परिश्रम और मजदूरी

परिश्रम और मजदूरी


संत श्री आसाराम बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

परिश्रम दो प्रकार का होता है- शारीरिक और मानसिक। कई लोग कुदाली-फावड़े चलाकर शारीरिक परिश्रम करते हैं तो कई विचारों को दौड़ाकर मानसिक परिश्रम करते हैं। ज्ञानी दोनों परिश्रम छोड़कर स्वरूप मैं बैठे हैं, इसीलिए वे दोनों के गुरु हैं। स्थूल परिश्रम छोड़कर जितने सूक्ष्म बनोगे, सामर्थ्य उतना ही ज्यादा आयेगा।

पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी को इंजन खींच ले जाता है, क्योंकि डिब्बों की अपेक्षा इंजन में ज्यादा सूक्ष्मता है। इंजन पर भी ड्राइवर के हाथ का नियंत्रण है। हाथ पर नियंत्रण है ड्राइवर के मन का। मन में गाड़ी को चलाने का संकल्प हो हाथ को इंजन चलाने का आदेश मिल जाता है और रोकने का संकल्प करे तो हाथ ब्रेक पर पहुँच जाता है। इस प्रकार ड्राइवर का मन गाड़ी के डिब्बों, इंजन और उसके शरीर से भी सूक्ष्म है, इसीलिए वह इन सब पर राज्य करता है।

इस मन से भी सूक्ष्म है बुद्धि और बुद्धि से भी सूक्ष्म है आत्मा। आत्मा की सत्ता से ही मन में स्फुरणा होती है और मन पुनः आत्मा में लीन होता है। इससे सबसे ज्यादा सामर्थ्यवान है आत्मा। यह आत्मा कहीं दूर नहीं है वरन् हमारा मूल स्वरूप ही है।

ज्ञानी महापुरुष इस रहस्य को पूर्णरूप से जान लेते हैं, इसीलिए सबसे ज्यादा सामर्थ्य के धनी होते हैं। बाहर से निष्क्रिय जैसे दिखते हुए भी ज्ञानी के एक संकल्पमात्र से पूरे विश्व में बदलाहट आने लगती है। नंगे पैर तीर्थयात्रा, गंगास्नान, चान्द्रायण आदि व्रत, शरीर को सताकर किये गये उपवास – इन सबसे जो पुण्य मिलता है, उससे ज्यादा पुण्य, शांति और आनंद का अनुभव आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों के दर्शन-सत्संग से होता है। उनके क्षणमात्र के कृपा-कटाक्ष से अज्ञानी जीव के जन्मों-जन्मों के बंधन कट जाते हैं।

मजदूर को सारे दिन के शारीरिक परिश्रम से क्या मिलता है ?

“बाबा जी ! दो पाली में मजदूरी करता हूँ, तब भी पूरा नहीं पड़ता।”

कहाँ से होगा ? और अगर हो भी गया तो क्या ? सब अधूरा है। उससे केवल स्थूल शरीर का पोषण होगा। काम तो तब पूरा होगा जब परम सूक्ष्मता में पहुँचोगे, आत्मा को जानोगे, परमात्मा को पाओगे, आत्मसाक्षात्कार करोगे….

इसमें कोई मजदूरी नहीं है, परिश्रम नहीं है। सौदा सस्ता है लेकिन लोग यह सौदा करने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें जन्मों से ही नहीं, सदियों से मजदूरी करने की आदत पड़ गयी है कि कुछ मेहनत करने से ही सब मिलता है। बाह्य जीवन में उनकी इस ग्रंथि को पोषण भी मिलता है लेकिन परमात्मा को पाने के लिए इन सब ग्रंथियों को छोड़ देना पड़ेगा। शरीर और मन की मजदूरी छोड़ दो। शरीर की मजदूरी शायद होती भी रहे, शरीर से सेवा होती भी रहे परंतु मन की मजदूरी को, संकल्प-विकल्पों के जाल को तो काटो ही। शरीर का श्रम तो अनिवार्य है, मन के संकल्प-विकल्प का श्रम छोड़ने से बेड़ा पार है।

आत्मनिष्ठ महापुरुष के सान्निध्य में जाओ। उनकी उपस्थिति में संकल्प-विकल्प कम होते जायेंगे और एक दिन ऐसा आयेगा कि तुम निःसंकल्प अवस्था में आ जाओगे। उस समय वह परम समर्थ तुम्हारा आत्मदेव प्रकट हो जायेगा और तुम उस अवस्था में स्थिर हो जाओगे।

लोग जब ध्यान करने बैठते हैं, तब भी भारी होकर बैठते हैं। शारीरिक परिश्रम छोड़कर मानसिक परिश्रम चालू कर देते हैं। अरे भाई ! ध्यान को बोझ नहीं बनाना है, ध्यान से तो आनंदमय होना है। गुरु गोरखनाथ ने कहा है—

बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।

गगन सिषर महिं बालक बौले ताका नाँव धरहुगे कैसा।।

हसिबो खेलिबो धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियान।

हंसै षेलै न करे मन भंग। ते निहचल सदा नाथ कै संग।।

हँसते खेलते, प्रसन्न होकर ध्यान करो, आत्मचिंतन करो, रात दिन ब्रह्मज्ञान की चर्चा करो। आत्मनिरीक्षण करो कि ‘मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? किसलिए आया हूँ ? कहाँ जाना है ? मेरा परम कर्तव्य क्या है ? जीव क्या है ? जगत क्या है ?’ आदि। इन प्रश्नों की गहराई में उतरो और अपने अस्तित्व की गहराई में से इनके जवाब ढूँढ निकालो। शास्त्र के सिद्धान्त, गुरु के उपदेश और स्वानुभव की कसौटी पर उन जवाबों को कसो। भूसी साबित हों उन्हें फेंक दो और दाने साबित हों तो उन्हें संभाल लो।

जो साधक इस आत्मचिंतन में ही दिन रात लगा रहता है, यथायोग्य खाता पीता है किंतु संसार के विषयों में मन को आसक्त नहीं होने देता और आत्मचिंतन की धारा को टूटने नहीं देता, वह साधक सहज ही सिद्धस्वरूप में जग जाता है।

हसिबो खेलिबो धरिबा ध्यानं….. ऐसे तो मूर्ख लोग भी हँसते-खेलते हैं, ‘हा-हा-ही-ही’ में पूरा जीवन बिता देते हैं। उनकी हा-हा-ही-ही और साधकों की प्रसन्नता में बड़ा फरक है।

वे विषय लम्पट हैं, नट-नटियों का चिंतन करते हैं, विषय विकारों का चिंतन करते हैं, राग-द्वेष में फँसते हैं जबकि साधक निर्विषय आध्यात्मिक आनंद पाने के मार्ग पर है। वह परमात्मा का ध्यान करता है, विषय विकारों को पैरों तले कुचलकर, राग-द्वेष के जाल को काटकर गुणातीत होने का प्रयत्न करता है।

मूर्ख लोग संसाररूपी कीचड़ में कीड़े की तरह बिलबिलाते हैं. जबकि साधक कीचड़ में रहकर भी गगनगामी दृष्टि रखकर ऊपर उठता है और कमल की तरह जीवन को स्वच्छ, निर्लेप, सुंदर और सुरभित करता है।

यदि वेदान्ती जीवन जिया जाय तो देश के सभी प्रश्न हल हो जायें। ऐसे साधनों की जरूरत नहीं है जो देशवासियों की इच्छा-वासना भड़कायें वरन् ऐसे वातावरण की जरूरत है, जिससे उन्हें संयम-सदाचार, सादगीपूर्ण और तेजस्वी जीवन जीने की प्रेरणा मिले, वे अपना कर्तव्यपालन करने में तत्पर बनें, अपने दैनिक जीवन में, नौकरी धंधे में छल-कपट छोड़कर कुटुम्ब का, समाज का, देश का हित हो ऐसा आचरण करें।

ऐसा वातावरण मिलेगा वेदान्ती जीवन वाले महापुरुषों के चरणों में… वे महापुरुष आत्मा-परमात्मा के अनुभव से सम्पन्न होते हैं। वही परमात्मा, सबमें स्थित सर्वेश्वर, अनेकों में छुपा हुआ एक ईश्वर, कर्मफल का दाता, हमारे कर्मों का साक्षी, हमारे सभी कर्मों को निहार रहा है…. ऐसे ज्ञान की समाज और देश को जरूरत है।

यदि देशवासियों को इस वेदान्त दर्शन का ज्ञान नहीं होगा, धर्म का ज्ञान नहीं होगा तो रक्षक ही भक्षक बन जायेगा, पोषक ही शोषक बन जायेगा, चौकीदार ही चोर बन जायेगा…. तो भोग वासना भड़काने वाला वातावरण बनता रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 120

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