शम ही परम आनंद है…..

शम ही परम आनंद है…..


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री वशिष्ठजी महाराज कहते हैं-
“हे राम जी, शम ही परम आनंद, परम पद और शिवपद है। जिस पुरुष ने शम को पाया है सो संसार-समुद्र से पार हुआ है। उसके शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। हे राम जी ! जैसे चंद्र उदय होता है तब अमृत की किरणें फूटती हैं और शीतलता होती है, वैसे ही जिसके हृदय में शमरूपी चंद्रमा उदय होता है, उसके सब पाप मिट जाते हैं और वह परम शांतिमान हो जाता है।

शम देवतारूपी अमृत के समान कोई अमृत नहीं है। शम से परम शोभा की प्राप्ति होती है। जैसे पूर्णमासी के चंद्रमा की कांति परम उज्जवल होती है, वैसे ही शम को पाकर जीव की कांति उज्जवल होती है।

जिस पुरुष को शम की प्राप्ति हुई है वह वंदना करने योग्य और पूजने योग्य हो जाता है।”

जिसका शम सिद्ध हो गया अर्थात् जिसने मन को शांत करने की कला पा ली, वह वंदना करने योग्य और पूजने योग्य है। तुकाराम जी महाराज की वंदना की जाती है, एकनाथ जी महाराज का आदर का होता है, ज्ञानेश्वर महाराज का दर्शन करने के लिए लोग कतार में खड़े रहते हैं क्योंकि ये सब शमवान पुरुष हैं।

मन को शांत करने का नाम शम है, इंद्रियों पर नियंत्रण पाने का नाम दम है, भगवान के रास्ते चलते कठिनाइयाँ सहने का नाम तितिक्षा है, भगवान में आस्था रखने का नाम श्रद्धा है, बुद्धि को सब प्रकार से ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना समाधान है तथा भगवान के रास्ते में विघ्न डालने वाले व्यसन और बुराइयों को त्यागने का नाम उपरति है। ईश्वर के रास्ते जाने के लिए जो दुर्गुण छोड़ दिये और फिर उनमें नहीं पड़े तो यह उपरति हो गयी। जिसके हृदय में छः गुण आ जाते हैं उसके हृदय में आत्मशांति आने लगती है और वह परम पद को पाने में सफल हो जाता है।

इसी आत्मशांति को पाने के लिए प्राचीन काल में बड़े-बड़े राजे-महाराजे राजपाट को छोड़कर, सिर में खाक डालकर, हाथ में कटोरा लेकर भिक्षा माँगना स्वीकार करते थे। महापुरुषों की कृपा पाने के लिए राजे-महाराजे उनके आश्रम में बर्तन भाँडे माँजते थे, झाड़ू-बुहारी करते थे…. आत्मशांति ऐसी ऊँची चीज है।

जिन महापुरुषों के सम्पर्क से आत्मधन मिलता है, जिनसे आत्मशांति मिलती है, जो शमवान पुरुष हैं, उन महापुरुषों की भली प्रकार सेवा करनी चाहिए। उन महापुरुषों के आशीर्वाद हमारे हजारों जन्मों के पाप-ताप मिटाते हैं और लाखों-लाखों संस्कारों को निवृत्त करके भगवद्भक्ति का अंकुर उभारते हैं, हममें भगवत्प्राप्ति की प्यास जगाते हैं।

वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जैसा आनंद शमवान को होता है, वैसा अमृत पीने वाले को भी नहीं होता।”

जो आनंद और शांति शमवान को होती है, वैसा आनंद और शांति अमृतपान करने वाले देवताओं के पास भी नहीं होती। कैसी महिमा है शमवान पुरुष की !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002, पृष्ठ संख्या 6, अंक 116
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