-आपसे मिलो। तुम जब अपने-आप से मिलोगे तब सत्संग भी भूल जाओगे। तुम जो बोलोगे वह सत्संग हो जायेगा। तुम जो देखोगे, छुओगे वह प्रसाद हो जायेगा। तुम जहाँ रहोगे वह भूमि तीर्थ हो जायेगी। तुम इतने बढ़िया हो। तुम ऐसे महान हो।

तुम थोड़ा सा धन पाकर अपने को धनवान न मानो। तुम बिना धन के भी महान हो। बिना सत्ता के भी तुम महान हो। बिना परिवार के भी तुम महान हो। परिवार होने से तुम बड़े नहीं हो, धन होने से तुम बड़े नहीं हो, सत्ता होने से तुम बड़े नहीं हो….. तुम्हारे पास कुछ भी नहीं हो फिर भी तुम बहुत बड़े हो। तुम अपने बड़प्पन को नहीं जानते इसलिए छोटी-छोटी बातों में उलझ जाते हो, खिन्न हो जाते हो।

किसी के घर में चोरी हो जाये तो भी कुछ बच जाता है किन्तु यदि आग लग जाय या बाढ़ में घर ढह जाय तो सब कुछ नष्ट हो जाता है। ऐसे ही काम, लोभ, मोह आदि तुम्हारे पुण्यों की, तुम्हारी शांति की थोड़ी-थोड़ी चोरी करते हैं लेकिन जब क्रोध आता है तो तुम्हारे सारे पुण्यों को स्वाहा कर देता है। एक महीने का किया हुआ जप, तप, सेवा, स्मरण का पुण्य एक बार क्रोध का झटका आने से नष्ट हो जाता है।

कई लोग बीस-बीस साल से सतत जप करते हैं, सब प्रकार की विधिसहित साधना करते हैं फिर भी उनके जीवन में जो उन्नति दिखनी चाहिए, वह नहीं दिखती तो उसका एक ही कारण है कि वे क्रोध करके अपनी साधना नष्ट कर देते हैं।

कबीरदास जी ने कहा हैः

काम न क्रोध न लोभ कछु एकल भला अनीह।

साधक ऐसा चाहिए जैसे बन का सिंह।।

तुम अकेले रहने का अभ्यास करो। तुम किसी के नहीं हो तो कोई बात नहीं, कम-से-कम तुम अपने आपके तो हो जाओ। दिन में एकाध घंटा अपने-आप में बैठो। दूसरे मरने वालों के साथ तो जीवनभर बैठे हो। जो तुम्हारा साथ छोड़ देंगे उन साथियों के साथ तो तुमने पूरी जिंदगी गँवा दी, काफी उम्र तुमने दाँव पर लगा दी। अब एक घड़ी अपने-आपके साथ, अपने परमेश्वर के साथ बैठने हेतु तो दाँव पर  लगा कर देखो।

तुम अकेले एकांत में बैठने का अभ्यास करके तो देखो। भले ही तुम एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध तक ही बैठो। दृढ़ नियम-निष्ठा से बैठो अपने सोऽहं स्वभाव की स्मृति में…. अपने-आप में…..  निस्संग…..

साधु कहाँ बैठा है ?

साधु आत्मा में बैठा है। तुम आत्मा में बैठोगे तभी समझना कि साधु के साथ बैठे हो। नहीं तो साधु के आश्रम में बैठकर रोटी खाकर भी तुम लड़ाई कर सकते हो।

हठ से रोटी न खाने से क्रोध जाता नहीं है बल्कि क्रोध बढ़ता है, उद्वेग बढ़ता है, अशांति बढ़ती है। रोटी खाने से शांति नहीं मिलती, फल खाने से शांति नहीं मिलती लेकिन गम खाने से शांति मिलती है। गम तो खाना नहीं है बाकी का सब खाना है तो काम बनेगा नहीं। दूसरों को कोसना भी छोड़ो और अपने को कोसना भी छोड़ो।

ब्रह्मज्ञान की बात कोई सुना दे यह अलग बात है किन्तु ब्रह्मज्ञान का अधिकारी आदमी तब होता है, जब उसमें ये सदगुण आते हैं-

‘अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यानयोग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानंदघन ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित होने का पात्र होता है।’

जैसे तिनकों का गंगा बहाकर ले जाती है, ऐसे ही तुम्हें जीवन की परिस्थितियाँ बहाकर ले जायेंगी…. कभी यश बहाकर ले जायेगा, कभी अपयश बहाकर ले जायेगा, कभी क्रोध बहाकर ले जायेगा। कभी मोह बहाकर ले जायेगा, कभी लोभ बहाकर ले जायेगा। इन विकारों का चंगुल तब तक बना ही रहेगा, जब तक तुम गुरु के वचनों को सुनने के अधिकारी नहीं बनोगे और सुनने का अधिकारी वही है जो सुनकर फिर उन वचनों को आदरसहित जीवन में लाने की कोशिश करे।

एक संकल्प जब दूसरे संकल्प से विपरीत होता है तब दुःख होता है। संकल्प के अनुसार जब हमारा जीवन चलता है अथवा हम संकल्पों की दुनिया को समझते हैं तब दुःख नहीं होता। एक बात और है कि जब हम जगत को मिथ्या मान लेते हैं तब संकल्प के अनुसार घटे तो भी क्या और नहीं घटे तो भी क्या ? सब सपना है।

जब तुम नौकरी पर जाते हो तो सैर का मजा चला जाता है। कोई घूमने के लिए हवाई जहाज में पहली बार जाता है तो जाने के महीनेभर पहले से मन में उत्साह रहता है और घूमकर आता है तब भी छाती फुलाकर सबसे बात करता है। कहने के पीछे हवाई जहाज का सुख नहीं, अपना उत्साह होता है। हवाई जहाज की परिचारिकाओं को ऐसा नहीं होता कि ‘हम अमेरिका घूमकर आये।’

मजा या सज़ा, सुख या दुःख परिस्थितियों पर निर्भर नहीं है। अपने चित्त की कल्पना जिस समय जैसी होती है उस समय वैसा ही भासता है। इसलिए ऋषियों ने बाहर की वस्तुओं को बदलने की ज्यादा खटपट नहीं की।

चित्त की वृत्तियों को दृष्टाभाव से देखो और चित्त की वृत्तियों को ऐसे बदलो जिससे वे तुम पर राज्य न करें, तुम पर प्रभाव न डालें तो यह साधना हो गयी। तुम केवल वृत्तियों को देखते जाओ, फिर वृत्तियाँ तुम्हारे नियंत्रण में आ जायेंगी।

दूसरों को अपने बल से शोषित करने से अपने अहंकार का पोषण होता है, वह बल साधक का नहीं है। वह तो मूर्खों का बल है, वह शोषकों का बल है,  पामरों का बल है। ऐसे लोग जीवनभर जीतने का दाँव लगाते हैं और अंत में हारकर चले जाते हैं।

पामरों-भोगियों के बल से साधक का बल निराला होता है। साधक अहंकार के सर्जन का बल छोड़ देता है तभी वह ब्रह्मज्ञान का अधिकारी होती है। साधक को चाहिए कि बल छोड़ दे, दर्प छोड़ दे, काम छोड़ दे। काम का अर्थ केवल ‘सेक्स’ ही नहीं है। काम का अर्थ है कामनाएँ…. इस लोक से लेकर ब्रह्मलोक तक की चीजें अंत में बिछुड़ जायेंगी। अतः मिल भी गयीं तो क्या ? इस प्रकार का विवेक अंदर में वैराग्य प्राप्त कराता है। साधक के अंदर वैराग्य होने पर कामनाएँ ज्यादा पनपती नहीं हैं। जब कामनाएँ पनपती नहीं हैं तब चित्त के संकल्प कम हो जाते हैं और संकल्प कम होते ही आत्मशांति मिलती है।

चित्त और अहंकार दो चीजें नहीं हैं। जैसे बरफ और उसकी ठंड एक ही है, ऐसे ही चित्त और अहंकार एक ही चीज है, स्पंदन और अहंकार एक ही चीज है। अब आप स्पंदन में जो-जो आरोप करो…. धन का आरोप करो तो धन का अहंकार, सौंदर्य का आरोप करो तो सौंदर्य का अहंकार, विद्वता का आरोप करो तो विद्वता का अहंकार होगा। होता आरोप स्पंदन में ही है और अगर उस आरोप का अपवाद करने की कला आ जाय तो व्यक्ति को सत्य को उपलब्ध होने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। जीव को यदि संसार के आकर्षणों से विमोहित नहीं किया जाय, यदि संसार के आकर्षण के संस्कार न डालें जायें तो उसको आत्म-साक्षात्कार के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं पड़ेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 2-6, अंक 113

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अद्वैत ज्ञान की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

दुःख क्यों होता है ?

मानव की प्रज्ञा पूर्ण विकसित नहीं है तथा उसे आत्मज्ञान में रुचि नहीं है इसीलिए दुःख होता है। यदि आत्मज्ञान में रुचि हो तो दुःख टिक नहीं सकता और अगर ज्ञान में रुचि न हो तो सुख टिक नहीं सकता।

जिसको अज्ञान ने घेर रखा है वह कहीं-न-कहीं दुःख बना ही लेगा और जो ज्ञान से परितृप्त है वह चारों ओर दुःख होते हुए भी सुखी रहेगा। ज्ञान ऐसी चीज है।

हम अपने मन के अनुसार, अपनी कल्पना के अनुसार जगत को देखना चाहते हैं। कल्पना की इस दासता को मिटाने के लिए घर छोड़ना पड़े, नौकरी छोड़नी पड़े तो भी सब कुछ छोड़कर इस आत्मविद्या को पा लेना चाहिए। ज्ञान बेवकूफी छुड़ाता है और ब्रह्म-परमात्मा का सुख देता है। यह आत्म-साक्षात्कार का रास्ता है। ब्रह्मविद्या ब्रह्म परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित कर देती है और चित्त की बेवकूफी छुड़ा देती है।

जगत में जो भी दुःख होते हैं सब चित्त की बेवकूफी के कारण होते हैं। जितनी बेवकूफी मजबूत उतना दुःख मजबूत, जितनी बेवकूफी कम उतना दुःख कम और बेवकूफी नहीं तो दुःख भी नहीं। तो कृपानाथ ! आप अपने ऊपर कृपा करना कि जब दुःख आये तो समझ लेना कि बेवकूफी के कारण दुःख आया है।

ईश्वर तथा प्रकृति कुछ और चाहते हैं और आप कुछ और चाहते हैं… आप वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियों को पकड़े रखना चाहते हैं तभी आप दुःखी होते हैं। आप अपने को जानते नहीं हैं और पकड़ रखते हैं, इस बेवकूफी के कारण ही दुःख होता है। आप अपने को जानते नहीं हैं और कहते हैं कि ‘यह मेरा सिद्धान्त है।’ फिर अपने सिद्धान्त के विपरीत कुछ होता है तो दुःखी हो जाते हैं।

जिन्होंने अपने-आपको जान लिया है, ऐसे ही किन्हीं महापुरुष के वचन हैं-

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

अपने आप पर जो मस्ताना हो गया, अपने-आपको जिसने जान लिया उसे फिर दुनिया का कोई भी दुःख दुःखी नहीं कर सकता और कोई भी सुख सुखी नहीं कर सकता।

जब तक अपने-आपको नहीं जाना था, तब तक हम भी न जाने क्या-क्या सोचते थे ! परमात्मा कहाँ होंगे ? कैसे होंगे ?…. तपस्या करेंगे, भगवान शिवजी आयेंगे और कहेंगे कि ‘वरदान माँगो।’ हम कहेंगे कि ‘कुछ नहीं चाहिए।’ शिवजी प्रसन्न हो जायेंगे और आलिंगन करेंगे, सिर पर हाथ रखेंगे…..’ आदि-आदि।

किन्तु जब गुरु की कृपा हुई तब पता चला कि शिव भी हम हैं और काली भी हम हैं, राम भी हम हैं और रहमान भी हम हैं, श्रोता भी हम हैं और वक्ता भी हम हैं…. केवल हम-ही-हम हैं गैर का नामोनिशान भी नहीं है।

कीड़ी में तू नानो लागे हाथी में तू मोटो क्यूँ ?

बन महावत ने माथे बैठो हाकणवालो तू को तू….

ऐसा आत्मज्ञान जिसको हो गया उसको दुःख कहाँ ? काल भी आ जाय तो काल की क्या ताकत ? ‘काल में भी मेरा ही स्वरूप है।’ ऐसा उसको बोध हो जाता है।

दुःख में द्वैत होता है, भय द्वैत में होता है, क्रोध दूसरे पर होता है, आकर्षण दूसरे से होता है। कितना भी भयानक आदमी हो, डरावना हो अपने-आपसे डरेगा क्या ? कितना भी सुन्दर आदमी हो उसे अपने-आपसे काम वासना होगी क्या ? कितना भी आदमी खराब हो उसे अपने आप पर क्रोध आयेगा क्या नहीं ? अपने-आपसे कैसा भय ? अपने-आप पर कैसा क्रोध ? अपने-आपसे कैसा आकर्षण ?

जहाँ दूसरा दिखता है वहीं सब मुसीबतें आ जाती हैं। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं है जो द्वैत की भावना से न आये और ऐसा कोई सदगुण नहीं है जो अद्वैत की भावना से न खिले। ऐसा कोई आनंद और सामर्थ्य नहीं है जो अद्वैत की भावना से पैदा न हो।

लेकिन भेद ज्ञान के कारण, द्वैत के कारण हम अभेद ज्ञान से, अद्वैत ज्ञान से दूर चले गये। समाज में जब त्याग-वैराग्य की भावना थी, बुद्धि का  विकास था, उस समय उपनिषदों के ज्ञान का प्रचार था। जब समाज से त्याग-वैराग्य और संयम छूटता गया, ब्रह्म को जानने  वाले महापुरुष कम होते गये और धन-धान्य को प्यार करने वाले व्यक्ति बढ़ते गये, उनका प्रभाव बढ़ता गया, क्षुद्र वस्तुओं में उलझने वाले व्यक्तियों का प्रभाव बढ़ता गया, भोग को ही सार मानने वाले भोगियों का प्रभाव बढ़ता गया तबसे सेवाधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ।

‘सेवा करेंगे तो हमें पुण्य मिलेगा…. स्वर्ग का सुख मिलेगा…. ‘ ऐसा सोचकर सेवा करने से पुण्य तो होता है किन्तु जन्म-मरण का चक्र नहीं छूटता। इसीलिए ज्ञानवान महापुरुष कहते हैं कि किसी को वस्तुएँ देकर, किसी की सुविधाएँ बढ़ाकर, किसी को सुख देकर किसी के अभावग्रस्त जीवन में सहायक होकर तुम अपने को कर्त्ता मत मानो। वरन् कर्त्ता-भर्ता श्रीहरि को मानकर तुम निष्काम हो जाओ।

निष्काम हो जाओगे तो स्वर्ग की वासना नहीं रहेगी। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए तुमने सेवाएँ की तो वासनाएँ नष्ट हो जायेंगी, अंतःकरण शुद्ध हो जायेगा, कल्मष क्षीण हो जायेंगे और तुम ज्ञान के अधिकारी बन जाओगे।

जो लोग सेवा तो करते हैं परन्तु वाहवाही नहीं चाहते, ईश्वर को ही चाहते हैं उनका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, कल्मष क्षीण होते जाते हैं और कल्मष क्षीण होते ही उनमें ब्रह्म विद्या को पाने की प्यास जगती है।

जिसके कल्मष ज्यादा होते हैं उसको आत्मज्ञान पाने की रुचि नहीं होती और जबरन कोई सुनाये तो इस विद्या पर उसे विश्वास नहीं होता।

‘मैं आत्मा हो सकता हूँ ? मैं अमर हो सकता हूँ ? मैं पहले आत्मा को देखूँगा फिर मानूँगा…..

‘पहले तू आत्मा को देखेगा फिर मानेगा तो तू कौन है ?’

‘मैं गोविन्द भाई हूँ, पशा काका का भतीजा हूँ।’ इस तरह की मान्यताओं में ऐसे लोग उलझे रहते हैं।

स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते….

जिनके पुण्य कमजोर हैं वे सत्संग सुन भी नहीं सकते। कुछ पुण्य होंगे तब सत्संग सुन तो पायेंगे किंतु सत्संग की बातों पर, ब्रह्मज्ञान की बातों पर उन्हें विश्वास नहीं होगा और यदि विश्वास होगा भी तो पुरानी मान्यता एक तरफ खींचेगी तथा आत्मज्ञान दूसरी तरफ खींचेगा। फिर वे जिसको मदद करेंगे उस ओर आगे बढ़ जायेंगे।

अगर दो चार सामाजिक फर्ज एक साथ निभाने को आ जायें तो पहले कौन सा निभाना चाहिए ? इसका निर्णय करने में कई लोग फिसल जाते हैं। फिर वर्षों बीत जाते हैं तथा इन काल्पनिक फर्जों को निभाते-निभाते जीवन पूरा हो जाता है और मुख्य कर्तव्य रह जाता है।

वास्तविक जीवन जीने की आदत पड़ जाय तो काल्पनिक जीवन का प्रभाव ही न पड़े। किन्तु वास्तविक जीवन जीने की पद्धति ही नहीं जानते हैं इसीलिए काल्पनिक जीवन जीने का इतना प्रभाव है कि संसार से सिवा कुछ दिखता ही नहीं है।

संसारी जिसे दुःख मानते हैं वह तो दुःख है ही लेकिन अनजान लोग जिसको सुख मानते हैं वह भी दुःख से भरा है। सुख चला न जाय इस दुःख से भरा है। भोग भोगने के लिए भी भोग देना पड़ता है।

जिसको अंदर का सुख नहीं मिला वह बाहर के सुखों को टिकाने में ही जिंदगी पूरी कर देता है फिर भी सुख तो टिकता नहीं है और सुख को सँभालने की मजदूरी सिर पर आ पड़ती है। पति को रिझाओ, पत्नी को रिझाओ, साहब को रिझाओ, सेठ को रिझाओ, नेता को रिझाओ, जनता को रिझाओ…. इन सबको रिझाने के पीछे माँग तो सुख की ही है और सुख तो टिकता नहीं है किन्तु रिझाने-रिझाने में ही जीवन पूरा हो जाता है।

परन्तु जो अपना मुख्य कर्तव्य निभा लेता है, अपने-आप में आराम पा लेता है, अपने आपको जान लेता है, वह किसी को रिझाने के चक्कर में नहीं पड़ता है बल्कि लोग उसको रिझाने के लिए उसके पीछे-पीछे फिरकर अपना भाग्य बना लेते हैं।

एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।

एक मुख्य फर्ज (परमात्म-ज्ञान) को पा लिया तो बाकी के सब फर्ज पूरे हो जाते हैं।

आप अगर अध्यात्म-ज्ञान के रास्ते चलोगे तो दूसरों को मान देना, दूसरों का हित चाहना, दूसरों का भला चाहना – यह आपका स्वभाव हो जायेगा।

एक बार कोई केवल तीन मिनट के लिए भी अपने स्वरूप में जग जाय तो उसका तो बेड़ा पार हो ही जायेगा, उसका दर्शन करके यक्ष, गंधर्व, किन्नरादि भी अपना भाग्य बना लेंगे। ऐसा  परमात्मा सबके हृदय में छुपा है फिर भी सब दुःखी हो रहे हैं…..

वह दूर भी नहीं है और उसको पाना कठिन भी नहीं है केवल अपनी उलटी मान्यताएँ छोड़ते चले जायें और सही मान्यताएँ,  वेद, उपनिषद् अथवा गीता के वचन और महापुरुषों के उपदेश को स्वीकार करते जायें। बेवकूफी के संस्कारों को छोड़ते जायें और वेदान्त के संस्कारों को प्रगट होने दें बस, बेड़ा पार हो जायेगा।

मानव का मन  अकारण फालतू विचार करने वाला  कारखाना है। मन अकारण दुःख बना लेता है, अकारण कल्पना कर लेता है। जो-जो विचार व्यक्ति के मन में आते हैं उन्हें ईमानदारी से लिखता जाय तो उसे लगेगा कि ‘लोग कहते हैं कि पागलखाना फलानी जगह है लेकिन पागलखाना तो मेरे ही पास है।’

एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू किसी मानसिक चिकित्सालय में गये। वहाँ किसी पागल ने नेहरू जी से पूछाः “तुम कौन हो ?”

नेहरू जी ने मुस्कराते हुए कहाः “मैं भारत का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हूँ।”

पागल ने कहाः “मैं भी पहले ऐसा ही बोलता था। आप यहाँ भर्ती हो जाओ, ठीक हो जाओगे।”

तो ये पूरी दुनिया एक पागलखाना है। पागल की नजर में नेहरू जी कैसे दिखते हैं ? ऐसे ही संसारियों की नजर में ब्रह्मवेत्ता दिखते हैं। जैसे वह पागल नेहरू जी को अपनी पंक्ति में लाना चाहता था, वैसे ही हम लोग भी आत्मारामी महापुरुषों को अपनी तराजू में तौलना चाहते हैं और अपनी पंक्ति में लाना चाहते हैं।

एक बार भगवान बुद्ध अपने प्यारे शिष्य आनन्द के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक कुआँ था। एक आदमी पानी भरने के लिए बार-बार बालटी को कुएँ में डाल रहा था। बालटी छिद्रवाली थी। वह आदमी पानी भरने के बाद बालटी को ऊपर खींचता था लेकिन जब बालटी हाथ में आती थी खाली हो जाती थी। एक चुल्लू पानी भी उसके हाथ में नहीं आ पाता था। लगता तो ऐसा था कि कुएँ में कोई बड़ा काम चल रहा है, बड़ी प्रगति हो रही है परन्तु वह कमबख्त खुद भी प्यासा रहा और दूसरों को भी उसने प्यासा ही रखा।

करीब आधे घंटे तक बुद्ध वहीं ठहरे, फिर आगे गये। थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने आनन्द से कहाः

“देखा ? वह आदमी क्या कर रहा था ? वह अभागा खुद भी नहीं पी पा रहा था और दूसरों को भी नहीं पिला पा रहा था। वह केवल अकेला ही ऐसा नहीं है। सारा संसार ऐसा ही है।

संसारी लोग भी बहुत परिश्रम करते हैं, शोर भी बहुत होता है, लगता है कि वे बहुत काम कर रहे हैं, बहुत प्रगति कर रहे हैं लेकिन वे अज्ञानी होकर जन्मे और अज्ञानी होकर ही मरेंगे। आत्मा का अमृत न वे खुद पी पाते हैं न किसी को पिला पाते हैं…. उनकी भी हृदयरूपी बालटी खाली की खाली ही रह जाती है…. हृदय आत्मरस से वंचित ही रह जाता।

अगर हृदय को आत्मरस से भरना है तो उपाय यही है कि संसार की चीजों को नश्वर मानकर अमर आत्मा से प्रीति कर लो। आत्मविचार को महत्व दो और उसे अपना बना लो। वेदान्त के अनुभवों को खूब प्यार करो और उसे अपना बना लो। फिर जैसे सूर्य अंधकार को खोजने जाय, रात्रि को खोजने जाय तो उसके वह मुश्किल है, वैसे ही आपके लिए परेशानियों को खोजना मुश्किल हो जायेगा।

अगर आप परेशानी को खोजने जाओगे तो परेशानी-को-परेशानी हो जायेगी कि यह मेरे पीछे क्यों पड़ा है ? आपको आत्म ज्ञान हो जाये फिर आप मुसीबत खोजो। लोग मुसीबत भेजेंगे अथवा आप पैदा भी कर लोगे तो मुसीबत-को-मुसीबत हो जायेगी कि ‘मैं कौन से घर आ गयी ?’ ऐसा है आत्मज्ञान ! ऐसी है ब्रह्मविद्या !

ब्रह्मज्ञानी आप भी निर्दुःख हैं और औरों को भी निर्दुःख करता है। जैसे पर्वत आप भी अडिग है तथा औरों को भी तरंगों की मार से बचाता है, ऐसे ही ज्ञानी भी अपने परमात्मस्वरूप में अडिग है और जो संसार की कल्पना की तरंगों की थपेड़ें खाकर थक-हारकर ज्ञानी के नजदीक आते हैं, उनको भी धीरज मिल जाती है, शांति मिल जाती है। लेकिन वे फिर उन्हीं तरंगों में दूर चले जाते हैं और जब थपेड़ें लगती हैं तब फिर पर्वत की ओर आते हैं। ऐसा करते-करते भी पर्वत पर ठहरने की आदत हो जाय तो बेड़ा पार हो जाय….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2002, पृष्ठ संख्या 6-9, अंक 113

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