जल-पान विचार

जल-पान विचार


तृप्ति, संतोष व उत्साह की उत्पत्ति, अन्न के पाचन, रसादि धातुओं के रूपान्तरण और सम्पूर्ण शरीर में रक्त के यथायोग्य परिभ्रमण के लिए जल तथा अन्य पेय पदार्थों की आवश्यकता होती है। सभी पेय पदार्थों में पानी सर्वश्रेष्ठ है। इसे जीवन कहा गया है। शारीरिक बल, आरोग्य और पुष्टि की वृद्धि में जल सहायक होता है।

पानी कब, कितना और कैसे पीना चाहिए ? इसके बारे में संशय उत्पन्न हो जाय, इतने मत-मतान्तर प्रचलित हैं। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार पानी का समयानुसार प्रयोग अलग-अलग परिणाम दिखाता है।

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।

भोजने चामृतं वारि भोजनान्ति विषप्रदम्।।

‘अर्थात् अजीर्ण होने पर जलपान औषधवत् काम करता है। भोजन के पच जाने पर अर्थात् दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक होता है। भोजन के मध्यकाल में पानी पीना अमृत के समान और भोजन के अंतकाल में विष के समान अर्थात् पाचनक्रिया के लिए हानिकारक होता है।’

जठराग्नि प्रदीप्त रखने के लिए थोड़ा-थोड़ा पानी बार-बार पीना चाहिए। भोजन से पहले पानी पीने से जठराग्नि मंद हो जाती है, शरीर कृश हो जाता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से स्थूलता आती है परन्तु भोजन के बीच में पानी पीने से पाचनक्रिया ठीक होती है, धातुसाम्य व शरीर का संतुलन बना रहता है।

आमाशय के चार भाग मानकर दो भाग अन्न सेवन करें। एक भाग जल तथा पेय पदार्थों से भरें और एक भाग वायु के संचरण के लिए रखें। यह उचित भोजन पद्धति है। इससे भोजन के बाद पेट में भारीपन, हृदय की गति में अवरोध अथवा श्वासोच्छ्वास में कष्ट का अनुभव नहीं होता है।

स्वस्थ, निरोगी अवस्था में पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती। ग्रीष्म व शरद ऋतु को छोड़कर अन्य ऋतुओं में पानी कम मात्रा में ही पीना चाहिए। इन दो ऋतुओं में नैसर्गिक उष्णता व पित्त प्रकोप हो जाने के कारण पानी की अधिक आवश्यकता होती है।

जल पान के साथ इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि भोजन में पानी का उपयोग, द्रव-तरल व स्निग्ध पदार्थों का समावेश सही मात्रा में हो। भोजन रूखा-सूखा नहीं होना चाहिए। भोजन में पतली दाल, सब्जी, कढ़ी, रस, छाछ आदि का समावेश करने से पानी की आवश्यक मात्रा की पूर्ति अपने-आप हो जाती है।

ऊषःपान

ऊषःपान अर्थात् सूर्योदय से पहले पानी पीना। आयुर्वेद के ‘योगरत्नाकर ग्रंथ’ में इसके बारे में लिखा गया हैः

विगत घननिशीथे प्रातरूत्थान नित्यं।

पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि।।

स भवतिमतिपूर्णश्चक्षुषातार्क्ष्यतुल्यः।

वलियलितविहीनः सर्वरोगविमुक्तः।।

प्रातः सूर्योदय से पहले, कुल्ला करके, रात का रखा हुआ दो से चार बड़े गिलास अर्थात् आधे से सवा लीटर पानी रोज नियमित रूप से पीने से सब रोगों से मुक्ति होती है। ऊषःपान से मति व दृष्टि गरूड़ के समान तीक्ष्ण हो जाती है।

अनेक कष्टसाध्य बीमारियों जैसे-मधुमेह, दमा, संधिवात, अम्लपित्त, मोटापा तथा पेट के विविध प्रकार के रोगों, स्त्रियों के अनियमित मासिक तथा श्वेतप्रदर में इस प्रयोग से चमत्कारिक लाभ दिखायी देते हैं।

यह अत्यंत सरल प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। प्रारम्भ में एक साथ चार गिलास पानी नहीं पी सकें तो एक गिलास से शुरु करके धीरे-धीरे एक-एक गिलास बढ़ाते जायें। फिर नियमित रूप से यह प्रयोग जारी रखें। प्रातः पानी पीने के बाद लगभग एक घंटे तक कुछ खाये पियें नहीं। सुबह के अल्पाहार तथा दोपहर व रात्रि के भोजन के बाद दो घंटे बीत जाने पर ही पानी पीयें।

जल पान के लिए ताम्र का पात्र आरोग्यप्रदायक व पवित्र माना जाता है। जल चिकित्सा (हाइड्रोथैरेपी) के अनुसार रात भर ताँबे के बर्तन में रखा हुआ पानी अधिक लाभदायी है। ताँबे का बर्तन भी जमीन के ऊपर न रखा हो। उसे लकड़ी जैसे विद्युत के कुचालक पदार्थ पर रखना चाहिए। सुबह वह पानी पीते समय पीने वाले के पैर भी जमीने का स्पर्श न करें यानी कम्बल या टाट पर बैठकर पानी पीना चाहिए।

विविध व्याधियों में जल-पान विचार

1.ज्वरः ज्वर में उबालकर आधा किया हुआ पानी ही पिलायें। तीव्र ज्वर में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। 1 लीटर पानी में सोंठ, पित्तपापड़ा, नागरमोथ, खस, कालीखस, चंदन इऩ सबका 1-1 ग्राम चूर्ण मिलाकर पानी एक चौथाई रह जाय तब तक उबालें। फिर छानकर, ठंडा किया हुआ पानी थोड़ा-थोड़ा करके बार-बार रोगी को पिलायें। इस समय 72 घंटे अन्य औषध या आहार न दें। इससे आम का पाचन होने से ज्वर से छुटकारा मिलता है।

2.सूतिकावस्थाः प्रसूति के बाद अजवायन, वायविडंग व जीरा डालकर उबाला हुआ पानी पीने से अनेक व्याधियों से रक्षा होती है। भूख खुलकर लगती है व गर्भाशय की शुद्धि होती है।

3.अजीर्ण, अफरा व पेट के अन्य विकारः एक लीटर पानी में एक चम्मच अजवायन  डालकर उबालें। जब पानी आधा रह जाय तब छानकर गुनगुना पानी बार-बार रोगी को पिलायें।

4.अतिसारः उपरोक्त विधि (नंबर 3) में अजवायन की जगह साबुत सौंठ डालकर पानी बनायें। कपड़े से दो बार छानकर यह पानी दिनभर पीने के काम में लायें। आहार न लें। इससे आम का पाचन व मल का संग्रहण होता है।

बहूमूत्रता (पेशाब का अधिक आना), दमा, श्वास व अन्य कफविकारों में भी यह सिद्ध जल बहुत लाभदायी है। लाभ होने के बाद भी कुछ दिन तक यह प्रयोग चालू रखें।

पित्तविकारः उपरोक्त विधि (नंबर 3) में अजवायन की जगह सूखे धनिये का बनाया हुआ सिद्ध जल शरीर तथा आँखों की जलन, अम्लपित्त, पेट के छाले, खूनी बवासीर में अत्यंत उपयोगी है। मिश्री मिलाकर पीने से अधिक फायदा होता है।

चाय काफी तथा अन्य मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले व्यक्तियों हेतु यह प्रयोग विषनाशक है।

उष्णोदक पान

गुनगुना पानी आम का नाश करने वाला, अग्निदीपक व कफ-वातनाशक होता है। उष्णोदक पान (गरम पानी) से मल-मूत्र की प्रवृत्ति साफ होती है। श्वास व कास (खाँसी) व्याधियों में उष्णोदक पान हितावह है।

मोटापे में प्यास लगने पर अथवा भोजन के बीच में भी केवल उष्णोदक पान करने से वज़न घटने लगता है। सुबह हलके गुनगुने पानी में शहद मिलाकर लें। गरम पानी व शहद मिलाकर लेना विरुद्ध आहार होने के कारण निषिद्ध है।

जल-पान निषेध

जलोदर में पानी पूर्णतः निषिद्ध है।

प्लीहावृद्धि, पांडुरोग, अतिसार, बवासीर, ग्रहणी, मंदाग्नि व सूजन में अत्यन्त आवश्यक हो तभी अल्प मात्रा में तथा उपरोक्त विधि से औषध द्रव्यों से बनाया हुआ सिद्ध जल ही देना चाहिए।

अत्यंत शीतल जल का सेवन न करें। इससे गले के रोग, कफ तथा वातविकार व अग्निमांद्य होने की संभावना रहती है।

तेज धूप से आकर व अत्यन्त भूख लगने पर पानी पीना विषपान करने के समान है।

बासी पानी का प्रयोग बहुत प्यास लगने पर भी न करें। यह अम्लधर्मी होने के कारण कफ को बढ़ाता है।

अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।

आजकल प्यास लगने पर अथवा भोजन के समय भी पानी की जगह कोल्ड ड्रिंक्स अथवा आईसक्रीम का उपयोग फैशन के नाम पर किया जाता है। ये शरीर में थोड़े समय के लिए तो ठंडक उत्पन्न करते हैं परन्तु आंतरिक गर्मी को बढ़ाते हैं, मज्जाजंतुओं को उद्दीप्त करते हैं और कामोत्तेजना बढ़ाते हैं। इनके सेवन से झूठी भूख लगती है व स्थूलता आती है। अतः इनका सेवन न करें।

साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, जहाँगीर पुरा, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 114

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