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और हृदय परिवर्तन हो गया…


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

चाहे कोई विश्व का चक्रवर्ती सम्राट ही क्यों न हो किन्तु इस जहाँ से तो उसे भी खाली हाथ ही जाना है।

सिकंदर दारा हल्या वया सोने लंका वारा हल्या वया।

कारुन खजाने जा मालिक हथे खाली विचारा हल्या वया।।

‘सारे विश्व पर राज्य करने का स्वप्न देखने वाला सिकंदर न रहा, जिसके पास सोने की लंका थी, वह रावण भी न रहा, बहुत बड़े खजाने का मालिक कारुन भी न रहा। ये सब इस जहाँ से खाली हाथ ही चले गये।’

कारुन बादशाह तो इतना जालिम था कि उसने कब्रों तक को नहीं छोड़ा, कर-पर-कर लगाकर प्रजा का खून ही चूस लिया था। आखिर जब देखा कि प्रजा के पास अब एक भी चाँदी का रुपया नहीं बचा है, तब उसने घोषणा कर दी कि ‘जिसके पास चाँदी का एक भी रुपया होगा उसके साथ मैं अपनी बेटी की शादी कर दूँगा।’

बादशाह की यह घोषणा सुनकर एक युवक ने अपनी माँ से कहाः

“अम्माजान ! कुछ भी हो एक रुपया दे दे।”

माँ- “बेटा ! कारुन बादशाह के राज में किसी के पास रुपया ही कहाँ बचा है, जो तुझे एक रुपया दे दूँ ? तू खाना खा ले, मेरे लाल !”

युवकः “अम्माजान ! मैं खाना तभी खाऊँगा जब तू मुझे एक रुपया दे देगी। मैं शहजादी के बिना नहीं जी सकता।”

हकीकत तो यह है कि परमात्मा के बिना कोई जी नहीं सकता है लेकिन बेवकूफी घुस जाती है कि ‘मैं प्रेमिका के बिना नहीं जी सकता… मैं शराब के बिना नहीं जी सकता….’

एक दिन, दो दिन, तीन दिन बेटा भूखा रहा… माँ ने छाती पीटी, सिर कूटा किन्तु लड़का टस-से-मस न हुआ। अब माँ का हृदय हाथ में कैसे रहता ? माँ ने अल्लाहताला से प्रार्थना की। प्रार्थना करते-करते माँ को एक युक्ति सूझी। उसने बेटे से कहाः

“मेरे लाल ! तू तीन दिन से भूखा मर रहा है। हठ पकड़कर बैठ गया है। कारुन ने किसी के पास एक रुपया तक नहीं छोड़ा है। फिर भी मुझे याद आया कि तेरे अब्बाजान को दफनाते समय उनके मुँह में एक रुपया रखा था। अब जब तू अपनी जान कुर्बान करने को ही तैयार हो गया है तो जा, अपन अब्बाजान की कब्र खोदकर उनके मुँह से एक रुपया निकाल ले और कारुन बादशाह को दे दे।”

कारुन ने अपने अब्बाजान की कब्र खोदकर एक रुपया लाने वाले लड़के को अपनी कन्या तो नहीं दी बल्कि सारे कब्र खुदवाये और मुर्दों के मुँह में पड़े हुए रुपये निकलवा लिये। कब्रों में पड़े हुए मुर्दे बेचारे क्या बोलें ? यदि कोई हिन्दू राजा ऐसा करता तो उसे न मुसलमान बादशाह ही बख्सते न हिन्दू राजा ही क्षमा करते।

कैसा लोभी और जालिम रहा होगा कारुन !

गुरु नानक को इस बात का पता चला। उन्होंने कारुन की इस बेवकूफी को दूर करने का मन-ही-मन निश्चय कर लिया और विचरण करते-करते कारुन के महल के पास अपना डेरा डाला।

लोग नानक जी के पास मत्था टेकने आते। पुण्यात्मा-धर्मात्मा, समझदार लोग उनके अमृतवचन सुनकर शांति पाते। धीरे-धीरे उनका यश चतुर्दिक् प्रसारित होने लगा। कारुन को भी हुआ कि ‘चलो, किसी पीर, फकीर की दुआ मिले तो अपना खजाना और बढ़े।’ वह भी मत्था टेकने आया।

आत्मारामी संत-फकीर तो सभी के होते हैं। जो लोग बिल्कुल नासमझ होते हैं वे ही बोलते हैं कि ‘ये फलाने के महाराज हैं।’ वरना संत तो सभी के होते हैं। जैसे गंगा का जल सबके लिये है, वायु सबके लिये है, सूर्य का प्रकाश सबके लिए समान है, ऐसे ही संत भी सबके लिए समान ही होते हैं।

कारुन बादशाह नानकजी के पास आया। नानक जी को मत्था टेका। नानकजी ने उसको एक टका दे दिया और कहाः “बादशाह सलामत के लिए और कोई सेवा नहीं है केवल इस टके को सँभालकर रखना। (पहले के जमाने में एक रुपये में 16 आने होते थे। टका मतलब आधा आना – आज के करीब 3 पैसे)। जब मुझे जरूरत पड़ेगी तब तुमसे ले लूँगा और हाँ, यहाँ तो मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी किन्तु मरने के बाद जब तुम परलोक में मिलोगे तब दे देना। मेरी यह अमानत सँभालकर रखना।”

कारुनः “महाराज ! मरने के बाद आपका टका मैं कैसे ले जाऊँगा ?”

नानक जीः “क्यों ? इसमें क्या तकलीफ है ? तुम इतने खजानों को तो साथ ले ही जाओगे। प्रजा का खून चूसकर और ढेर सारी कब्रें खुदवाकर तुमने जो खजाना एकत्रित किया है उसे तो तुम ले ही जाओगे, उसके साथ मेरा एक टका उठाने में तुम्हें क्या कष्ट होगा ? भैया ! पूरा ऊँट निकल जाय तो उसकी पूँछ क्या डूब सकती है ?”

कारुनः “महाराज ! साथ में तो कुछ नहीं जायेगा। सब यहीं धरा रह जायेगा।”

नानक जीः “इतना तो तुम भी समझते हो कि साथ में कुछ भी नहीं जायेगा। फिर इतने समझदार होकर कब्रें तक खुदवाकर खजाने में रुपये क्यों जमा किये ?”

नानक जी की कृपा और शुभ संकल्प के कारण कारुन का हृदय बदल गया ! उसने खजाने के द्वार खोले और प्रजा के हित में संपत्ति को लगा दिया।

जिसने कब्र तक से पैसे निकलवा लिये ऐसे कारुन जैसे का भी हृदय परिवर्तित कर दिया नानक जी ने !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 15,16 अंक 114

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ईश्वरीय अंश कैसे विकसित करें ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

पशुता हर जीव में होती है, मानवता मनुष्य में होती है और ईश्वरत्व जड़-चेतन सभी में होता है। मनुष्य एक ऐसी जगह पर खड़ा है कि उसके एक तरफ पशुता है तो दूसरी तरफ ईश्वरत्व है और मनुष्यता उसे लानी पड़ती है। खुद मनुष्य-शरीर में होते हुए भी उसमें मनुष्यता हो, यह जरूरी नहीं है।

मनुष्य दो पैर वाले प्राणी के रूप में जन्मता है और उसमें मनुष्यता आती है व्रतों से, नियमों से, साधन-भजन से। मनुष्यता आती है तभी सद्गुरुओं का ज्ञान हजम होता है। सदगुरु का ज्ञान पशु को हजम नहीं होता।

मेरे आश्रम की गाय मुझे लात मार सकती है। मेरे आश्रम का बैल मुझे गिरा सकता है क्योंकि वह पशु है। उसको पता नहीं है कि ‘मैं आश्रम का चारा खाता हूँ…. बापू मेरी भलाई चाहते हैं….’

मैं एक बैल को प्यार करता था, स्नेह करता था। विनोद में उसके साथ थोड़ी कुश्ती भी करता था। एक उसने कुश्ती में ऐसा गिराया कि ‘फ्रैक्चर’ हो गया तो भी मैंने उसको लाठी नहीं मारी क्योंकि वह पशु है।

मनुष्य देह में पशुता भी छुपी है, मानवता भी छुपी है और देवत्व भी छुपा है तो क्या करना चाहिए ?

पशुता को क्षीण करना और मनुष्यता को निखारना चाहिए। फिर मनुष्यता को निखारते-निखारते ईश्वरत्व को निखारना चाहिए।

पशु और मनुष्य में यही फर्क है कि  पशु जैसा मन में आया वैसा करते हैं। फिर भले ही उसे डंडे खाने पड़ें, जूते मारे जायें अथवा मरना ही क्यों न पड़े ! पतंगे दीपक में जलकर मर जाते हैं, मछली काँटे में फँसकर मर जाती है, भ्रमर कमल में फँसकर मर जाता है, हिरण सुर-ताल-लय में सुधबुध खोकर अपनी जान गँवा देता है, हाथी घास की हथिनी के पीछे फँस जाता है और सारी जिंदगी महावत की गुलामी करता है। ऐसे ही मनुष्य भी शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के पीछे जीवन पूरा कर देते हैं तो उन्हें क्या करना चाहिए ?

मनुष्य को चाहिए की शास्त्र और धर्म के अनुसार अपनी मनुष्यता विकसित करते-करते ईश्वरत्व को विकसित करे। ऐसा नहीं कि भ्रम में फँस जाये कि ‘मैं ब्रह्म हूँ… मैं आत्मा हूँ…’ और मनमानी करने लग जाये तथा स्वयं पशुता में गिर जाय ! पशुता में गिर जायेगा तो ब्रह्म क्या रहेगा ? मनुष्यता से गिर जायेगा तो ईश्वरत्व में कैसे पहुँचेगा ?

मनुष्य-शरीर में संयम का पालन नहीं किया तो ईश्वरत्व को कैसे पायेगा ? संयम नियम का पालन करने से सच्चाई आती है कि सच्चाई से सत्य को जानने की जिज्ञासा होती है जिससे श्रद्धा दृढ़ होती है, बुद्धि में सत्व आता है, जो सत्य स्वरूप ईश्वर में स्थिति कराता है। जो सच्चाई का आश्रय नहीं लेता है उसको सत्य की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है। कोई सत्य का उपदेश सुनकर कह दे कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’ तो इससे काम नहीं चलता है।

सत्य की तीव्र जिज्ञासा के बिना आदमी वफादारी से गुरु की शरण नहीं जाता है। जब कभी मौका मिलेगा तब इंद्रियलोलुप व्यक्ति गद्दारी कर लेगा और जो अपने साथ गद्दारी करता है, वह गुरु के साथ भी गद्दारी कर सकता है।

अतः अपने जीवन में कड़क नियम रखो, सजगता रखो, कड़क निगरानी रखो। जैसे, आपके पास अगर हीरे-जवाहरात हैं तो आप उनकी ऐसी निगरानी रखते हैं कि कोई उन्हें चुरा न ले जाये। ऐसे ही हीरे-जवाहरातों से भी ज्यादा कीमती आपका जीवन है। अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, घृणा आदि विकार आपके कीमती जीवन को कहीं चुरा न लें इसकी पहरेदारी आप अवश्य रखें। अपने मन को विकारों में गिरने के लिए कभी भी ढील न दें। पूज्यपाद लीलाशाह बापू की ‘मन को सीख’ पुस्तक बार-बार पढ़ें ताकि मन को नियंत्रण में रखा जा सके।

मन को नियंत्रण में रखें तथा बुद्धि को परमात्मा में लगायें तभी ईश्वरत्व में स्थिति हो सकती है। ईश्वरत्व में स्थिति के लिए अपनी बुद्धि को जगत के नश्वर पदार्थों से हटाकर अमर आत्मा में लगाना चाहिए। आत्मविषयिणी बुद्धि करनी चाहिए। आत्मा के विषय में ही बार-बार सुनें, उसी का मनन करें तथा खानपान और आचार-विचार में संयम रखें।

पुण्यपुंज होने से सत्संग की प्राप्ति होती है और सात्विक विवेक जगता है तभी परमात्मा को पाने की प्यास जगती है। जिसका आचरण ऊँचा है और पुण्य अधिक हैं उसे ही आत्मा- परमात्मा को जानने पाने की इच्छा होती है। दूसरों को तो सिर खपा-खपाकर उठाना पड़ता है। एक दो व्यक्ति नहीं, लाखों-लाखों व्यक्ति महापुरुषों के प्रयत्न से थोड़े ऊपर उठते हैं परन्तु जिनका स्वयं का प्रयत्न है, उनको महापुरुष मिलते हैं तो वे जल्दी ऊपर उठ जाते हैं। इसको आत्मविषयिणी बुद्धि बोलते हैं।

आत्मविषयिणी बुद्धि बनाना सबसे ऊँची बात है। ईश्वरीय अंश जगाना सबसे ऊँची बात है।

ईश्वरीय अंश जगता कैसे है पशुता कैसे मिटती है ?

मनुष्य की पशुता अपने-आप नहीं छूटती। जब वह अपने मन को सद्गुरु की आज्ञा में चलायेगा तब पशुता आसानी से छूटेगी। बच्चा बेवकूफी कब छोड़ता है ? जब शिक्षक के कहे अनुसार चलता है, तब उसकी बेवकूफी छूटती है और वह विद्वान बनता है। ऐसे ही शिष्य सद्गुरु की आज्ञा में चलता है, तब पशुता और मानवता को बाधित करके ईश्वरीय अंश जगा पाता है। इसीलिए कहा गया हैः

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परम मंगलम्।

गुरु की कृपा क्या अपने-आप आती है कि कुछ करना पड़ता है ?

अपने-आप क्या आयेगा ? जो होता है वह करने से ही होता है। साधक को चाहिए कि वह गुरु की आज्ञा के अनुसार साधन-भजन, जप-ध्यान, सेवा-सुमिरन आदि करे। गुरु की आज्ञा के अनुसार अपने को ढाले, इससे उसकी पशुता मिटेगी और ईश्वरीय अंश विकसित होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 114

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