मौन साधना

मौन साधना


मौन आध्यात्मिक जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। व्यर्थ बकवास में शक्ति का अपव्यय होता है। यदि मौन के द्वारा अपनी शक्ति को सुरक्षित रखा जाय तो वह ओज शक्ति में बदलकर ध्यान में सहायक होगी। अधिक न हो सके तो सप्ताह में एक दिन मौन अवश्य रखना चाहिए।
यदि गंभीर ध्यान का अभ्यास या शीघ्र आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हो तो ये पाँच बातें आवश्यक हैं- 1. मिताहार 2. मौन 3. एकांतवास 4 सदगुरु-सम्पर्क 5. शीतल जलवायु।
वाक् इन्द्रिय माया का सबल अस्त्र है। इसके कारण मन विक्षिप्त होता है, झगड़े व युद्ध भी हो जाते हैं। इस इन्द्रिय को नियंत्रित करना माने आधा मन नियंत्रित कर लेना। मौन से वाणी के आवेगों का नियंत्रण, संकल्पबल की वृद्धि, शक्ति संचय तथा आत्मबल की वृद्धि होती है। यह क्रोध का दमन करता है, व्यर्थ के संकल्पों को रोकता है, मन को शांति प्रदान करता है। इससे व्यक्ति का चिड़चिड़ापन बन्द हो जाता है। वाणी प्रभावशाली हो जाती है। पीड़ा के समय मौन रखने से मन को शांति मिलती है। इससे मानसिक तनाव दूर होते हैं। शारीरिक तथा मानसिक कार्यक्षमता बढ़ जाती है। मस्तिष्क व स्नायुओं को विश्रांति मिलती है।
आध्यात्मिक उत्थान के लिए मौन व्रत अवश्य करना चाहिए। भोजन मौन होकर करना चाहिए। ‘जो बातें करते हुए भोजन करता है वह मानो, पाप खाता है।’ (पद्म पुराण) ‘हूँ… हूँ…. हूँ….’ करके बोलना तो बोलने से भी बुरा है, इससे तो शक्ति का अधिक अपव्यय होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 30, अंक 116
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