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श्रद्धा और अश्रद्धा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जैसे लोहे और अग्नि के संयोग से तमाम प्रकार के औजार बन जाते हैं, ऐसे ही श्रद्धा और एकाग्रता से मानसिक योग्यताएँ विकसित होती हैं, आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होती हैं तथा सभी प्रकार की सफलताएँ और सिद्धियाँ मिलती हैं।

श्रद्धा सही होती है तो सही परिणाम आता है और गलत हो तो गलत परिणाम आता है। किसी को रोग तो थोड़ा-सा होता है लेकिन ‘हाय ! मैं रोगी हूँ…. मैं बीमार हूँ….’ करके गलत श्रद्धा करता है तो उसका रोग बढ़ जाता है। थोड़ी सी मुसीबत होती है और उस पर श्रद्धा करता है तो उसकी श्रद्धा के प्रभाव से मुसीबत बढ़ जाती है।

अगर रोग तथा मुसीबत के वक्त भी सही श्रद्धा करे कि ‘रोग शरीर को होता है और मुसीबत मन की कल्पना है, मैं तो परमात्मा का सनातन सपूत हूँ। रोग-बीमारी मुझे छू नहीं सकती है, मैं इनको देखने वाला, साक्षी अमर द्रष्टा हूँ ॐ… ॐ…ॐ… ‘ तो रोग का प्रभाव भी कम होता है और रोग जल्दी ठीक हो जाता है।

श्रद्धालु, संयमी जितना स्वस्थ जीवन गुजार सकता है, उतना अश्रद्धालु-असंयमी नहीं गुजार सकता। भक्त जितना सुख-दुःख में सम रह सकता है, उतना अभक्त नहीं रह सकता। श्रद्धालु थोड़ा सा पत्रं-पुष्प-फलं-तोयं देकर भ जो लाभ पा सकता है वह श्रद्धाहीन व्यक्ति नहीं पा सकता।

जितने व्यक्ति कथा-सत्संग में आये हैं उतने यदि क्लबों में जायें तो सुखी होने के लिए तरह-तरह के सामान-सुविधा की जरूरत होगी। फिर भी देखो तो सत्यानाश ही हाथ लगता है और यहाँ सत्संग में कोई भी ऐहिक सुविधा नहीं है फिर भी कितना लाभ हो रहा है !

क्लबों में जाकर तामसी आहार, डिस्को आदि करके भी लोग तलाक ले लेते हैं और तलाक की नौबत तक आ जाने वाले भी अगर भगवद्कथा में पहुँच जाते हैं तो वे भी भगवान के रास्ते चल पड़ते हैं।

पति-पत्नी में झगड़ा हो गया। पत्नी ने कहाः “मैं मायके चली जाऊँगी, तब तुम्हें पता चलेगा कि पत्नी का क्या महत्व है ? खाना तैयार मिलता है तभी इतना रुआब मार रहे हो। मैं चली जाऊँगी तो फिर कभी वापस नहीं आऊँगी।”

पतिः “कभी नहीं आयेगी तो दूसरा करेगी क्या ?”

पत्नीः “दूसरा क्यों करूँगी ? मैं तो वृंदावन चली जाऊँगी। मीरा बनूँगी।”

पतिः “जा, जा। तू क्या मीरा बनेगी ? ये मुँह और मसूर की दाल ? मैं ही चला जाऊँगा।”

पत्नीः “तुम चले जाओगे तो क्या करोगे ? दूसरी शादी करोगे ?”

पतिः “शादी क्यों करूँगा ? शादी करके तो देख लिया। एक मुसीबत कम पड़ी क्या, जो फिर दूसरी मुसीबत में पड़ूँगा ? मैं तो साधु बन जाऊँगा।”

पास से एक महात्मा गुजर रहे थे। महात्मा ने देखा कि दोनों लड़ तो रहे हैं किन्तु पति कह रहा है कि मैं साधु बन जाऊँगा और पत्नी कह रही है कि मैं मीरा बन जाऊँगी। दोनों श्रद्धालु हैं। इनमें श्रद्धा का सदगुण है तो क्यों न इनका घर स्वर्ग बना दिया जाय ?

महात्मा अनजान होकर आये और बोलेः

“नारायण हरि…। किस बात की लड़ाई हो रही है ?”

दोनों चुप हो गये। पति ने कहाः

“महाराज ! इस घर में रोज-रोज खटपट होती है इसलिए लगता है संसार में कोई सार नहीं है। मैं अकेला था, तब बड़े मजे में था परन्तु जबसे शादी हुई तबसे सब गड़बड़ हो गयी है। मैं तो अब गंगा-किनारे जाकर साधु बन जाऊँगा।”

पत्नी ने कहाः “महाराज ! मैं भी पहले तो बड़े मजे से रहती थी। जबसे शादी हुई है तबसे सारी खटपट शुरु हो गयी है। मैं तो अब मीरा बन जाऊँगी।”

महात्मा ने कहाः “देख, तुझमें भी श्रद्धा है और इसमें भी है। कोई वृंदावन जाकर मीरा बने, ऐसा आजकल का जमाना नहीं है। अभी तो घर में ही गिरधर गोपाल की मूर्ति बसा ले। अपने पति में ही गिरधर गोपाल की भावना कर। श्रद्धा से उसके लिए भोजन बना और सेवा कर। जो मीरा को वृंदावन में मिला वही तुझे घर बैठे मिल जायेगा।

अरे भैया ! तू गंगा किनारे जाकर साधु बनेगा तो किस सेठ का बढ़िया भंडारा होता है और कौन-सा सेठ बढ़िया दान करता है ? इस झमेले में पड़ेगा। इससे अच्छा है कि तू घर में ही संन्यासी हो जा। आसक्तिरहित होकर सत्कर्म कर और उन सत्कर्मों का फल भी भगवान को अर्पित कर दे। इससे तेरे हृदय में ज्ञान की प्यास जगेगी। ज्ञान की प्यास होगी तो तू ज्ञानी गुरु को खोज लेगा और सदगुरु से सत्संग सुनकर कभी-कभार एकांत अन्तर्मुखता की यात्रा करके परमात्मा को पा लेगा।

दोनों में श्रद्धा का सदगुण तो है ही। फिर क्यों ऐसा सोचते हो कि मैं वृंदावन चली जाऊँगी या मैं गंगा किनारे चला जाऊँगा ? तुम तो अपने घर को ही नंदनवन बना सकते हो।”

महात्मा की बात का दोनों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उनका झगड़ा भक्ति में बदल गया और दोनों महात्मा को प्रणाम करते हुए बोलेः

“महाराज ! हमने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है कि आप जैसे ज्ञानवान महापुरुष के घर बैठे ही दर्शन हो गये ? महाराज ! आइये, विराजिये। कुछ प्रसाद पाकर जाइये।”

अगर किसी में श्रद्धा है और श्रद्धा सही जगह पर है तो वह देर-सवेर परमात्म-ज्ञान तक  पहुँचा ही देती है। श्रद्धापूर्वक किया गया थोड़ा सा भी सत्कार्य बड़ा फल देता है और अश्रद्धापूर्वक किया गया हवन, तप और दान भी व्यर्थ हो जाता है।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।

‘हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान तथा तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है – वह समस्त ‘असत्’ कहा जाता है। इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।’ (गीताः 12.27)

तप क्या है ? पीडोत् भवति सिद्धयः।

केवल जंगल में जाकर देह को सुखाना ही तप नहीं है वरन् अच्छे काम के लिए कष्ट सहना भी तप है। घर में तो एयरकंडीशनर है लेकिन सत्संग में गये तो की छोटी-मोटी असुविधाएँ सहनी पड़ती हैं, जमीन पर बैठना पड़ता है, गर्मी सहनी पड़ती है… ये सारे कष्ट सहने पड़ते हैं किन्तु किसके नाते ? ईश्वर के नाते सहन करते हैं तो तप का फल मिल जाता है। उपवास किया, भूख सहन की तो हो गया तप।

ऐसे ही केवल अग्नि में आहूति देना ही यज्ञ नहीं है वरन् भूखे को रोटी देना, प्यासे को पानी पिलाना, हारे को हिम्मत देना, निगुरे को गुरु के पास ले जाना, अभक्त को भक्ति के रास्ते ले चलना भी यज्ञ है।

‘क्या करें, माँ के पैर दबाने पड़ते हैं।’ इस भाव से माँ की सेवा की तो यह यज्ञ नहीं है। ‘माँ के अन्दर मेरे भगवान हैं’ – इस भाव से माँ की सेवा की तो यह यज्ञ हो जायेगा।

अगर कोई सकाम भाव से दान, तप और यज्ञ करता है तो उसे इहलोक और परलोक में सुख, सफलता और वैभव मिलता है परन्तु कोई अश्रद्धा से कर्म करता है तो उसे न यहाँ फल मिलता है और न ही परलोक में फल मिलता है। किंतु यदि कोई निष्काम भाव से श्रद्धापूर्वक कर्ण करता है तो उसका अंतःकरण शुद्ध होता है और परमात्मा को पाने की प्यास बढ़ती है। परमात्म-प्राप्ति की प्यास सत्संग में ले जाती है और वह देर-सवेर परमात्मा को पाने में भी कामयाबी दिला देती है।

सनत्कुमार जी कहते हैं-

श्रद्धापूर्वाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

‘श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।

श्रद्धा एक ऐसा सदगुण है कि वह जिसके हृदय में रहती है वह रसमय हो जाता है। उसकी निराशा-हताशा, पलायनवादिता नष्ट हो जाती है। श्रद्धा अंतःकरण में रस पैदा कर देती है और हारे हुए को हिम्मत दे देती है।

मरीज में भी अगर अपने चिकित्सक के प्रति श्रद्धा होती है कि ‘इनके द्वारा मैं ठीक हो जाऊँगा’ तभी वह ठीक हो पाता है। अगर मरीज के मन में होता है कि ‘मैं ठीक नहीं हो सकता’ तब चिकित्सक भी उसे ठीक नहीं कर पाता है। इसी प्रकार जिनका लक्ष्य पैसा लूटना है, आडंबर से रोगों की लंबी-चौड़ी फाईल बनाकर प्रभावित करना है – ऐसे मरीजों के शोषक और आडंबर करने वाले चिकित्सक उतने सफल नहीं होते, जितने मरीजों का हित चाहने वाले मरीजों में श्रद्धा संपादन करके उन्हें ठीक करने में सफल होते हैं।

भगवान पर, भगवत्प्राप्त महापुरुषों पर, शास्त्र पर, गुरुमंत्र पर अपने-आप पर श्रद्धा परम सुख पाने की अमोघ कुंजियाँ हैं।

अगर अपने-आप पर श्रद्धा नहीं है कि ‘मैं ठीक नहीं हो सकता… मैं कुछ नहीं कर सकता… मेरा कोई नहीं है….’ तो योग्यता होते हुए भी, मददगार होते हुए भी वह कुछ नहीं कर पायेगा। संशयात्मा विनश्यति….. जिसको संशय बना रहता है समझो वह गया काम से।

नेपोलियन बोनापार्ट सेना में भर्ती होने के लिए गया। भर्ती करने वाले अधिकारी ने कहाः

“फलानी जगह पर शत्रुओं की छावनी में जाना है और वहाँ के गुप्त रहस्य लेकर आना है। आधी रात का समय है, बरसात और आँधी भी चल रही है। पगडंडी पानी से भर गयी होगी। क्या तुम यह काम कर सकते हो ?”

नेपोलियनः “क्यों नहीं?”

अधिकारीः “रास्ता नहीं मिला तो ?”

नेपोलियनः “सर ! आप चिंता न करें। अगर रास्ता नहीं मिला तो मैं अपना रास्ता स्वयं बनाऊँगा। मैं अपना काम करके ही आऊँगा।”

नेपोलियन की अपने-आप पर श्रद्धा थी तो वह ऐहिक जगत में प्रसिद्ध हो गया।

ऐसे ही लिप्टन नामक लड़के को कोई काम धंधा नहीं मिल रहा था। वह एक होटल में नौकरी खोजने गया।

होटलवाले ने कहाः “मेरी होटल चलती ही नहीं है, तुझे नौकरी पर क्या रखूँ। फिर भी तू गरीब है। नाश्ता वगैरह कर ले और कोई ग्राहक हो तो यहाँ बुला ला।”

लिप्टनः “मैं पहले ग्राहक लेकर आता हूँ। वह जहाज आया है।”

होटलवालाः “पास में भी एक होटल है। सब उसी होटल में चले जायेंगे, यहाँ कोई नहीं आयेगा।”

लिप्टनः “आप चिन्ता न करें। मैं ग्राहकों को लेकर आता हूँ, बाद में नाश्ता करूँगा।”

लिप्टन गया और कई ग्राहकों को लेकर आ गया। फिर उसी होटल में नौकरी करने लगा और धीरे-धीरे उस होटल का मैनेजर बन गया। बाद में उसने चाय का व्यापार शुरु किया और केवल अपने देश में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी उसके नाम की चाय बिकने लगी। भारत में भी ‘लिप्टन चाय’ का नाम लोग जानते हैं।

कहाँ तो एक छोटा-सा गरीब लड़का, जो नौकरी के लिए भटक रहा था और कहाँ लिप्टन या कम्पनी का मालिक बन गया।

उसको तो पता भी नहीं होगा कि बापू जी मेरी बात कथा में करेंगे परन्तु उसे अपने-आप पर श्रद्धा थी। इसलिए वह सफल व्यापारी बन पाया। अगर उसकी भगवान पर श्रद्धा होती और भक्ति के रास्ते पर तत्परतापूर्वक चलता तो भगवान को पाने में भी सफल हो जाता।

श्रद्धा के बल पर ही मीरा, शबरी, ध्रुव, प्रह्लाद, धन्ना जाट, नामदेव आदि ने परमेश्वर को पा लिया था। एकलव्य की श्रद्धा दृढ़ थी तो गुरु द्रोण की मूर्ति के आगे धनुर्विद्या सीखते-सीखते इतना निपुण हो गया कि अर्जुन तक को उसकी धनुर्विद्या देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ी ! जहाँ चाह वहाँ  राह…

श्रद्धा यदि भगवान में होगी तो बुद्धि राग-द्वेष से तपेगी नहीं, जलेगी नहीं, ‘चलो, भगवान की मर्जी !’ – ऐसा सोचकर श्रद्धालु आदमी शांति पा लेता है किन्तु श्रद्धाहीन व्यक्ति ‘उसने ऐसा क्यों कहा ? इसने ऐसा क्यों किया ?’ ऐसा करके बात-बात में अशांत हो जाता है।

किसी ने कहा-तो-कहा परन्तु तुम क्यों उस बात को सोचकर पच मरते हो ? ‘उसने ऐसा क्यों कहा ? मौका मिलेगा तो बदला लूँगा।’ बदला लेने गये और हो गयी पिटाई तो बदला…. और अगर बदला लेकर आया, किसी का सिर फोड़कर आया तो फिर खुद ही  भागता फिरेगा।

जहाँ प्रेम होता है, वहाँ मन लगता है। जिस वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति को प्रेम करते हो तो वहाँ मन बार-बार जाता है। प्रेमास्पद में मन जाता है और श्रद्धेय में बुद्धि जाती है।

भगवान में, भगवत्प्राप्त महापुरुषों में श्रद्धा करोगे तो बुद्धि वहाँ जायेगी। आपका ज्ञान बढ़ेगा, बुद्धि विकसित होगी। बुद्धि के विकास से भगवान का ज्ञान पाने में मदद मिलेगी। भगवान का पूर्ण ज्ञान होगा तो निर्भय हो जाओगे, सारे दुःखों का अंत हो जायेगा और आप परम सुखी सच्चिदानंद-स्वरूप हो जाओगे, जो आप वास्तव में हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 10-13, अंक 114

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परोपकार की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्री योग वाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः

‘ज्ञानवान सबसे ऊँचे पद पर विराजता है। वह परम दया की खान होता है। जैसे मेघ समुद्र से जल लेकर वर्षा करते हैं तो उस जल का उत्पत्ति स्थान समुद्र ही होता है, ऐसे ही जितने लोग दयालु दिखते हैं वे ज्ञान के प्रसाद से ही दया करते हैं।’

दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छोड़िये जब लग घट में प्राण।।

जितने भी पृथ्वी पर बलवान हैं, विद्वान हैं, यशस्वी हैं, तेजस्वी हैं उन सबमें ज्ञानवान पूजने योग्य हैं क्योंकि वे भगवद्ज्ञान से सम्पन्न हैं और जिनके हृदय में भगवद्ज्ञान का उदय हुआ है उनके हृदय में दया और शांति बनी रहती है।

जितनी दया और शांति ज्यादा, उतना ही परमात्म-सुख ज्यादा होता है। जितना परमात्म-सुख ज्यादा, उतना ही सामर्थ्य ज्यादा होता है और जितना सामर्थ्य ज्यादा होता है उतनी ही परदुःखकातरता ज्यादा होती है।

अपने दुःख में रोने वाले मुस्कराना सीख ले।

दूसरों के दुःख-दर्द में आँसू बहाना सीख ले।।

जो खिलाने में मजा है आप खाने में नहीं।

जिंदगी में तू किसी के काम आना सीख ले।।

जो दूसरों का दुःख मिटाकर आनंद पाता है उसको अपना दुःख मिटाने हेतु अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ती। बिना करुणा के परदुःखकातरता का सदगुण नहीं खिलता, बिना परदुःखकातरता के सत्वगुण नहीं बढ़ता और जब तक जीवन में सत्वगुण नहीं आता, तब तक परमात्म-सुख और शांति नहीं मिलती। जिन्होंने परमात्मज्ञान पाया है उनमें दया और शांति स्वाभाविक ही रहती हैं। जैसे सागर के पानी में जलचर स्वाभाविक ही रहते हैं, ऐसे ही ज्ञानवान के हृदय में शांति और परोपकार की वृत्ति स्वाभाविक ही रहती है।

श्री वशिष्ठजी महाराज ने तो यहाँ तक कहा है कि ‘हे राम जी ! जिस देश में ज्ञानवानरूपी वृक्ष की शीतल छाया न हो उस नगर, उस देश में नहीं रहना।’

जिनके हृदय में परमात्म-सुख प्रकट हुआ है ऐसे संतों के निकट जाने से हमें ज्ञान मिलता है, शांति मिलती है और सत्प्रेरणा मिलती है। सत्यस्वरूप ईश्वर का जिन्होंने अनुभव कर लिया है, ऐसे महापुरुषों के सान्निध्य की बड़ी भारी महिमा है। कबीर जी ने भी कहा हैः

तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल कहत कबीर विचार।।

जिनको सदगुरु का ज्ञान पच गया है, उनका यह निश्चय रहता है कि आत्मा-परमात्मा ही सत्य है। पुण्यात्मा को सदा पुण्यमय निश्चय में ही रुचि होती है। पुण्यात्मा अपने आत्म-परमात्म स्वभाव का तैलधारवत् चिंतन करते हैं।

जो धर्मात्मा हैं, श्रेष्ठ पुरुष हैं, पवित्रात्मा हैं उनकी रुचि कथा-कीर्तन, हरि-चर्चा, हरि-ध्यान और हरि-ज्ञान में ही रहती है। उनके लिए इस संसार के सुख-दुःख, मान-अपमान और हानि-लाभ सब खेलमात्र हैं।

जो पुण्यात्मा हैं उनकी रुचि स्वभावतः सेवा में, परोपकार में होती है। वे भोग, विकारी सुखों के बिना भी अंदर से तृप्त रहते हैं और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए जीते हैं। वे बदनामी सहकर भी भलाई के कार्य करते हैं। वे इल्जाम सहते हैं फिर भी मुस्कराते रहते हैं। दुःख सहते हैं और सुख बाँटते हैं।

जिसको अपने जीवन में उन्नति चाहिए उसको परोपकार करना चाहिए। लौकिक और पारमार्थिक उन्नति का मूल है परोपकार। जो निष्काम सेवा नहीं कर सकता वह ठीक से आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं कर सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 114

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दरिद्र कौन है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

मैंने सुनी है एक कहानीः-

एक बाबा जी किसी के यहाँ भोजन करने हेतु गये । भोजन के बाद उसने आग्रह करके दक्षिणा के रूप में बाबा जी को चार पैसे दिये। बाबा जी ने सोचा कि ‘अब इस चार पैसे का क्या करना चाहिए ?’

उन्होंने किसी ब्राह्मण से पूछाः “इस चार पैसे का क्या सदुपयोग हो सकता है ?”

ब्राह्मण इज्जत आबरूवाला था। बोलाः “चार पैसे का सदुपयोग ? इससे होम-हवन तो न हो सकेगा। किसी दरिद्र को दे देना।”

बाबा जी ने एक दरिद्र के पास जाकर कहाः “मैं चार पैसे किसी दरिद्र को देना चाहता हूँ। दरिद्र कौन है ?”

उस जमाने में अपने को दरिद्र अथवा भिखमंगा कहलवाना कोई भी पसंद नहीं करता था। उस गरीब ने कहाः “हम दरिद्र नहीं हैं।”

विरक्त बाबा चौराहे पर खड़े हो गये और दल-बल सहित गुजरते राजा से बोलेः “ये ले लो।”

राजा ने सवारी से उतरकर बाबा जी को प्रणाम किया और बाबा ने राजा के हाथ में चार पैसे रखते हुए कहाः “इतने दिनों तक ढूँढा लेकिन कोई दरिद्र न मिला। आप धन के लिए जा रहे हैं तो मेरी तरफ से इतना ले लीजिये। ताकि मेरी चिंता मिटे।”

राजाः “मेरे पास तो इतना बड़ा राज्य है, विशाल सेना है, कई खजाने हैं तो मैं दरिद्र कैसे ?”

बाबा जीः ” जो हिंसा से, बलात्कार से झूठ-कपट और बेईमानी से किसी का धन हरता है, उससे बढ़कर दरिद्र दूसरा कौन हो सकता है ? दरिद्र वह नहीं है जिसके पास धन नहीं है। वरन् जैसे प्यासा आदमी पानी के लिए छटपटाता है, वैसे ही धन होते हुए भी जो और धन पाने के लिए छटपटाता है वह दरिद्र है।”

आद्यशंकराचार्य ने कहा हैः कोऽवा दरिद्रः विशालतृष्णः। ‘दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा विशाल है।’

जिसकी इच्छा-वासनाएँ ज्यादा हैं, जिसकी आवश्यकताएँ ज्यादा हैं वह दरिद्र है।

धन की कमी या अधिकता से कोई निर्धन या धनवान नहीं होता। संतोष की कमी वाला आदमी ही निर्धन है और संतोषी आदमी ही धनवान है। समझ की कमी से आदमी निर्धन होता है और सच्ची समझ होने पर आदमी धनवान होता है।

धन किसलिए है चाहता तू आप मालामाल है।

सिक्के सभी जिससे बने तू वह महा टकसाल है।।

चाह न कर चिंता न कर चिंता ही बड़ी दुष्ट है।

है श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ मगर चाह करके भ्रष्ट है।।

किसी ने कहा हैः

चाह चमारी चूहरी अति नीचन को नीच।

तू तो पूरण ब्रह्म था जो चाह न होती बीच।।

जब हृदय में चाह आ जाती है तब आदमी लघु हो जाता है। जिस समय तृष्णा हृदय पर कब्जा कर लेती है, उस समय आदमी तुच्छ हो जाता है और जिस समय अनजाने में भी तृष्णा नहीं रहती उस समय आदमी के चित्त में आनन्द, प्रेम और दिव्यता छलकती है।

वासना मिटाने का पुरुषार्थ ही वास्तविक पुरुषार्थ है। वासना मिटाने का अर्थ यह नहीं है कि जैसी इच्छा हुई वैसा कर लिया। इससे वासना मिटेगी नहीं वरन् गहरी उतर जायेगी। इसलिए ज्ञान का प्रकाश और विवेक का सहारा लेकर वासना को निवृत्त करने का यत्न करना चाहिए।

‘यह मिल गया, अब यह और मिल जाय….’ ऐसी चाह उचित नहीं। विवेक का उपयोग करें कि जो चाहते हैं उसकी आवश्यकता है कि इच्छा ? जो आवश्यकता होगी वह तो अपने-आप सहज में पूरी होती जायेगी। उसके लिए बेचैनी नहीं रहेगी और अगर व्यर्थ की इच्छा होगी तो पूर्ण होने के बाद भी अहंकार या आसक्ति बढ़ा देगी।

बिन जरूरी इच्छा अहंकार बढ़ा देती है। शरीर का गुजारा चलाने के लिए रोजी-रोटी, वस्त्र और मकान की आवश्यकता है। ‘इसके पास एक फ्लैट है तो मेरे पास दो हैं।’ इस प्रकार के भाव से एक फ्लैटवाले के आगे दो फ्लैटवाले का अहंकार खड़ा हो जायेगा। पड़ोसी की पत्नी लड़ाकू होगी तो लगेगा, ‘हम भाग्यशाली हैं कि अच्छी पत्नी मिली है।’

लेकिन भैया ! दो फ्लैट भी कब तक और अच्छी पत्नी भी कब तक ? पत्नी भी कभी बीमार पड़ेगी तो कभी मायके चली जायेगी। इसी प्रकार या तो धन चला जायेगा या धन को छोड़कर आप चले जायेंगे। जहाँ चाह रखी, वहीं नियति कुछ-न-कुछ मुसीबत जरूर खड़ी कर देगी। भोले बाबा ने कहा हैः

मानव तुझे नहीं याद क्या ? तू ब्रह्म का ही अंश है।

कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है, सद्ब्रह्म तेरा वंश है।।

संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहना यहाँ।

कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य की निष्कंटक जहाँ।।

अपनी असलियत को जान लो कि आप वास्तव में कौन हो ? आपका वास्तविक स्वरूप क्या है ? आप कितने महिमावान हो ? आप कितने धनवान हो ?

फिर चाहे आयकर वाले छापा मारें या कोई बम-धड़ाका करे लेकिन वे आपका बाल तक बाँका नहीं कर सकते, आप (आपका आत्मा) इतने महान हो।

अपनी महिमा को नहीं जानते इसीलिए आप परेशान रहते हो। सात्विक साधना और दिव्य स्वभाव के अपने आत्मप्रभाव को नहीं जानते इसीलिए आप परिस्थितियों के गुलाम हो जाते हो, यह जानते हुए भी कि परिस्थितियाँ सदा एक जैसी नहीं रहती हैं।

जो विश्वास अपने अंतर्यामी परमात्मा पर करना चाहिए वह विश्वास अगर अपनी तंदुरुस्ती पर किया तो जरूर बीमारी आ जायेगी। जो विश्वास अपने आत्मस्वरूप पर करना चाहिए वह अगर धन पर किया तो धन में गड़बड़ हो जायेगी। जो विश्वास अपने ईश्वर पर करना चाहिए वह विश्वास यदि अपने मित्रों सम्बन्धियों पर किया तो वे अवश्य धोखा दे देंगे। जो विश्वास अपने स्वरूप पर होना चाहिए वह विश्वास अगर व्यक्तियों, स्थूल परिस्थितियों तथा स्थूल पदार्थों पर किया तो अवश्य पछताना पड़ेगा।

यह दैवी सिद्धान्त है कि ज्यों-ज्यों आप अपनी आत्मा पर निर्भर होते हो, त्यों-त्यों जगत की चीजें आपकी सहायता हेतु, सेवा के लिए आकर्षित हो जाती है और ज्यों-ज्यों आप अपने अंतर्यामी से विमुख होने जाते हो, त्यों-त्यों वे चीजें आपसे दूर भागने लगती हैं। यदि आप सूर्य की तरफ आगे बढ़ते हो तो छाया आपके पीछे आती है और यदि सूर्य को पीठ देकर छाया को पकड़ने जाते हो तो छाया दूर-दूर भागती है।

अतः सदैव अपने अंतर्यामी ईश्वर पर भरोसा रखें। अपनी इच्छाएँ-वासनाएँ घटाते जायें और ईश्वर प्रीति बढ़ाते जायें क्योंकि इच्छा ही मनुष्य को सब होते हुए भी दरिद्र बना देती है। जिसके पास बाहर का पूरा साम्राज्य होते हुए भी अगर भीतर में वासना है तो वह सम्राट होते हुए भी कंगाल है और जिसके पास ठीक से रहने को झोंपड़ा नहीं है, ठीक से खाने को अन्न नहीं है, ठीक से पहनने को वस्त्र नहीं है फिर भी यदि उसके जीवन में कोई इच्छा-वासना नहीं है तो वह परम धनवान है। उसके जैसा सुखी त्रिलोकी में कोई नहीं….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 114

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