दुःख का कारण

दुःख का कारण


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप और सुखस्वरूप है। वह प्रकृति से परे है। यदि मन प्रकृति की चीजों में मन भटकता है तो बुद्धि में राग-द्वेष उत्पन्न होता है और मन शांत होता है तो बुद्धि स्थिर हो जाती है तथा भगवत्शांति प्रकट हो जाती है। बाहर चाहे दुःख का कैसा भी निमित्त हो, भीतर शांति बनी रहती है।

एक तो दुःख के निमित्त से दुःख होता है। दूसरा मैं दुःखी हूँ- ऐसा सोचने से दुःख होता है। तीसरा दुःखाकार वृत्ति से दुःख होता है।

कभी दुःख का निमित्त होते हुए भी यदि दुःखाकार वृत्ति नहीं बनती तो दुःख नहीं होता। जैसे बच्चा चलते-चलते गिर पड़ा, उसको ठोकर लगी तो दुःख का निमित्त तो बना लेकिन उसकी दुःखाकार वृत्ति नहीं बनी तो वह हँसते-हँसते उठ खड़ा होता है। अथवा तो चतुर माँ उसकी वृत्ति दुःखाकार बनने से पहले ही सुखाकार बना देती है तो वह दुःखी नहीं होता।

लेकिन दुःख निवृत्ति ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है – परमानंद की प्राप्ति। दुःख होते हुए भी जिसे दुःख स्पर्श नहीं कर सकता, वह आत्मा मैं हूँ – ऐसा ज्ञान जरूरी है। अन्यथा कोई दुःख नहीं है तो बिस्तर पर पड़े-पड़े व्यक्ति करवट लेता रहता है कि कोई दुःख नहीं है। लेकिन यह परमानंद की प्राप्ति नहीं है। इससे तो आलस्य पैदा होगा और व्यक्ति बीमार होकर दुःख व पराधीनता की खाई में गिर जायेगा। दुःख का निमित्त न होते हुए भी दुःख बना लेगा।

अपने दुःख का कारण किसी को मत मानो। जो लोग अपने दुःख का कारण दूसरों को मानते हैं, उनके चित्त में द्वेष बना रहता है और वे जलते रहते हैं, तपते रहते हैं। जो अपने दुःख का कारण किसी और को मानेगा उसका दुःख बढ़ता जायेगा, घटेगा नहीं। अपने दुःख का कारण अपना अज्ञान है, अपनी नासमझी है, अपने कर्म हैं।

अपने दुःख का कारण अपनी बेवकूफी मानकर उसे मिटाना चाहिए। जो दूसरों को अपने दुःख का कारण मानते हैं उनकी बेवकूफी बढ़ती है, उनका दुःख बढ़ता है।

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

कोई किसी के सुख-दुःख का कारण नहीं है, अपने ही कर्म और विचार से मनुष्य सुख-दुःख पाता है।

जो तुम्हारा शत्रु है, वह किसी का मित्र भी तो है। हमारे ही पुण्यकर्म सामने वाले के अंतःकरण में हमारे लिए सद्भाव पैदा कर देते हैं और हमारे ही पापकर्म सामने वाले के हृदय में दुर्भावना पैदा कर देते हैं। किसी से न राग करें न द्वेष। राग आदमी को पराधीन कर देता है और द्वेष आदमी को हिंसक बना देता है। द्वेष का त्याग करना है तो अपने स्वभाव में क्षमाशीलता लायें। अगर क्षमाशीलता आयेगी तो हिंसा अहिंसा में बदल जायेगी, क्रोध शांति में बदल जायेगी, घृणा प्रेम में बदल जायेगी।

करना है तो क्षमा करो, द्वेष न करो। जानना है तो इसने क्या किया ? उसने क्या किया ? इस जानकारी में समय नष्ट मत करो वरन् परमेश्वर को जानो। मानना है तो अपने को शरीर मत मानो, न ही शरीर के सम्बन्धों को सच्चा मानो वरन् अपने को भगवान का मानो तो बेड़ा पार हो जाय….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 2 अंक 120

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