मंत्र-विद्या के मूल तत्त्व

मंत्र-विद्या के मूल तत्त्व


शास्त्रों में सर्वत्र यही निर्देश दिया गया है कि श्रद्धा, धैर्य और गुरुभक्ति ये तीन तत्त्व साधना – यात्रा के अनिवार्य सम्बल हैं और साधना प्रणाली के सहायक तत्त्व हैं – भक्ति, शुद्धि, आसन, पंचांग सेवन, आचार, धारण, दिव्य देश-सेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, योग, जप, ध्यान तथा समाधि। इन तत्त्वों की महत्ता इस प्रकार है।

श्रद्धा– साधना में सर्वप्रथम आवश्यकता श्रद्धा की है। जिस साधक के मन में आराधना की मंगलमयता अथवा कल्याणकारिता में श्रद्धा नहीं है, वह कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? श्रद्धा को विचलित करने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह है शंका। ‘गीता’ में कहा गया है कि अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति – अज्ञानी और श्रद्धारहित शंकाशील मनुष्य विनाश को प्राप्त हो जाता है।’

देव, ब्राह्मण, औषधि, मंत्र आदि भावना के अनुसार फल देते हैं, अतः यदि मंत्र को हम सामान्य मानते हैं तो उसका फल भी सामान्य ही मिलेगा और उसे महान मानेंगे तो वह महान फल देगा। कोई मंत्र छोटा है तो यह क्या फल देगा ? ऐसा कुतर्क नहीं करना चाहिए। अग्नि की छोटी सी चिंगारी क्या घास के ढेर को नहीं जला देती ? अथवा मच्छर छोटा होने पर भी यदि हाथी के कान में घुस जाय तो क्या उसे विकल नहीं बना देता ? अतः मंत्र कैसा भी हो, उसकी अपूर्व शक्ति पर श्रद्धा रखना नितांत आवश्यक है। इसलिए वेदों की आज्ञा है कि श्रद्धाया सत्यमाप्यते – श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।

धैर्य– सभी कार्य शांति और संतोष से फलदायक होते हैं। आतुरता अथवा शीघ्रता से होने वाले कार्यों में विकार आना स्वाभाविक है। फल के पकने तक धैर्य न रखने वाला क्या कभी पके फल का स्वाद ले सकता है ? चंचल चित्त से होने वाली क्रियाओं से विधिलोप का भय बना रहता है और विधिभ्रंशे कुतः सिद्धि – विधि के भ्रष्ट हो जाने पर सिद्धि कहाँ ?’ अतः मन में पूर्ण संतोष और धैर्य रखकर ही साधना करनी चाहिए।

गुरुभक्ति- मंत्रों की कुंजी गुरु के पास निहित है। प्रायः सभी मंत्र गुरुकृपा से दीक्षित होने पर शीघ्र फल देते हैं। गुरु का पद समस्त देवों से ऊपर है। कहा जाता है कि-

गुरुः पिता गुरुर्माता, गुरुर्देवो गुरुर्गतिः।

शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन।।

‘गुरु पिता हैं, गुरु माता हैं, गुरु देव हैं और गुरु गति हैं। यदि शिव नाराज हो जायें तो गुरु रक्षा करने वाले हैं, किंतु गुरु के नाराज हो जाय तो रक्षा करने वाला कोई नहीं।’

गुरु द्वारा गोविंद के दर्शन सुलभ माने गये हैं। अतएव शास्त्रों में देवपूजा से पूर्व गुरुपूजा का विधान है। कहा भी हैः

गुरुभक्ति विहिनस्य तपो विद्या व्रतं कुलम्।

व्यर्थं सर्वं शवस्यैव नानालंकार-भूषणम्।।

‘जिस प्रकार किसी मुर्दे को अनेक अलंकार पहनाना व्यर्थ है, उसी प्रकार गुरुभक्ति से रहित मनुष्य के तप, विद्या, व्रत और कुल व्यर्थ हैं।’

भक्ति- ऊपर गुरुभक्ति के बारे में कहा गया है, वैसी ही दृढ़ भक्ति भगवच्चरणों में होनी चाहिए, तभी मंत्र और देवता में ऐक्य होगा और यही एकरूपता साधना को फलवती बनायेगी।

शुद्धि- शुद्धि से तात्पर्य स्थान शुद्धि, शरीर शुद्धि, मनः शुद्धि, द्रव्य शुद्धि और क्रिया शुद्धि – इन 5 प्रकार की शुद्धियों से है। आराधना के लिए जिस स्थान का उपयोग करना हो, वहाँ किसी प्रकार की अपवित्रता न रहे, इसलिए साधना से पहले ही उसे पानी से धोकर स्वच्छ कर लें। गोबर – गोमूत्र से पवित्र कर लें। गुलाब जल का छिड़काव किया जा सकता है और जपादि के समय उस स्थान को धूप-दीप से उस स्थान को पवित्र बनाये रखें। यह स्थान एकांत और शांत हो, यह भी आवश्यक है। यही ‘स्थान-शुद्धि’ है।

शरीर शुद्धि– शरीर शुद्धि के लिए पंचगव्य का प्राशन, शुद्ध जल से स्नान तथा शुद्ध वस्त्र धारण अपेक्षित है।

मनः शुद्धि– इस शुद्धि के लिए अपवित्र विचारों का परित्याग तथा पवित्र विचारों की स्थिरता का होना आवश्यक है। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग बहुत सहायक होते हैं। यथासम्भव ध्यान का सहारा लेने में भी मन स्थिर किया जाना चाहिए।

द्रव्य शुद्धि– आराधना में जिन वस्तुओं का उपयोग किया जाय, वे भी पूर्णतः शुद्ध हों। इसके लिए ताजे पुष्प, दूध, फल आदि लायें। पूजा के उपकरण शुद्ध हों और साधना के समय काम में ली जाने वाली सभी वस्तुएँ शुद्ध रखी जायें। इसी को द्रव्य शुद्धि कहते हैं।

क्रिया-शुद्धि- इस शुद्धि से तात्पर्य है – मंत्र साधना के अंगों के रूप में की जाने वाली क्रियाओं की शुद्धता। इसमें मंत्र के  पूर्वांग, जैसे – योग मुहूर्त, ऋण-धन विचार, मंत्र से संबंधित न्यास, ध्यानादि तथा जप प्रक्रिया का समावेश होता है।

आसन- जप के समय बैठने की स्थिति और जिस पर बैठकर साधना की जाय, इन दोनों का बात संबंध आसन से है। सामान्यतया कुछ विशेष साधनाओं को छोड़कर अन्य सभी के लिए स्वस्तिकासन अथवा पद्मासन उपयुक्त माने गये हैं और बैठने के लिए ऊन का आसन सर्वोपयोगी है। जिस आसन का प्रयोग और उपयोग निश्चित किया गया हो, उसे बार-बार नहीं बदलना चाहिए। स्वयं जिस आसन पर बैठकर जपादि करते हों उस पर दूसरे को न बैठने दें।

पंचांग-सेवन- उपर्युक्त पद्धति से बाह्य और अंतःशुद्धि कर लेने के बाद पंचांग-सेवन का निर्देश है। इसमें आराध्य देव की गीता, सहस्रनाम, स्तोत्र, कवच और हृदय का समावेश है।

गीता सहस्रनामानि स्तवः कवचमेव च।

हृदयं चेति पंचैतत् पंचांग प्रोच्यते बुधैः।।

कुछ अंशों के पंचांग तो मिलते हैं किंतु बहुतों के नहीं मिलते, इस संबंध में कोई शंका न रखते हुए इतना ही पर्याप्त होगा कि जो भी गुरुनिर्दिष्ट साहित्य उपलब्ध हो, उसी का पाठ करें।

आचार– आचार से तात्पर्य है – आचरण। प्रत्येक कर्म में उसके अनुकूल आचरण भी आवश्यक है। यह प्रसिद्ध है कि ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ अर्थात् देव बनकर देव की पूजा करें। इसके अनुसार जिस मंत्र का जप किया जाय, उससे संबंधित न्यास, ध्यान आदि पहले जान लें तथा संप्रदाय के अनुरूप प्रयोग करें। यदि इस विधि में मनमाना हेर-फेर किया जायेगा तो सफलता में विलंब, विघ्न अथवा विकार आयेगा। इसे हम आभ्यांतर आचार कह सकते हैं। इसी तरह बाह्य आचारों का पालन भी हर प्रकार से आवश्यक है।

धारण– मंत्र के वर्णों और पदों को शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों में धारण करना तथा विभिन्न न्यासों का विधान ‘धारण’ है।

दिव्य देश सेवन– उत्तम वातावरण का निर्माण करने के लिए उत्तम स्थान का होना अत्यावश्यक है। जिन स्थानों पर पूर्व काल में महापुरुषों ने वर्षों तक साधना करके सिद्धियाँ प्राप्त की हों, जहाँ सदा पवित्र वातावरण बना रहता हो तथा जहाँ देवताओं के प्रधान पीठ हों, ऐसे पुण्य क्षेत्रों में रहकर स्मरण करना, गंगा-स्नानादि से पवित्रता प्राप्त करना दिव्य देश सेवन में आता है

प्राण-क्रिया- शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में प्राण को ले जाकर मंत्राभ्यास करना तथा प्राणायाम द्वारा मंत्रजप को बढ़ाना ‘प्राणक्रिया’ है।

मुद्रा- देवताओं का सन्निधान प्राप्त करने के लिए हाथ की अंगुलियों के योग से विभिन्न आकृतियों के निर्माण को मुद्रा कहा जाता है। यह विषय गुरुगम्य है और प्रत्येक देव के आयुध, आवाहनादि क्रिया और अन्यान्य जप के पूर्वांग और उत्तरांग के रूप में प्रयुक्त होती है। देवताओं को प्रसन्न तथा असुरों का विनाश करने से इसका नाम मुद्रा पड़ा है।

तर्पण– जलांजलिपूर्वक मंत्रोच्चारण से तर्पण संपन्न होता है। संध्या के पश्चात देव, ऋषि और मनुष्य तर्पण किया जाता है तथा जब प्रत्येक मंत्र का पुरश्चरण किया जाता है तो उसमें जप का दशांश हवन और हवन का दशांश तर्पण शास्त्र विहित है। यह मंत्रदेव के प्रति श्रद्धा निवेदन की प्रक्रिया है।

हवन- जौ, तिल, चावल, घृत और शर्करा के मिश्रण से शाकल बनाकर उसके साथ घृत की अग्नि में आहुति देने की क्रिया को हवन अथवा होम कहते हैं। किसी विशिष्ट मंत्र अथवा देव विशेष की जप साधना में कुछ विशिष्ट हवनीय द्रव्य द्वारा भी यह कर्म किया जाता है।

बलि–  इसमें देवताओं के लिए नेवैद्य अर्पण किया जाता है। मंत्र विशेष अथवा देवता विशेष के अनुरोध से कुछ विशिष्ट वस्तुओं का समर्पण भी इसमें होता है, किंतु किसी प्रकार की हिंसा का इसमें कोई स्थान नहीं है।

याग– इससे अंतर्याग तथा बहिर्याग की प्रक्रिया का संकेत किया है। अंतर्याग में शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित देवताओं को नमन करते हुए भावना की जाती है तथा बहिर्याग में न्यास और पूजादि का समावेश होता है।

जप– मंत्र का जप माला आदि के माध्यम से प्रसिद्ध है।

ध्यान- सामान्यतया इष्टदेव के स्वरूप का चिंतन ध्यान कहलाता है। मन की एकाग्रता के लिए यह आवश्यक है।

समाधि– यह ध्यान की सर्वोच्च कोटि है, जिसमें ध्याता के बेसुध होकर बाह्य ज्ञान से शून्य बन जाता है।

उपर्युक्त प्रक्रियाएँ विस्तृत तथा कुछ कठिन हैं। अतः आचार्यों ने इनमें से केवल 5 अंगों पर विशेष ध्यान देने का संकेत किया है. जिनमें आसन, मंत्र-पदों की धारणा, मंत्र पदों के अर्थ की भावना, सालम्ब ध्यान तथा निरालम्ब ध्यान आते हैं।

इस प्रकार मंत्र योग का आश्रय लेने से मुख्य ध्येय की सिद्धि और परमार्थ की प्राप्ति सुगम बन जाती है। साधक को चाहिए कि इनमें से जो क्रियाएँ सुलभ हैं, उनका यथाशक्ति प्रयोग करे तथा अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो।

(संकलित- ‘मंत्र-शक्ति’, लेखक- डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 119

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