युधिष्ठिर का प्रश्न

युधिष्ठिर का प्रश्न


युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछाः “कोई मनुष्य नीतिशास्त्र का अध्ययन करके भी नीतिज्ञ नहीं देखा जाता और कोई नीति से अनभिज्ञ होने पर भी मंत्री के पद पर पहुँच जाता है, इसका क्या कारण है ? कभी-कभी विद्वान और मूर्ख दोनों की एक सी स्थिति होती है। खोटी बुद्धि वाले मनुष्य धनवान हो जाते हैं और अच्छी बुद्धि रखने वाले विद्वान को फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं होती।”
भीष्म जी बोलेः “बीज बोये बिना अंकुर नहीं पैदा होता। मनीषी पुरुषों का कहना है कि मनुष्य दान देने से उपभोग की सामग्री पाता है। बड़े बूढ़ों की सेवा करने से उसको उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और अहिंसा-धर्म के पालन से वह दीर्घजीवी होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि स्वयं दान दे, दूसरों से याचना न करे, धर्मनिष्ठ पुरुषों की पूजा करे, मीठे वचन बोले, सबका भला करे, शान्तभाव से रहे और किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।
युधिष्ठिर ! डाँस, कीड़े और चींटी आदि जीवों को उन-उन योनियों में उत्पन्न करके सुख-दुःख की प्राप्ति कराने में उनका अपना किया हुआ कर्म ही कारण है, यह सोचकर अपनी बुद्धि को स्थिर करो और सत्कर्म में लग जाओ।
मनुष्य जो शुभ तथा अशुभ कर्म करता है और दूसरों से कराता है, उन दोनों प्रकार के कर्मों में से शुभ कर्म का अनुष्ठान करके तो उसे प्रसन्न होना चाहिए और अशुभ कर्म हो जाने पर उससे किसी अच्छे फल की आशा नहीं रखनी चाहिए। जब धर्म का फल देखकर मनुष्य की बुद्धि में धर्म की श्रेष्ठता का निश्चय हो जाता है, तभी उसका धर्म के प्रति विश्वास बढ़ता है और तभी उसका मन धर्म में लगता है। जब तक धर्म में बुद्धि दृढ़ नहीं होती, तब तक कोई उसके फल पर विश्वास नहीं करता है।
प्राणियों की बुद्धिमत्ता की यही पहचान है कि वे धर्म के फल में विश्वास करके उसके आचरण में लग जायें। जिसे कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों का ज्ञान है, उस पुरुष को एकाग्रचित्त होकर धर्म का आचरण करना चाहिए। जो अतुल ऐश्वर्य के स्वामी हैं, वे यह सोचकर कि कहीं रजोगुणी होकर हम पुनः जन्म-मृत्यु के चक्कर में न पड़ जायें, धर्म का अनुष्ठान करते हैं और इस प्रकार अपने ही प्रयत्न से आत्मा को महत् पद की प्राप्ति कराते हैं।
काल किसी तरह धर्म को अधर्म नहीं बना सकता अर्थात् धर्म करने वाले को दुःख नहीं देता, इसलिए धर्मात्मा पुरुष को विशुद्ध आत्मा ही समझना चाहिए। धर्म का स्वरूप प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी है। काल उसकी सब ओर से रक्षा करता है। अतः अधर्म में इतनी शक्ति नहीं है कि वह धर्म को छू भी सके। विशुद्धि और पाप के स्पर्श के अभाव – ये दोनों धर्म के कार्य हैं। धर्म विजय की प्राप्ति कराने वाला और तीनों लोकों में प्रकाश फैलाने वाला है।
अतः मंगल चाहने वाले, भविष्य उज्जवल चाहने वालों को प्रयत्नपूर्वक दान, संयम, सुमिरन, जीवों पर दया, सत्संग आदि धर्म-कार्यों में लगे रहना चाहिए। उनका शुभ फल परिपाक होने पर अवश्य मिलता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 116
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