Monthly Archives: June 2002

जैसा खाओ अन्न….


बासमती चावल बेचने वाले एक सेठ की स्टेशन मास्टर से साँठ-गाँठ हो गयी। सेठ को आधी कीमत पर बासमती चावल मिलने लगा। सेठ को हुआ कि इतना पाप हो रहा है तो कुछ धर्म-कर्म भी करना चाहिए।

एक दिन उसने बासमती चावल की खीर बनवायी और किसी साधु बाबा को आमंत्रित कर भोजन प्रसाद लेने के लिए प्रार्थना की।

साधु बाबा ने बासमती चावल की खीर खायी। दोपहर का समय था। सेठ ने कहाः

“महाराज ! अभी आराम कीजिए। थोड़ी धूप कम हो जाय फिर पधारियेगा।”

साधु बाबा ने बात स्वीकार कर ली। सेठ ने 100-100 रूपये वाली 10 लाख जितनी रकम की गड्डियाँ उसी कमरे में चादर से ढँककर रख दी।

साधु बाबा आराम करने लगे। खीर थोड़ी हजम हुई। चोरी के चावल थे। साधु बाबा के मन में हुआ  कि इतनी सारी गड्डियाँ पड़ी हैं, एक-दो उठाकर झोले में रख लूँ तो किसको पता चलेगा ? साधु बाबा ने एक गड्डी उठाकर रख ली। शाम हुई तो सेठ को आशीर्वाद देकर चल पड़े।

सेठ दूसरे दिन रूपये गिनने बैठा तो 1 गड्डी (दस हजार रुपये) कम निकली। सेठ ने सोचा कि महात्मा तो भगवत्पुरुष थे, वे क्यों लेंगे ? नौकरों की धुलाई-पिटाई चालू हो गयी। ऐसा करते-करते दोपहर हो गयी।

इतने में साधु बाबा आ पहुँचे तथा अपने झोले में से गड्डी निकाल कर सेठ को देते हुए बोलेः

“नौकरों को मत पीटना, गड्डी मैं ले गया था।”

सेठ ने कहाः “महाराज ! आप क्यों लेंगे ? जब यहाँ नौकरों से पूछताछ शुरु हुई तब कोई भय के मारे आपको दे गया होगा और आप नौकर को बचाने के उद्देश्य से ही वापस करने आये हैं क्योंकि साधु तो दयालु होते हैं।”

साधुः “यह दयालुता नहीं है। मैं सचमुच में तुम्हारी गड्डी चुराकर ले गया था। सेठ ! तुम सच बताओ कि तुम कल खीर किसकी और किसलिए बनायी थी ?”

सेठ ने सारी बात बता दी कि स्टेशन मास्टर से चोरी के चावल खरीदता हूँ, उसी चावल की खीर थी।

साधु बाबाः “चोरी के चावल की खीर थी इसलिए उसने मेरे मन में भी चोरी का भाव उत्पन्न कर दिया। सुबह जब पेट खाली हुआ, तेरी खीर का सफाया हो गया तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई कि ‘हे राम…. यह क्या हो गया ? मेरे कारण बेचारे नौकरों पर न जाने क्या बीत रही होगी। इसलिए तेरे पैसे लौटाने आ गया।”

इसीलिए कहते हैं किः

जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन। जैसा पीओ पानी वैसी होवे वाणी।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 17 अंक 114

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जल-पान विचार


तृप्ति, संतोष व उत्साह की उत्पत्ति, अन्न के पाचन, रसादि धातुओं के रूपान्तरण और सम्पूर्ण शरीर में रक्त के यथायोग्य परिभ्रमण के लिए जल तथा अन्य पेय पदार्थों की आवश्यकता होती है। सभी पेय पदार्थों में पानी सर्वश्रेष्ठ है। इसे जीवन कहा गया है। शारीरिक बल, आरोग्य और पुष्टि की वृद्धि में जल सहायक होता है।

पानी कब, कितना और कैसे पीना चाहिए ? इसके बारे में संशय उत्पन्न हो जाय, इतने मत-मतान्तर प्रचलित हैं। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार पानी का समयानुसार प्रयोग अलग-अलग परिणाम दिखाता है।

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।

भोजने चामृतं वारि भोजनान्ति विषप्रदम्।।

‘अर्थात् अजीर्ण होने पर जलपान औषधवत् काम करता है। भोजन के पच जाने पर अर्थात् दो घंटे बाद पानी पीना बलदायक होता है। भोजन के मध्यकाल में पानी पीना अमृत के समान और भोजन के अंतकाल में विष के समान अर्थात् पाचनक्रिया के लिए हानिकारक होता है।’

जठराग्नि प्रदीप्त रखने के लिए थोड़ा-थोड़ा पानी बार-बार पीना चाहिए। भोजन से पहले पानी पीने से जठराग्नि मंद हो जाती है, शरीर कृश हो जाता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से स्थूलता आती है परन्तु भोजन के बीच में पानी पीने से पाचनक्रिया ठीक होती है, धातुसाम्य व शरीर का संतुलन बना रहता है।

आमाशय के चार भाग मानकर दो भाग अन्न सेवन करें। एक भाग जल तथा पेय पदार्थों से भरें और एक भाग वायु के संचरण के लिए रखें। यह उचित भोजन पद्धति है। इससे भोजन के बाद पेट में भारीपन, हृदय की गति में अवरोध अथवा श्वासोच्छ्वास में कष्ट का अनुभव नहीं होता है।

स्वस्थ, निरोगी अवस्था में पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती। ग्रीष्म व शरद ऋतु को छोड़कर अन्य ऋतुओं में पानी कम मात्रा में ही पीना चाहिए। इन दो ऋतुओं में नैसर्गिक उष्णता व पित्त प्रकोप हो जाने के कारण पानी की अधिक आवश्यकता होती है।

जल पान के साथ इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि भोजन में पानी का उपयोग, द्रव-तरल व स्निग्ध पदार्थों का समावेश सही मात्रा में हो। भोजन रूखा-सूखा नहीं होना चाहिए। भोजन में पतली दाल, सब्जी, कढ़ी, रस, छाछ आदि का समावेश करने से पानी की आवश्यक मात्रा की पूर्ति अपने-आप हो जाती है।

ऊषःपान

ऊषःपान अर्थात् सूर्योदय से पहले पानी पीना। आयुर्वेद के ‘योगरत्नाकर ग्रंथ’ में इसके बारे में लिखा गया हैः

विगत घननिशीथे प्रातरूत्थान नित्यं।

पिबति खलु नरो यो घ्राणरन्ध्रेण वारि।।

स भवतिमतिपूर्णश्चक्षुषातार्क्ष्यतुल्यः।

वलियलितविहीनः सर्वरोगविमुक्तः।।

प्रातः सूर्योदय से पहले, कुल्ला करके, रात का रखा हुआ दो से चार बड़े गिलास अर्थात् आधे से सवा लीटर पानी रोज नियमित रूप से पीने से सब रोगों से मुक्ति होती है। ऊषःपान से मति व दृष्टि गरूड़ के समान तीक्ष्ण हो जाती है।

अनेक कष्टसाध्य बीमारियों जैसे-मधुमेह, दमा, संधिवात, अम्लपित्त, मोटापा तथा पेट के विविध प्रकार के रोगों, स्त्रियों के अनियमित मासिक तथा श्वेतप्रदर में इस प्रयोग से चमत्कारिक लाभ दिखायी देते हैं।

यह अत्यंत सरल प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। प्रारम्भ में एक साथ चार गिलास पानी नहीं पी सकें तो एक गिलास से शुरु करके धीरे-धीरे एक-एक गिलास बढ़ाते जायें। फिर नियमित रूप से यह प्रयोग जारी रखें। प्रातः पानी पीने के बाद लगभग एक घंटे तक कुछ खाये पियें नहीं। सुबह के अल्पाहार तथा दोपहर व रात्रि के भोजन के बाद दो घंटे बीत जाने पर ही पानी पीयें।

जल पान के लिए ताम्र का पात्र आरोग्यप्रदायक व पवित्र माना जाता है। जल चिकित्सा (हाइड्रोथैरेपी) के अनुसार रात भर ताँबे के बर्तन में रखा हुआ पानी अधिक लाभदायी है। ताँबे का बर्तन भी जमीन के ऊपर न रखा हो। उसे लकड़ी जैसे विद्युत के कुचालक पदार्थ पर रखना चाहिए। सुबह वह पानी पीते समय पीने वाले के पैर भी जमीने का स्पर्श न करें यानी कम्बल या टाट पर बैठकर पानी पीना चाहिए।

विविध व्याधियों में जल-पान विचार

1.ज्वरः ज्वर में उबालकर आधा किया हुआ पानी ही पिलायें। तीव्र ज्वर में अधिक पानी की आवश्यकता होती है। 1 लीटर पानी में सोंठ, पित्तपापड़ा, नागरमोथ, खस, कालीखस, चंदन इऩ सबका 1-1 ग्राम चूर्ण मिलाकर पानी एक चौथाई रह जाय तब तक उबालें। फिर छानकर, ठंडा किया हुआ पानी थोड़ा-थोड़ा करके बार-बार रोगी को पिलायें। इस समय 72 घंटे अन्य औषध या आहार न दें। इससे आम का पाचन होने से ज्वर से छुटकारा मिलता है।

2.सूतिकावस्थाः प्रसूति के बाद अजवायन, वायविडंग व जीरा डालकर उबाला हुआ पानी पीने से अनेक व्याधियों से रक्षा होती है। भूख खुलकर लगती है व गर्भाशय की शुद्धि होती है।

3.अजीर्ण, अफरा व पेट के अन्य विकारः एक लीटर पानी में एक चम्मच अजवायन  डालकर उबालें। जब पानी आधा रह जाय तब छानकर गुनगुना पानी बार-बार रोगी को पिलायें।

4.अतिसारः उपरोक्त विधि (नंबर 3) में अजवायन की जगह साबुत सौंठ डालकर पानी बनायें। कपड़े से दो बार छानकर यह पानी दिनभर पीने के काम में लायें। आहार न लें। इससे आम का पाचन व मल का संग्रहण होता है।

बहूमूत्रता (पेशाब का अधिक आना), दमा, श्वास व अन्य कफविकारों में भी यह सिद्ध जल बहुत लाभदायी है। लाभ होने के बाद भी कुछ दिन तक यह प्रयोग चालू रखें।

पित्तविकारः उपरोक्त विधि (नंबर 3) में अजवायन की जगह सूखे धनिये का बनाया हुआ सिद्ध जल शरीर तथा आँखों की जलन, अम्लपित्त, पेट के छाले, खूनी बवासीर में अत्यंत उपयोगी है। मिश्री मिलाकर पीने से अधिक फायदा होता है।

चाय काफी तथा अन्य मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले व्यक्तियों हेतु यह प्रयोग विषनाशक है।

उष्णोदक पान

गुनगुना पानी आम का नाश करने वाला, अग्निदीपक व कफ-वातनाशक होता है। उष्णोदक पान (गरम पानी) से मल-मूत्र की प्रवृत्ति साफ होती है। श्वास व कास (खाँसी) व्याधियों में उष्णोदक पान हितावह है।

मोटापे में प्यास लगने पर अथवा भोजन के बीच में भी केवल उष्णोदक पान करने से वज़न घटने लगता है। सुबह हलके गुनगुने पानी में शहद मिलाकर लें। गरम पानी व शहद मिलाकर लेना विरुद्ध आहार होने के कारण निषिद्ध है।

जल-पान निषेध

जलोदर में पानी पूर्णतः निषिद्ध है।

प्लीहावृद्धि, पांडुरोग, अतिसार, बवासीर, ग्रहणी, मंदाग्नि व सूजन में अत्यन्त आवश्यक हो तभी अल्प मात्रा में तथा उपरोक्त विधि से औषध द्रव्यों से बनाया हुआ सिद्ध जल ही देना चाहिए।

अत्यंत शीतल जल का सेवन न करें। इससे गले के रोग, कफ तथा वातविकार व अग्निमांद्य होने की संभावना रहती है।

तेज धूप से आकर व अत्यन्त भूख लगने पर पानी पीना विषपान करने के समान है।

बासी पानी का प्रयोग बहुत प्यास लगने पर भी न करें। यह अम्लधर्मी होने के कारण कफ को बढ़ाता है।

अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए।

आजकल प्यास लगने पर अथवा भोजन के समय भी पानी की जगह कोल्ड ड्रिंक्स अथवा आईसक्रीम का उपयोग फैशन के नाम पर किया जाता है। ये शरीर में थोड़े समय के लिए तो ठंडक उत्पन्न करते हैं परन्तु आंतरिक गर्मी को बढ़ाते हैं, मज्जाजंतुओं को उद्दीप्त करते हैं और कामोत्तेजना बढ़ाते हैं। इनके सेवन से झूठी भूख लगती है व स्थूलता आती है। अतः इनका सेवन न करें।

साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, जहाँगीर पुरा, सूरत।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 114

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कर्मयोग की सिद्धता


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।।

‘हे धनंजय ! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक के द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किये हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।’ (गीताः 4.41)

संसार में जो भी जन्म-मृत्यु हो रहे हैं, सुख-दुःख हो रहे हैं, वे सारे कर्मों के खेल हैं। कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके…. कर्मों के बन्धन से ही हम मनुष्य लोक में आते हैं। किन्तु यदि कर्म करने का सही ढंग आ जाय तो ये ही कर्म हमें सर्व बंधनों से छुड़ाकर मुक्ति के सिंहासन पर भी प्रतिष्ठित कर सकते हैं।

योगसंन्यस्तकर्माणं….. जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है उसे कर्म बंधन में नहीं बाँधते। यही कर्मयोग है। अगर यह कर्मयोग की कला आ जाय तो किया गया कर्म, कर्मयोग बन जाता है और परमात्मा को समर्पित हो जाता है अन्यथा वही कर्म बंधन का कारण बन जाता है।

जैसे, तलवार चलाने की कला आती है तो तलवार दुश्मन का काम तमाम कर सकती है अगर कला नहीं आती है तो खुद का पैर भी काट सकती है। विद्युत का उपयोग करने की कला है तो विद्युत अंधकार दूर कर सकती है, तरह-तरह के साधनों को चला सकती है। लेकिन अगर उपयोग करने की कला नहीं है तो स्पर्श करने पर मौत भी ला सकती है।

ऐसे ही ये कर्म हैं जो अपने, पितरों के, कुटुंबियों के और समाज के भवबंधन को काटने में सहायक होते हैं परन्तु अगर कर्म करने की कला नहीं है तो अपनी, कुटुंब की और समाज की हानि भी करते हैं।

जिसने कर्म को कर्मयोग में परिणत कर दिया है वह कर्म करते हुए भी बंधायमान नहीं होता है।

वास्तव में कर्म प्रकृति में होते हैं। देह, मन तथा साधनों से कर्म होते हैं और कर्म करने की सत्ता परमात्मा की होती है। कर्म होते हैं साधनों से और साधन मिलते हैं संसार से। फिर भले शरीर साधन हो या मन साधन हो, चाहे रुपया साधन हो या शुद्ध भाव साधन हो। कर्म होते हैं साधनों से, साधन हैं प्रकृति के और प्रकृति है परमात्मा की।

‘परमात्मा की वस्तुएँ परमात्मा के ही संसार के काम आ गयीं, इसमें मैं कर्ता का किस बात का ?’ ऐसा विचार करके जो शास्त्रानुसार कर्म करता है उसके कर्म से कर्म कट जाते हैं और वह कर्मयोग में सफल होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेता है।

‘कर्म योगी ऐसा मानता है कि यह शरीर पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की ओर जा रहा है। ऐसे ही आदि और अंतवाली सब वस्तुएँ बदलने वाली हैं। संसार की इन वस्तुओं को संसार की सेवा में लगाना ही हमारा स्वभाव होना चाहिए, हमारा कर्तव्य होना चाहिए और हमारा आत्मा परमात्मा से अभिन्न है, अतः उस आत्मतत्व को जानने के लिए आत्मविचार करना चाहिए।

शरीर से जो भी कर्म करें, उन कर्मों को ईश्वरार्पित करते हुए परहित के लिए करें। कोई भी काम अपने व्यक्तिगत हित के लिए न करें। अगर व्यक्तिगत हित का विचार छोड़कर काम किया जाता है तो वह काम दिव्य हो जाता है, वही कार्य महान हो जाता है।

‘बापू जी ! हम अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कर्म न करें तो हम जीयेंगे कैसे ?’

अगर आप व्यक्तिगत लाभ की इच्छा छोड़कर कर्म करते हो तो आपके योग क्षेम की जवाबदारी अनंत की है और जब वह आपका योगक्षेम वहन करेगा तो आपका जीवन दिव्य हो जायेगा।

‘महाराज ! जब अपने हित के लिए कर्म नहीं करना है तो कर्म करें ही क्यों ?’

कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता है। अपने हित का उद्देश्य होगा तो कर्म बाँधेगा। अपना हित छोड़कर परहित के लिए कर्म करेंगे तो कर्म आपके कर्मबंधन काट देंगे।

अपने हित के लिए जो कर्म किये जाते हैं उन कर्मों में फल की आसक्ति होती है। फलासक्ति, भोगासक्ति और कर्मासक्ति ये जीव को बाँधने वाली होती हैं। आसक्ति से किये हुए कर्म से कर्ता की योग्यता कुंठित होती है। अनासक्त होकर किये गये कर्म से दिव्यता निखरती है।

सेठ करोड़ीमल बड़े लोभी थे। उनकी पत्नी सत्संगी थी। उसने देखा की करोड़ों रुपये हो गये फिर भी इनका लोभ छूटा नहीं है। एक बार अपने पति को समझा-बुझाकर कथा में ले गयी।

कथाकार पंडित दान की महिमा का बड़े सुंदर ढंग से वर्णन करते थे। करोड़ीमल ने दान की महिमा सुनी और सुनते-सुनते डोलने लगे। पत्नी बड़ी खुश हो गयी कि ‘चलो, अब ये भक्त बन जायेंगे।’ कथा पूरी होने पर दोनों घर पहुँचे। पत्नी ने बातों-बातों में पूछ लिया कि ‘दान की महिमा सुनी ?’

सेठ बोलेः “बहुत बढ़िया कथा थी। अब मैं कल से ही दान लेना शुरु कर दूँगा।”

पत्नी बेचारी और दुःखी हो गयी कि कथा सुनकर, दान देकर कर्मबंधन काटने की जगह पर सेठ ने तो कर्मबंधन बढ़ाने की बात सोच ली ! और अधिक धन कमाने का लोभ बढ़ा लिया…….

किसी को धनवान देखकर अगर प्यार किया तो आपकी आसक्ति बढ़ जायेगी, किसी को सत्तावान देखकर प्यार करोगे तो आपका अंतःकरण भयभीत रहेगा, किसी की सुंदरता देखकर उससे प्यार करोगे तो कामविकार बढ़ जायेगा और कोई कभी-न-कभी आपके काम आयेगा इसलिए प्यार करोगे तो लोभ, कपट और दीनता बढ़ जायेगी। अतः आप किसी से कुछ लेने की इच्छा न रखें वरन् ‘मुझसे कोई परहित का कार्य हो जाय तो कितना अच्छा !’ ऐसी भावना रखें।

जो धनवान होता है उससे अगर हम मीठी-मीठी बातें करते हैं तो समझो, हमारे मन में धन का लालच है। अगर हम सत्ताधीश के आगे गिड़गिड़ाते हैं तो समझो, हमारे मन में आपका कोई करवाने का लालच है।

चाहे कोई धनवान हो या सत्तावान हो, आप उससे कुछ लेने की इच्छा न रखो वरन् उसके हित की भावना रखो। आप कुछ लेने के लिए, कुछ पाने के लिए कोई प्रवृत्ति न करो वरन् किसी का हित हो  इसलिए प्रवृत्ति करो। फिर देखो जीने का मजा…. आपके  प्रारब्ध में जो कुछ होगा वह तो खिंचा चला ही आयेगा। आप चाहो तो उसका उपयोग करो अथवा ठुकरा दो आपकी मर्जी।

मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है, फल भोगने में नहीं। कर्म करके फल पाने की इच्छा छोड़ते ही कर्म करने की आसक्ति छूट जायेगी। कर्म ऐसे करो कि कर्म करने से आपका मन उपराम हो जाय, विचार ऐसे करो कि विचारों का चलना बंद हो जाय, देखो ऐसा कि देखने की वासना मिट जाय, सुनो ऐसा कि संसार का सुनना खत्म हो जाय…. फिर जो सुनो वह ईश्वरसम्बन्धी ही हो, जो देखो वह ईश्वरमय ही दिखायी पड़े, जो बोलो वह ईश्वर के विषय में ही हो, जो विचार करो वह ईश्वरसम्बन्धी ही हो और जो करो वह ईश्वरमय ही हो। ऐसा करने से कर्मबंधन कट जायेंगे और आपका कर्मयोग सिद्ध हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002,  पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 114

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