Monthly Archives: September 2002

कर्म कैसे करें ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के तीसरे अध्याय ‘कर्मयोग’ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्मकर्म परमाप्नोति पूरुषः।।
‘तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली भाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।’ (गीताः 3.19)
मनुष्य जब अनासक्त होकर कर्म करता है, तब उसको परम सत्य की उपलब्धि होती है। परम सत्य क्या है ? – परमात्मा की प्राप्ति।
गीता में परमात्म-प्राप्ति के तीन मार्ग बताये गये हैं- ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग, कर्म मार्ग।
शास्त्रों में मुख्यतः दो प्रकार के कर्मों का वर्णन किया गया हैः विहित कर्म और निषिद्ध कर्म। जिन कर्मों को करने के लिए शास्त्रों में उपदेश किया गया है, उन्हें विहित कर्म कहते हैं और जिन कर्मों को करने के लिए शास्त्रों में मना किया गया है, उन्हें निषिद्ध कर्म कहते हैं।
हनुमान जी ने श्रीराम के कार्य के लिए लंका जला दी। उनका यह कार्य विहित कार्य है, क्योंकि उन्होंने अपने स्वामी के सेवाकार्य के रूप में ही लंका जलायी। परंतु उनका अनुसरण करके लोग एक-दूसरे के घर जलाने लग जायें तो यह धर्म नहीं, अधर्म होगा, मनमानी होगी।
हम जैसे-जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही वैसे लोकों की प्राप्ति होती है। इसलिए हमेशा अशुभ कर्मों का त्याग करके शुभ कर्म करने चाहिए।
जो कर्म स्वयं को और दूसरों को भी सुख शांति दें तथा देर-सवेर भगवान तक पहुँचा दें, वे शुभ कर्म हैं और क्षण भर के लिए ही (अस्थायी) सुख दें और भविष्य में अपने को तथा दूसरों को भगवान से दूर कर दें, कष्ट दें, नरकों में पहुँचा दें उन्हें अशुभ कर्म कहते हैं।
किये हुए शुभ या अशुभ कर्म कई जन्मों तक मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। पूर्व जन्मों के कर्मों के जैसे संस्कार होते हैं, वैसे फल भोगने पड़ते हैं।
महाभारत में एक प्रसंग आता हैः
जब भीष्म पितामह बाणों की शैया पर लेटे हुए थे, तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछाः “हे केशव ! मैं जानता हूँ कि प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। मैंने अपने पिछले 72 जन्म देख लिये। उनमें मैंने ऐसा कोई पापकर्म नहीं किया था कि मुझे शरशैया पर सोना पड़े। अब आप ही बताइये कि इसका कारण क्या है ?”
श्रीकृष्ण ने कहाः “पितामह ! आपने पिछले 72 जन्म तो देख लिये, परंतु आप एक जन्म और पीछे जाते तो आप जान लेते कि उस जन्म में आपने एक कीड़े को शूल चुभाकर पीड़ा पहुँचायी थी। उसी पापकर्म का फल आपको इन असंख्य बाणों पर लेटकर भुगतना पड़ रहा है।”
गहना कर्मणो गति….. कर्मों की गति बड़ी गहन होती है। कर्मों की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। कर्म तो जड़ है। कर्मों को पता नहीं है कि ‘मैं कर्म हूँ’। वे वृत्ति से प्रतीत होते हैं। जिस प्रकार के संस्कार होते हैं उसी प्रकार के कर्म प्रतीत होते हैं। यदि विहित संस्कार होते हैं तो पुण्य प्रतीत होता है और निषिद्ध संस्कार होते हैं तो पाप प्रतीत होता है। अतः विहित या शास्त्रोक्त कर्म करें। विहित कर्म भी नियंत्रित होने चाहिए। नियंत्रित विहित कर्म ही धर्म बन जाता है।
सुबह जल्दी उठकर थोड़ी देर के लिए परमात्मा के ध्यान में शांत हो जाना और सूर्योदय से पहले स्नान करना, संध्या-वंदन इत्यादि करना – ये कर्म स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छे हैं और सात्त्विक होने के कारण पुण्यमय भी हैं। परंतु किसी के मन में विपरीत संस्कार पड़े हैं तो वह सोचेगा कि ‘इतनी सुबह उठकर स्नान करके क्या करूँगा ?’ ऐसे लोग सूर्योदय के पश्चात उठते हैं, उठते ही सबसे पहले बिस्तर पर चाय की माँग करते हैं और बिना स्नान किये ही नाश्ता कर लेते हैं – शास्त्रानुसार ये निषिद्ध कर्म हैं। ऐसे लोग वर्त्तमान में भले ही अपने को सुखी मान लें परंतु आगे चलकर शरीर अधिक रोग-शोकग्रस्त होगा। यदि सावधान नहीं रहे तो तमस के कारण नारकीय योनियों में जाना पड़ेगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में कहा भी है कि मुझे इन तीन लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न ही प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त है। फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ।’
इसलिए विहित और नियंत्रित कर्म करें। ऐसा नहीं कि शास्त्रों के अनुसार कर्म तो करते रहे किंतु उनका कोई अंत ही न हो ! कर्मों का इतना अधिक विस्तार न करें कि परमात्मा के लिए घड़ी भर भी समय न मिले। स्कूटर चालू करने के लिए व्यक्ति ‘किक’ लगाता है परंतु चालू होने के बाद भी वह ‘किक’ ही लगाता रहे तो उसके जैसा मूर्ख इस दुनिया में कोई नहीं होगा।
अतः कर्म तो करो परंतु लक्ष्य रखो केवल आत्मज्ञान पाने का, परमात्मसुख पाने का। अनासक्त होकर कर्म करो, साधना समझकर कर्म करो। ईश्वर परायण कर्म, कर्म होते हुए भी ईश्वर को पाने में सहयोगी बन जाता है।
आज आप किसी कार्यालय में काम करते हैं और वेतन लेते हैं तो वह है नौकरी, किंतु किसी धार्मिक संस्था में आप वही काम करते हैं, वेतन नहीं लेते तो आपका वही कर्म धर्म बन जाता है।
धर्म ते बिरती योग ते ज्ञाना….. धर्म से वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य से मनुष्य की विषय-भोगों में फँस मरने की वृत्ति कम हो जाती है। अगर आपको संसार से वैराग्य उत्पन्न हो रहा है तो समझना कि आप धर्म के रास्ते पर हैं पर अगर राग उत्पन्न हो रहा है तो समझना कि आप अधर्म के मार्ग पर हैं।
विहित कर्म से धर्म उत्पन्न होगा, धर्म से वैराग्य उत्पन्न होगा। पहले जो रागाकार वृत्ति आपको इधर-उधर भटका रही थी, वह शांतस्वरूप में आयेगी तो योग बन जायेगी। योग में वृत्ति एकदम सूक्ष्म हो जायेगी तो बन जायेगी – ऋतम्भरा प्रज्ञा।
विहित संस्कार हों, वृत्ति सूक्ष्मतम हो और ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं के वचनों में श्रद्धा हो तो ब्रह्म का साक्षात्कार करने में देर नहीं लगेगी।
संसारी विषय-भोगों को प्राप्त करने के लिए कितने भी निषिद्ध कर्म करके भोग-भोगे, किंतु भोगने के बाद खिन्नता, बहिर्मुखता अथवा बीमारी के सिवा क्या हाथ लगा ? विहित कर्म करने से जो भगवत्सुख मिलता है वह अंतरात्मा को असीम सुख देने वाला होता है।
जो कर्म होने चाहिए वे ब्रह्मवेत्ता की उपस्थिति मात्र से स्वयं ही होने लगते हैं और जो नहीं होने चाहिए वे कर्म अपने-आप छूट जाते हैं। परमात्मा की दी हुई कर्म करने की शक्ति का सदुपयोग करके परमात्मा को पाने वाले ब्रह्मज्ञानी समस्त कर्मबंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
‘गीता’ में भगवान ने कहा भी है कि ‘ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। वे कर्म तो करते हैं परंतु कर्मबंधन से रहित हो जाते हैं।
एक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष पंचदशी पढ़ रहे थे। किसी ने पूछाः “बाबा जी ! आप तो ब्रह्मज्ञानी हैं, जीवन्मुक्त हैं फिर आपको शास्त्र पढ़ने की क्या आवश्यकता है ? आप तो अपनी मस्ती में मस्त हैं फिर पंचदशी पढ़ने का क्या प्रयोजन है ?”
बाबा जीः “मैं देख रहा हूँ कि शास्त्रों में मेरी महिमा का कैसा वर्णन किया गया है।”
अपनी करने की शक्ति का सदुपयोग करके जो ब्रह्मानंद को पा लेते हैं वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ब्रह्म से अभिन्न हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश उन्हें अपने ही स्वरूप दिखते हैं। वे ब्रह्मा होकर जगत की सृष्टि करते हैं, विष्णु होकर जगत का पालन करते हैं और रुद्र होकर संहार भी करते हैं।
आप भी अपनी करने की शक्ति का सदुपयोग करके उस अमर पद को पा लो। जो भी करो ईश्वर को पाने के लिए ही करो। अपनी अहंता-ममता को आत्मा-परमात्मा में मिलाकर परम प्रसाद में पावन होते जाओ…..
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 3-5, अंक 117
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अलख पुरुष की आरसी….


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
संत कबीर से किसी ने पूछाः
“हम निर्गुण-निराकार परमात्मा को तो नहीं देख सकते, फिर भी देखे बिना न रह जायें ऐसा कोई उपाय बताइये।”
कबीर जी ने कहाः
अलख पुरुष की आरसी, साधु का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।
“परमात्मा को देखने के लिए ये चर्मचक्षु काम नहीं आते। फिर भी यदि तुम परमात्मा को देखना ही चाहते हो तो जिनके हृदय में परमात्माकार वृत्ति प्रकट हुई है, जिनके हृदय में समतारूपी परमात्मा प्रकट हुए हैं, जिनके हृदय में अद्वैतज्ञानरूपी परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे हृदय वाले किन्हीं महापुरुष को तुम देख सकते हो। उनको देखते ही तुम्हें परमात्मा की याद आ जायेगी। जिनके दिलों में ईश्वर निरावरण हुआ है, ऐसे संत-महापुरुषों को तुम देख सकते हो।”
साधु का ही देह एक ऐसा दर्पण है, जिसमें तुम उस अलख पुरुष परमात्मा के दर्शन कर सकते हो। अतः यदि अलख पुरुष को देखना चाहते हो तो ऐसे किन्हीं परमात्मा के प्यारे संतों के दर्शन करने चाहिए।
शुद्ध हृदय से, ईमानदारी से उन महापुरुषों का चिंतन करके हृदय को धन्यवाद से भरते जाओगे तो तुम्हारे हृदय में परमात्मा प्रकट होने में देर नहीं लगेगी। परमात्म-प्राप्ति इतनी सरल होने पर भी लोग उसका फायदा तो नहीं उठाते हैं, वरन् संतों के बाह्य व्यवहार को देखकर अपनी क्षुद्र मति से उन्हें तौलने लगते हैं और अपनी ही हानि कर बैठते हैं।
वशिष्ठ जी महाराज भी कहते हैं कि ‘शास्त्रकर्त्ता का और लक्षण न विचारना, पर शास्त्र की युक्ति विचार देखनी है। अज्ञानी जो कुछ मुझे कहते और हँसते हैं, सो मैं सब जानता हूँ, परंतु मेरा दया का स्वभाव है इससे मैं चाहता हूँ कि किसी प्रकार वे नरकरूप संसार से निकलें। इसी कारण मैं उपदेश करता हूँ।
जिनके श्रीचरणों में अयोध्या नरेश दशरथ शीश नवाकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं और श्रीराम जिनके शिष्य हैं, ऐसे गुरुवर वशिष्ठजी के लिए भी कहने वालों ने क्या-क्या नहीं कहा ? अतः यदि कोई तुम्हारे लिए भी कुछ कह दे तो चिंता मत करना वरन् उसे धन्यवाद देना।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने। उस समय किसी विकृत मानसिकता वालों ने एक सस्ते अख़बार में उनके विषय में कुछ का कुछ छपवाना शुरु कर दिया कि ‘वे ऐसे हैं, वैसे हैं….।’ जो कुछ भी कचरा उसके मस्तिष्क से निकलता, उसे कलम द्वारा अख़बार में छपवाता और यदि कोई अख़बार न भी लेना चाहे तो उसे जबरदस्ती पकड़ाता, मुफ्त में बँटवाता।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के किसी प्रशंसक ने उन्हें वह अख़बार दिखाया, राजेन्द्र प्रसाद ने उसे फाड़कर फेंक दिया। दूसरा कोई व्यक्ति भी वह अख़बार लेकर आया तो उन्होंने उसे भी कचरा पेटी में डाल दिया। वह निंदक कुप्रचार करता ही रहा। आखिर राजेन्द्र प्रसाद के कुछ मित्रों ने कहाः
“यह व्यक्ति आपके विरूद्ध इतना कुछ लिख रहा है और आप कुछ नहीं करते ! अब तो आप राष्ट्रपति हैं, आपके पास क्या नहीं है ? आप चाहें तो उसके विरुद्ध कोई भी कदम उठा सकते हैं। आप उसे कुछ कहें, कुछ तो समझायें। न समझे तो फटकारें, परंतु कुछ तो करें।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मुस्कराते हुए बोलेः “वह मेरी बराबरी का होता तो मैं उसे जवाब देता। जो विकृत मस्तिष्क वाले होते हैं, उनके शत्रुओं की कमी नहीं होती। कभी उसकी मति भी ऐसी हो जायेगी कि उसे दूसरा कोई शत्रु मिल जायेगा और वे आपस में ही लड़ मरेंगे। लोहे से लोहा कट जायेगा।”
उन लोगों ने फिर कहाः “परन्तु वह आपके लिए इतना सारा लिखता रहता है, आपको कुछ तो जवाब देना ही चाहिए।”
डॉ. राजेन्द्र प्रसादः “इसकी कोई जरूरत नहीं है।”
राजेन्द्र प्रसाद पर तो उस निंदक के कार्यों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु उनके परिचित और मित्र परेशान हो उठे। अतः पुनः बोलेः
“हम आपके पास आते जाते रहते हैं और आपकी बदनामी हो रही है तो उसका प्रभाव हमारे संबंधों पर भी पड़ रहा है। हमें भी लोग जैसा चाहे सुना देते हैं, अतः आपको कुछ तो करना ही चाहिए।”
तब राजेन्द्र प्रसाद ने एक दृष्टांत देते हुए कहाः “एक हाथी जा रहा था। उसके पीछे कुत्ते भौंकने लगे परंतु हाथी अपनी ही मस्ती में चलता रहा। हाथी हाथी से टक्कर ले तो अलग बात है। यदि हाथी कुत्तों को समझाने या चुप कराने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि वह कुत्तों के साथ अपनी तुलना करने लगा है और अपनी महिमा भूल गया है ! हाथी की अपनी महिमा है।”
कबीर जी ने कहा हैः
हाथी चलत है अपनी चाल में,
कुतिया भूँके वा को भूँकन दे।
मन ! तू राम सुमिरकर, जग बकवा दे।।
अपनी महिमा में मस्त रहने वाले, संत महापुरुष पर लोगों की अच्छी बुरी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जो संतों का आदर-पूजन और सेवा करता है, वह अपना भाग्य बना लेता है तथा संतों के दैवी अनुभव में भी भागीदार हो जाता है। परंतु जो संतों की निंदा करता है, संतों को सताता है वह अपने भाग्य पर कुठाराघात करता है। संतों की नजर में तो कोई अच्छा-कोई बुरा, कोई काला-कोई गोरा, कोई माई-कोई भाई….. ऐसा नहीं होता। संतों की नज़र में तो केवल ‘एकमेवाद्वितियोऽहम्।’ होता है।
उनके प्रति जिसकी जैसी भावना, जैसी दृष्टि, जैसा प्रेम होता है, वैसा ही उसे हानि-लाभ होता है।
करनी आपो आपनी, के नेड़े के दूर।
अपने ही कर्मों से, अपने ही भावों से आप अपने-आपको सदगुरु और संतों के निकट अनुभव करते हो तथा अपने ही कर्मों और भावों से उनसे दूरी का अनुभव कराते हो। संतों के हृदय में तो कोई अपना या पराया नहीं होता। आजकल का, कलियुग का अल्प मति वाला मानव बुरी बातों को बहुत जल्दी स्वीकार कर लेता है, किंतु अच्छी बातों को स्वीकार नहीं करता। सच्चाई फैलानी हो तो जीवन पूरा हो जाता है पर कुछ गड़बड़ फैलानी हो तो फटाफट फैल जाती है। लोग तुरंत ही कुप्रचार के शिकार हो जाते हैं क्योंकि उनकी अल्पमति है। उनकी विचारशक्ति कुंठित हो गयी है।
नरसिंह मेहता गुजरात के प्रमुख संत हो गये। उनके लिए भी ईर्ष्यालु लोगों ने कई बार खूब अफवाहें फैलायी थीं। अफवाह फैलाने वाले, व्यर्थ के आरोप लगाने वाले, छापने-छपाने वाले किस नरक में पचते होंगे ? किस माता के गर्भ में लटकते होंगे ? वह हम और आप नहीं जानते, परंतु नरसिंह मेहता को तो आज भी हजारों-लाखों लोग जानते मानते हैं और उनका नाम बड़े-आदर व प्रेम से लेते हैं।
नरसिंह मेहता श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे प्रभुपद गाते-गाते इतने भाव-विभोर हो उठते थे कि अपने-आपको ही भूल जाते थे ! नरसिंह मेहता जब नरसिंहपना छोड़ देते तो श्रीकृष्ण अपना कृष्णपना कैसे रख सकते थे ? जब पुत्र अपना पुत्रपना भूल कर प्रेम से पिता के साथ बातें करने लगता है तो पिता भी पिताभाव कैसे रख सकता है ? पिता भी पुत्र के साथ तोतली भाषा में बोलने लग जाता है।
नरसिंह मेहता श्रीकृष्ण का चिंतन करते-करते इतने तन्मय हो जाते थे कि जो लोग उनके दर्शन करने आते, वे भी धन्य हो उठते ! कृतार्थ हो उठते ! वे लोग भी उनके साथ नाचने और झूमने लग जाते, कृष्ण-कन्हैया के भाव में आ जाते।
ऐसे नरसिंह मेहता के विषय में भी जब व्यर्थ के आरोप लगे, अफवाहें फैलने लगीं, तब कुछ भक्तों की मति भी कुप्रचार के कारण डाँवाडोल हो गयी और कुछ लोग तो कुप्रचार के शिकार हो कर वहाँ से खिसक भी गये।। निंदक कहने लगे कि ‘यदि नरसिंह मेहता में सच्चाई हो तो साबित करके दिखायें।’ परंतु नरसिंह मेहता के लिए फैलायी गयी अफवाहें हर बार गलत ही साबित हुईं। उनकी दृढ़ भक्ति के कारण चमत्कार होते तो चमत्कार के प्रेमी उनके पास एकत्रित होते रहते। वे चमत्कार के भक्त थे, नरसिंह मेहता के भक्त नहीं थे।
ऐसा कई संतों के साथ होता है। जब तक सब ठीक लगता है, वाहवाही होती है, तब लोग संतों के साथ होते हैं। परंतु जब दुरात्मा लोग संगठित होकर गड़बड़ पैदा कर देते हैं तो वे लोग खिसक जाते हैं। ऐसे लोग सुविधा और वाहवाही के भक्त होते है, संत के भक्त नहीं होते।
संत का भक्त तो वही है जो चाहे कैसी भी विपरीत परिस्थिति आये, पर अपना भक्तिभाव नहीं छोड़ता। सुविधा के भक्त तो कब उलझ जायें, कब भाग जायें, पता नहीं परंतु जो निःस्वार्थ भक्त होता है वह अडिग रहता है, कभी फरियाद नहीं करता और दुर्बुद्धि निंदकों के चक्कर में नहीं आता। सच्चे भक्त तो संत के दर्शन, सत्संग और उनकी महिमा का गुणगान करते-करते कभी थकते ही नहीं। परंतु संत का संतत्व न सबसे भी परे है। किसी की निंदा अथवा विरोध से उनकी कोई हानि नहीं होती और किसी के द्वारा प्रशंसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता।
सच्चे संतों का आदर-पूजन जिनसे सहन नहीं होता, ऐसे ईर्ष्यालु लोगों ने ही पूरी ताकत से संतों का कुप्रचार किया है। संतों के व्यवहार को पाखंड कहकर उन्होंने ही धर्म के प्रचार का ठेका लिया है। ऐसे धर्म का ठेका लेकर, धर्म की जय बुलवाने वालों को पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं ?
जब कबीर जी आये तब पंडों ने कहाः “हम धर्म की जय कर रहे हैं।” जब सुकरात आये तब राजा और अन्य लोगों ने कहाः “हम धर्म की जय कर रहे हैं।” जब नानक जी आये तब विरोधियों ने उपद्रव कियाः “नानक जी को शहर से बाहर निकाल दिया जाय, क्योंकि वे पाखंड कर रहे हैं। धर्म की जय तो हम कर रहे हैं।”
अनादिकाल से यही होता आया है। भले कितनी ही मुसीबतें आयीं, कितनी ही प्रतिकूलताएँ आयीं, सच्चे भक्तों-श्रद्धालुओं ने संतों की शरण नहीं छोड़ी। कबीर जी के साथ सलूका-मलूका, नानक जी के साथ बाला-मरदाना ऐसे ही श्रद्धालु शिष्य थे, जिनके नाम इतिहास में अमर हो गये।
धन्य है ऐसे शिष्यों को कि जो अलख पुरुष की आरसी के समान ब्रह्मवेत्ता संतों को श्रद्धा-भक्ति से निहारते हैं और उनके साथ अंत तक निभा पाते हैं। वे धनभागी हैं जो निंदा अथवा कुप्रचार के शिकार होकर अपनी शांति का घात नहीं करते। उन्हीं के लिए यह कथन फलित होता हैः
अलख पुरुष की आरसी, साधु का ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में तू लख लेह।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 117
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