अधर्मी का धर्म

अधर्मी का धर्म


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परंतप।।

‘हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती है। हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।’ (गीताः 2.3)

धर्म के नाम पर जब कायरता फैल जाती है, तब अधर्म का प्रभाव बढ़ जाता है। इससे ईश्वरीय विधान का उल्लंघन होता है और मनुष्य की, समाज की  ज्यादा हानि होती है। जो मनुष्य ईश्वरीय विधान के अनुकूल आचरण करता है वह आगे बढ़ता है। उसका अंतरात्मा शांति पाता है, सुख पाता है और आत्मसामर्थ्य बढ़ाता है। जो ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करता है, वह गिरता है।

आजकल यही हो रहा है। बाहर कुछ भी करके धन कमा लिया, रुपये इकट्ठे कर लिये। फिर मंदिर, मस्जिद, चर्च में जाकर दान-दक्षिणा रख दी तो ‘सेठजी-सेठजी, साहब जी- साहब जी….’ करके वाह-वाह होने लगी। ऐसी वाहवाही से क्या होगा ? ऐसी आशीषों से क्या फायदा ? इससे धर्म की पुष्टि होगी ? नहीं। इससे तो अधर्म पुष्ट होता है। अधर्म की पुष्टि से समाज में सुख-शांति बढ़ेगी क्या ? ना, ना…. अधर्म से सुख-शांति का नाश होता है।

हम चाहे कहीं भी जायें, मंदिर में जायें या मस्जिद में जायें…. किसी को अन्न-वस्त्र दें या दान-दक्षिणा दें…. परंतु यह देखना चाहिए कि हमारा आचरण धर्म के अनुकूल है कि नहीं ? जो दान-दक्षिणा देते हैं वह धन कहीं गरीबों का शोषण करके तो इकट्ठा नहीं किया है न ? यह सावधानी भी रखनी चाहिए।

जब धर्म की हानि होती है, लोग निःस्वार्थता छोड़कर स्वार्थपरायण हो जाते हैं, निरहंकारिता छोड़कर अहंकारी हो जाते हैं, हृदय की विशालता छोड़कर संकीर्ण हो जाते हैं तब परेशानियाँ झेलते हैं।

निःस्वार्थ होना, निरहंकारी होना, हृदय को विशाल रखना, ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ सत्कर्म करना धर्म है। इसमें ईश्वरीय विधान का आदर है। परंतु मैं और मेरा… पुत्र और परिवार… ऐसा छोटा दायरा बनाकर संकीर्णता से, स्वार्थ से जीते हैं तो ईश्वरीय विधान का उल्लंघन होता है, हम धर्म से च्युत होते हैं। इसलिए चिंता, शोक, भय, बीमारी, परेशानी आदि सताते रहते हैं।

दुर्योधन स्वार्थपरायण होकर अधर्म का आचरण कर रहा था। जब द्रौपदी के बालों को पकड़कर दुःशासन उसे खींचता-घसीटता भरी सभा में ले आया, तब सारी सभा देख रही थी कि द्रौपदी के साथ अन्याय हो रहा है फिर भी सब चुप बैठे थे। दुर्योधन ने भीम को भरी सभा में अपनी बायीं जंघा दिखायी थी। उस समय कर्ण ने द्रौपदी को ‘वेश्या’ कहकर उसका अपमान भी किया था, यह भी सभा के लोगों ने देखा-सुना था।

परंतु जब युद्ध के मैदान में लड़ते समय कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फँस गया, तब कर्ण रथ से नीचे उतरकर पहिया निकालने लगा। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहाः “यही मौका है।”

श्रीकृष्ण की बात मानकर जब अर्जुन धनुष पर बाण चढ़ाकर निशाना साधने लगा, तब कर्ण ने हैः

“यह धर्मयुद्ध नहीं है। रुको, मैं निःशस्त्र हूँ और तुम मुझ पर वार कर रहे हो ? यह धर्म नहीं है।”

कर्ण जब धर्म की दुहाई देने लगा तब श्रीकृष्ण ने कहाः “अब तू धर्म की दुहाई देता है तो उस समय कहाँ था ? तेरा धर्म कहाँ गया था ? जब द्रौपदी के बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे भरी सभा में लाया गया था और तू उसका अपमान कर रहा था ?”

कभी-कभी राक्षसी वृत्ति के लोग, अधर्मी लोग भी धर्म की दुहाई देकर आपत्तिकाल में अपना बचाव करना चाहते हैं। यह धर्म के अनुकूल नहीं है।

जो आपत्तिकाल में भी धर्म का त्याग नहीं करता, वह अवश्य उन्नति करता है और जो अपनी जीवन-यात्रा में धर्म-अधर्म का ख्याल नहीं रखता, वह मारा जाता है, कुचला जाता है। उसे बहुत कष्ट सहना पड़ता है।

अपने बेटे की दुष्टता को धृतराष्ट्र जानते थे, परंतु बेटे में मोह था। इससे ‘मैं और मेरे पुत्र’ का संकीर्ण दायरा बनाकर उसी में चिपके थे। दुर्योधन की महत्त्वकांक्षाओं को और पाप-चेष्टाओं को जानते थे, फिर भी मोहवश उसे नहीं रोक पा रहे थे। तभी लाक्षागृह और द्यूत क्रीड़ा जैसी घटनाएँ घटीं।

गांधारी को धर्म का ज्ञान था। वह यह भी जानती थी कि उसका पुत्र पाप का पुतला है। फिर भी उसने मोहवश ईश्वरीय विधान का उल्लंघन किया तो उसे दुःख झेलना पड़ा।

महाभारत का युद्ध चल रहा था। उस समय गांधारी को पता चला कि उसका पुत्र मुसीबत में है। उसने दुर्योधन से कहाः

“बेटे ! तुझ पर इतनी मुसीबतें आती हैं तो मैं अपने सतीत्व का आशीर्वाद तुझे दूँगी। कल सुबह तू एकदम नग्न होकर मेरे सामने आ जाना। मैं अपनी आँखों की पट्टी खोलूँगी। तेरे शरीर पर मेरी नज़र पडेगी तो तेरा शरीर वज्र जैसा हो जायेगा। फिर कोई भी तुझे मार नहीं सकेगा।”

गांधारी धर्म के मार्ग पर चलती थी, परंतु वह भी मोहवश धर्म छोड़कर अधर्म की पीठ ठोकने लगी थी।

कभी-कभी धार्मिक व्यक्ति भी अधर्म की पीठ ठोंकने लग जाता है, तब अधर्म पुष्ट होता जाता है और धर्म की हानि होती है। परंतु वह ज्यादा समय टिकता नहीं है। उसका नाश अवश्य होता है।

गांधारी की यह बात पांडवों तक पहुँच गयी। पांडव चिंतित होकर बैठ गये कि यदि दुर्योधन की काया वज्र जैसी हो गयी तो उस पापी का नाश करना असंभव है। अगर पापी का नाश नहीं होगा तो वह पापी औरों को सताता रहेगा….. पाप और पापी बढ़ते रहेंगे।

इतने में श्रीकृष्ण वहाँ आ पहुँचे। सभी को चिंतित देखकर श्रीकृष्ण ने पूछाः “क्या बात है ? तुम लोग इतने चिंतित क्यों हो ?”

पांडवों ने बतायाः “उस पापी दुर्योधन को गांधारी मदद कर रही है और अपने सतीत्व के आशीर्वाद से दुर्योधन को वज्रकाय बनाने वाली है। फिर क्या होगा ? यही सोचकर हम चिंतित हैं।”

यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कराने लगे। तब युधिष्ठिर ने कहाः “हम चिंता-चिंता में मरे जा रहे हैं और आप इस अवसर पर हँस रहे हैं ?”

श्रीकृष्ण तो सब कुछ जानते थे। अपने मुक्तस्वरूप को जानने वाले श्रीकृष्ण के पास हँसी और प्रसन्नता नहीं रहेगी तो कहाँ रहेगी ? श्रीकृष्ण इसलिए हँसे कि ‘गांधारी भी मोहवश पापी दुर्योधन का पक्ष ले रही है…. धर्म अब अधर्म की पीठ ठोंकने लगा है।’

गांधारी के कहे अनुसार दुर्योधन सुबह के अँधेरे में अपना शरीर वज्र का बनाने के लिए नग्न दशा में गांधारी के पास जा रहा था। तभी बीच रास्ते में श्रीकृष्ण प्रकट हो गये और बोलेः

“अरे, दुर्योधन ! इस दशा में कहाँ जा रहे हो ? हस्तिनापुर का सर्वेसर्वा, इतना बड़ा युवान पुत्र माँ के सामने ऐसे जा सकता है ? बिल्कुल नग्न ?”

दुर्योधन शर्म के मारे नीचे बैठ गया और उसने श्रीकृष्ण को सारी बात बता दी।

श्रीकृष्णः “तुम्हें वज्रकाय बनना है, यह तो ठीक है। परंतु कम से कम अपने कटिप्रदेश को तो ढँक लो। कटिवस्त्र नहीं है तो लो, यह फूलमाला की चदरिया बाँध लो।”

दुर्योधन को श्रीकृष्ण की बात जँच गयी। उसने फूलमाला की चदरिया अपनी कमर में बाँध ली और गांधारी के पास पहुँच गया।

गांधारी की बाहर की आँख पर तो पट्टी बँधी ही हुई थी, परंतु भीतर की विवेकरूपी आँख पर भी पट्टी बँधी थी। दुर्योधन को आया हुआ जानकर उसने दुर्योधन को वज्रकाय बनाने के लिए वर्षों से बँधी हुई पट्टी खोली और संकल्प करके देखा तो वह चौंक पड़ीः

“अरे, यह क्या ! तुझे कहा था न कि दिगंबर होकर आना। यह फूलमाला की चदरिया तुझे किसने पहनायी ? …उस वनमाली ने ही पहनायी होगी। तेरे शरीर का हिस्सा तो वज्र जैसा हो गया परंतु जो हिस्सा माला से ढँका है, वह कच्चा रह गया। उसे तू सँभालना।”

जब भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध हो रहा था, तब दुर्योधन को जरा भी चोट नहीं लग रही थी तो मरने की तो बात ही क्या ? इससे भीम परेशान हो रहा था। तब श्रीकृष्ण ने इशारा किया कि ‘कटिप्रदेश पर गदा ठोक। भीम ने जब वहाँ पर गदा से मारा तब वह मरा।

अगर धार्मिक व्यक्ति अधर्म की पीठ ठोंकता है, तब अधर्म कुछ समय के लिए भले ही फलता-फूलता दिखे परंतु अंत में विजय तो धर्म की ही होती है।

घटित घटना है।

एक गाँव के बाहर एक पेड़ का ठूँठ था। खुजली मिटाने के लिए एक गाय ने उससे जोर-से रगड़ मारी। ठूँठ में एक फाँस गाय के पेट में घुसा और उस निमित्त से गाय मर गयी।

तीन साल से सूखे ठूँठ को बारिश में हरा-भरा देखकर गाँव के लोगों ने महात्मा से पूछाः

“कसाई के यहाँ कुशलता और धार्मिक के यहाँ मुसीबतें…. ऐसा क्यों ? सूखा ठूँठ गाय को मारने के बाद फला-फूला, उसकी जड़े सजीव हुईं, डालियाँ हरी हुईं, पत्ते लगे और वह तेजी से विकसित हो रहा है !”

महात्मा मुस्कराये और बोलेः “थोड़ा धैर्य रखो।”

वृक्ष तो बढ़ता ही जा रहा था। कुछ समय के बाद आँधी-तूफान आया, वृक्ष धराशायी हो गया। तब महात्मा ने बतायाः

“अन्याय, शोषण, अधर्म से कोई फलता-फूलता है तो धराशायी होने के लिए ही।”

इसीलिए धार्मिक लोगों को अधर्म का आश्रय नहीं लेना चाहिए। उन्हें अधर्म के भोग-विलास, ऐश-आराम के लिए लालायित नहीं होना चाहिए। ईश्वरीय विधान का आदर करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 6-8, अंक 118

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