जीवनोपयोगी सूत्र

जीवनोपयोगी सूत्र


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
जीवन की शोभा और ऊँचाई आवश्यकता पूर्ति और वासना-निवृत्ति में है। मनुष्य में एक होती है वासना से प्रेरित चेष्टा और दूसरी होती है आवश्यकता की पूर्ति। इच्छाओं को सुनिंयत्रित करके निवृत्त करने से जीवन चमकता है और आवश्यकता की सहज में ही पूर्ति होती है।
जीवन में यदि सही दशा नहीं तो जीवन बोझिल हो जाता है, परिवार और समाज के लिए श्राप बन जाता है, लोगों को आतंक व मारकाट की कगार पर पहुँचाने वाला, हिंसक और चरित्रहीन बन जाता है।
जीवन का लक्ष्य है शांति, मुक्ति आवश्यकता-पूर्ति और इच्छा की निवृत्ति। यदि इच्छा निवृत्ति की दिशा नहीं मिली तो इच्छाएँ आगे बढ़कर आदमी को ही दबोच लेती हैं।
साधक को कैसा जीवन-जीना, क्या नियम लेना, किन कारणों से पतन होता है, किन कारणों से वह भगवान और गुरुओं से दूर हो जाता है और किन कारणों से भगवद् तत्त्व के नजदीक आ जाता है – इस प्रकार का अध्ययन, चिंतन, बीती बात का सिंहावलोकन व उन्नति के लिए नये संकल्प करने चाहिए।
‘आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है ? जगत क्या है, मैं कौन हूँ ?’ इसका श्रवण करो, मनन तथा निदिध्यासन करो और अंततः उस तत्त्व का साक्षात्कार करो। यही वेदान्त की रीति है।
जैसे उपयोगी पत्थर, लोहे का टुकड़ा या अन्य वस्तुओं को हम सँभालते हैं, वैसे ही कर्तव्य, कर्म करता हुआ ईश्वर का भक्त स्वयं प्रभु के लिए उपयोगी बन जाता है, उसे फलाकांक्षा की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। अंतर्यामी ईश्वर स्वयं उसकी सँभाल लेते हैं। समाज और प्रकृति उसकी सेवा में सजग रहते हैं। ऐसी दशा में निष्काम कर्मवीर को इच्छा करने की क्या आवश्यकता ? वह तो सत्यकर्म की रीतियों पर चलकर स्वयं को योग्य बनाता है। फल की इच्छा से उसका क्या सरोकार ?
किसी के दिल को ठेस न पहुँचे, किसी का कहीं कुछ बुरा न हो, कोई हानि न हो, इसका ध्यान रखते हुए जो कर्म किया जाता है वह कर्म यज्ञ है, पूजा है, उपासना है। ऐसा कर्म करने वाला साधक ही परमात्मा के समग्र रूप का साक्षात्कार कर सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार पुजारी वह है, जो पूजा तो भगवान की करता है, पर मंदिर या मन-मंदिर में नहीं। उसकी पूजा न तो मूर्ति पूजा है और न ही मानस-पूजा। वह तो अपने कर्मों के द्वारा भगवान की पूजा करता है। वह निष्काम कर्म करता है और वह भी ईश्वरार्पण भाव से।
गीता में समाधि से भी श्रेष्ठ एक अन्य वस्तु वर्णित है – ‘समत्व’। समाधि के बाद भी पतन हो सकता है, भक्त की भावना बदल सकती है, परंतु साधक यदि एक बार समता के सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता है तो फिर वहाँ से उसका पतन नहीं हो सकता।
शक्ति की उपासना सामर्थ्य-प्रदायिनी है। ज्ञान की समझ शांतिदात्री है।
आओ मेरे प्यारे साधको ! अपनी ऐहिक और पारमार्थिक उन्नति के इच्छुको ! आ जाओ। तुम यशस्वी बनो। तुम संयमी बनो। तुम तेजस्वी बनो। तुम अपना और अपने पूर्वजों का नाम रोशन करो। तुम अपने और अपने कुल में आने वाले वंशजों के मार्गदर्शक बनो – तुम ऐसे महान आत्मा बनो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 30, अंक 117
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