Yearly Archives: 2002

परिश्रम और मजदूरी


संत श्री आसाराम बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

परिश्रम दो प्रकार का होता है- शारीरिक और मानसिक। कई लोग कुदाली-फावड़े चलाकर शारीरिक परिश्रम करते हैं तो कई विचारों को दौड़ाकर मानसिक परिश्रम करते हैं। ज्ञानी दोनों परिश्रम छोड़कर स्वरूप मैं बैठे हैं, इसीलिए वे दोनों के गुरु हैं। स्थूल परिश्रम छोड़कर जितने सूक्ष्म बनोगे, सामर्थ्य उतना ही ज्यादा आयेगा।

पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी को इंजन खींच ले जाता है, क्योंकि डिब्बों की अपेक्षा इंजन में ज्यादा सूक्ष्मता है। इंजन पर भी ड्राइवर के हाथ का नियंत्रण है। हाथ पर नियंत्रण है ड्राइवर के मन का। मन में गाड़ी को चलाने का संकल्प हो हाथ को इंजन चलाने का आदेश मिल जाता है और रोकने का संकल्प करे तो हाथ ब्रेक पर पहुँच जाता है। इस प्रकार ड्राइवर का मन गाड़ी के डिब्बों, इंजन और उसके शरीर से भी सूक्ष्म है, इसीलिए वह इन सब पर राज्य करता है।

इस मन से भी सूक्ष्म है बुद्धि और बुद्धि से भी सूक्ष्म है आत्मा। आत्मा की सत्ता से ही मन में स्फुरणा होती है और मन पुनः आत्मा में लीन होता है। इससे सबसे ज्यादा सामर्थ्यवान है आत्मा। यह आत्मा कहीं दूर नहीं है वरन् हमारा मूल स्वरूप ही है।

ज्ञानी महापुरुष इस रहस्य को पूर्णरूप से जान लेते हैं, इसीलिए सबसे ज्यादा सामर्थ्य के धनी होते हैं। बाहर से निष्क्रिय जैसे दिखते हुए भी ज्ञानी के एक संकल्पमात्र से पूरे विश्व में बदलाहट आने लगती है। नंगे पैर तीर्थयात्रा, गंगास्नान, चान्द्रायण आदि व्रत, शरीर को सताकर किये गये उपवास – इन सबसे जो पुण्य मिलता है, उससे ज्यादा पुण्य, शांति और आनंद का अनुभव आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों के दर्शन-सत्संग से होता है। उनके क्षणमात्र के कृपा-कटाक्ष से अज्ञानी जीव के जन्मों-जन्मों के बंधन कट जाते हैं।

मजदूर को सारे दिन के शारीरिक परिश्रम से क्या मिलता है ?

“बाबा जी ! दो पाली में मजदूरी करता हूँ, तब भी पूरा नहीं पड़ता।”

कहाँ से होगा ? और अगर हो भी गया तो क्या ? सब अधूरा है। उससे केवल स्थूल शरीर का पोषण होगा। काम तो तब पूरा होगा जब परम सूक्ष्मता में पहुँचोगे, आत्मा को जानोगे, परमात्मा को पाओगे, आत्मसाक्षात्कार करोगे….

इसमें कोई मजदूरी नहीं है, परिश्रम नहीं है। सौदा सस्ता है लेकिन लोग यह सौदा करने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें जन्मों से ही नहीं, सदियों से मजदूरी करने की आदत पड़ गयी है कि कुछ मेहनत करने से ही सब मिलता है। बाह्य जीवन में उनकी इस ग्रंथि को पोषण भी मिलता है लेकिन परमात्मा को पाने के लिए इन सब ग्रंथियों को छोड़ देना पड़ेगा। शरीर और मन की मजदूरी छोड़ दो। शरीर की मजदूरी शायद होती भी रहे, शरीर से सेवा होती भी रहे परंतु मन की मजदूरी को, संकल्प-विकल्पों के जाल को तो काटो ही। शरीर का श्रम तो अनिवार्य है, मन के संकल्प-विकल्प का श्रम छोड़ने से बेड़ा पार है।

आत्मनिष्ठ महापुरुष के सान्निध्य में जाओ। उनकी उपस्थिति में संकल्प-विकल्प कम होते जायेंगे और एक दिन ऐसा आयेगा कि तुम निःसंकल्प अवस्था में आ जाओगे। उस समय वह परम समर्थ तुम्हारा आत्मदेव प्रकट हो जायेगा और तुम उस अवस्था में स्थिर हो जाओगे।

लोग जब ध्यान करने बैठते हैं, तब भी भारी होकर बैठते हैं। शारीरिक परिश्रम छोड़कर मानसिक परिश्रम चालू कर देते हैं। अरे भाई ! ध्यान को बोझ नहीं बनाना है, ध्यान से तो आनंदमय होना है। गुरु गोरखनाथ ने कहा है—

बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।

गगन सिषर महिं बालक बौले ताका नाँव धरहुगे कैसा।।

हसिबो खेलिबो धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियान।

हंसै षेलै न करे मन भंग। ते निहचल सदा नाथ कै संग।।

हँसते खेलते, प्रसन्न होकर ध्यान करो, आत्मचिंतन करो, रात दिन ब्रह्मज्ञान की चर्चा करो। आत्मनिरीक्षण करो कि ‘मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? किसलिए आया हूँ ? कहाँ जाना है ? मेरा परम कर्तव्य क्या है ? जीव क्या है ? जगत क्या है ?’ आदि। इन प्रश्नों की गहराई में उतरो और अपने अस्तित्व की गहराई में से इनके जवाब ढूँढ निकालो। शास्त्र के सिद्धान्त, गुरु के उपदेश और स्वानुभव की कसौटी पर उन जवाबों को कसो। भूसी साबित हों उन्हें फेंक दो और दाने साबित हों तो उन्हें संभाल लो।

जो साधक इस आत्मचिंतन में ही दिन रात लगा रहता है, यथायोग्य खाता पीता है किंतु संसार के विषयों में मन को आसक्त नहीं होने देता और आत्मचिंतन की धारा को टूटने नहीं देता, वह साधक सहज ही सिद्धस्वरूप में जग जाता है।

हसिबो खेलिबो धरिबा ध्यानं….. ऐसे तो मूर्ख लोग भी हँसते-खेलते हैं, ‘हा-हा-ही-ही’ में पूरा जीवन बिता देते हैं। उनकी हा-हा-ही-ही और साधकों की प्रसन्नता में बड़ा फरक है।

वे विषय लम्पट हैं, नट-नटियों का चिंतन करते हैं, विषय विकारों का चिंतन करते हैं, राग-द्वेष में फँसते हैं जबकि साधक निर्विषय आध्यात्मिक आनंद पाने के मार्ग पर है। वह परमात्मा का ध्यान करता है, विषय विकारों को पैरों तले कुचलकर, राग-द्वेष के जाल को काटकर गुणातीत होने का प्रयत्न करता है।

मूर्ख लोग संसाररूपी कीचड़ में कीड़े की तरह बिलबिलाते हैं. जबकि साधक कीचड़ में रहकर भी गगनगामी दृष्टि रखकर ऊपर उठता है और कमल की तरह जीवन को स्वच्छ, निर्लेप, सुंदर और सुरभित करता है।

यदि वेदान्ती जीवन जिया जाय तो देश के सभी प्रश्न हल हो जायें। ऐसे साधनों की जरूरत नहीं है जो देशवासियों की इच्छा-वासना भड़कायें वरन् ऐसे वातावरण की जरूरत है, जिससे उन्हें संयम-सदाचार, सादगीपूर्ण और तेजस्वी जीवन जीने की प्रेरणा मिले, वे अपना कर्तव्यपालन करने में तत्पर बनें, अपने दैनिक जीवन में, नौकरी धंधे में छल-कपट छोड़कर कुटुम्ब का, समाज का, देश का हित हो ऐसा आचरण करें।

ऐसा वातावरण मिलेगा वेदान्ती जीवन वाले महापुरुषों के चरणों में… वे महापुरुष आत्मा-परमात्मा के अनुभव से सम्पन्न होते हैं। वही परमात्मा, सबमें स्थित सर्वेश्वर, अनेकों में छुपा हुआ एक ईश्वर, कर्मफल का दाता, हमारे कर्मों का साक्षी, हमारे सभी कर्मों को निहार रहा है…. ऐसे ज्ञान की समाज और देश को जरूरत है।

यदि देशवासियों को इस वेदान्त दर्शन का ज्ञान नहीं होगा, धर्म का ज्ञान नहीं होगा तो रक्षक ही भक्षक बन जायेगा, पोषक ही शोषक बन जायेगा, चौकीदार ही चोर बन जायेगा…. तो भोग वासना भड़काने वाला वातावरण बनता रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 120

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

 

दुःख का कारण


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मा ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप और सुखस्वरूप है। वह प्रकृति से परे है। यदि मन प्रकृति की चीजों में मन भटकता है तो बुद्धि में राग-द्वेष उत्पन्न होता है और मन शांत होता है तो बुद्धि स्थिर हो जाती है तथा भगवत्शांति प्रकट हो जाती है। बाहर चाहे दुःख का कैसा भी निमित्त हो, भीतर शांति बनी रहती है।

एक तो दुःख के निमित्त से दुःख होता है। दूसरा मैं दुःखी हूँ- ऐसा सोचने से दुःख होता है। तीसरा दुःखाकार वृत्ति से दुःख होता है।

कभी दुःख का निमित्त होते हुए भी यदि दुःखाकार वृत्ति नहीं बनती तो दुःख नहीं होता। जैसे बच्चा चलते-चलते गिर पड़ा, उसको ठोकर लगी तो दुःख का निमित्त तो बना लेकिन उसकी दुःखाकार वृत्ति नहीं बनी तो वह हँसते-हँसते उठ खड़ा होता है। अथवा तो चतुर माँ उसकी वृत्ति दुःखाकार बनने से पहले ही सुखाकार बना देती है तो वह दुःखी नहीं होता।

लेकिन दुःख निवृत्ति ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है – परमानंद की प्राप्ति। दुःख होते हुए भी जिसे दुःख स्पर्श नहीं कर सकता, वह आत्मा मैं हूँ – ऐसा ज्ञान जरूरी है। अन्यथा कोई दुःख नहीं है तो बिस्तर पर पड़े-पड़े व्यक्ति करवट लेता रहता है कि कोई दुःख नहीं है। लेकिन यह परमानंद की प्राप्ति नहीं है। इससे तो आलस्य पैदा होगा और व्यक्ति बीमार होकर दुःख व पराधीनता की खाई में गिर जायेगा। दुःख का निमित्त न होते हुए भी दुःख बना लेगा।

अपने दुःख का कारण किसी को मत मानो। जो लोग अपने दुःख का कारण दूसरों को मानते हैं, उनके चित्त में द्वेष बना रहता है और वे जलते रहते हैं, तपते रहते हैं। जो अपने दुःख का कारण किसी और को मानेगा उसका दुःख बढ़ता जायेगा, घटेगा नहीं। अपने दुःख का कारण अपना अज्ञान है, अपनी नासमझी है, अपने कर्म हैं।

अपने दुःख का कारण अपनी बेवकूफी मानकर उसे मिटाना चाहिए। जो दूसरों को अपने दुःख का कारण मानते हैं उनकी बेवकूफी बढ़ती है, उनका दुःख बढ़ता है।

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

कोई किसी के सुख-दुःख का कारण नहीं है, अपने ही कर्म और विचार से मनुष्य सुख-दुःख पाता है।

जो तुम्हारा शत्रु है, वह किसी का मित्र भी तो है। हमारे ही पुण्यकर्म सामने वाले के अंतःकरण में हमारे लिए सद्भाव पैदा कर देते हैं और हमारे ही पापकर्म सामने वाले के हृदय में दुर्भावना पैदा कर देते हैं। किसी से न राग करें न द्वेष। राग आदमी को पराधीन कर देता है और द्वेष आदमी को हिंसक बना देता है। द्वेष का त्याग करना है तो अपने स्वभाव में क्षमाशीलता लायें। अगर क्षमाशीलता आयेगी तो हिंसा अहिंसा में बदल जायेगी, क्रोध शांति में बदल जायेगी, घृणा प्रेम में बदल जायेगी।

करना है तो क्षमा करो, द्वेष न करो। जानना है तो इसने क्या किया ? उसने क्या किया ? इस जानकारी में समय नष्ट मत करो वरन् परमेश्वर को जानो। मानना है तो अपने को शरीर मत मानो, न ही शरीर के सम्बन्धों को सच्चा मानो वरन् अपने को भगवान का मानो तो बेड़ा पार हो जाय….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 2 अंक 120

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गीता का अविकम्प योग


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

शास्त्र कहते हैं कि जब तक सामने वाला पूछे नहीं, नम्र न हो तब तक ऊँची बात नहीं बोलनी चाहिए, किंतु अर्जुन के न पूछने पर भी भगवान बोलते हैं। जैसे – कोई अन्धा गड्ढे में गिरता हो, उसको नहीं दिखता किंतु आपको दिखता है तो आपका हृदय थोड़े ही मानेगा कि चुप बैठें। ऐसे ही भगवान देखते हैं कि ये जीव बेचारे अलग-अलग ढंग से माया की खाई में गिर रहे हैं। इसीलिए भगवान बोलते हैं और अधिकारी भेद से अलग-अलग बोलते हैं।

भगवान ने उद्धव से कहाः ‘तुम सब कुछ छोड़कर बदरीकाश्रम में जाओ और मैंने जो उपदेश दिया है, उसका अभ्यास करके मुझसे ऐसे मिलो जैसे – दूध से दूध। जैसे सागर की लहर सागर से मिलती है, ऐसे ही जीवात्मा मुझ अंतर्यामी परमात्मा से मिले।’

भगवान ने अर्जुन से कहाः ‘मेरा स्मरण करते हुए युद्ध कर और मुझसे मिल। कर्म करते हुए मुझसे मिल।’

संयमी राजा अंबरीष से भगवान ने कहाः ‘एकादशी का उपवास करो, प्रजा का ठीक से पालन करो और कर्ता, धर्ता एवं भोक्ता महेश्वर है – ऐसा समझकर कर्म करते जाओ। जो कर्म का प्रेरक और फलदाता है उस ईश्वर का स्मरण करके सत्कर्म करते हुए, राजकाज करते हुए मुझसे मिलो।’

भगवान ने गोपियों से कहाः ‘तुम जहाँ भी हो, जैसी भी हो किंतु किसकी हो, यह सदा याद रखो।’

दूध दुहते रहो, दही बिलोते रहो, गाय चराते रहो किंतु किसके लिए कर रहे हो और वह कैसा है, यह सदा याद रखो। वह ईश्वर है, सर्वगुण-सम्पन्न है, महान है यह भी मत सोचो। जैसा तैसा है किंतु वह हमारा है। यशोदा की ओखली से बंधता है लेकिन है हमारा कन्हैया !

भगवान से अपनत्व रखने से तुम्हारी प्रीति कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग हो जायेगी। भक्ति कैसी होनी चाहिए ? नारद जी ने कहाः यथा गोपिकानाम्। जैसी गोपियों की थी। श्रीकृष्ण ने पढ़े लिखे उद्धव को अनपढ़ गोपियों से उपदेश दिलवाया।

पाँचवें तरीके से उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहाः

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सतंरिष्यसि।।

‘यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।’ गीता- 4.36

इन पाँच तरीकों में से कोई भी तरीका अपने जीवन में नहीं है तो जीवन वर्तमान में भी विक्षेप और विलासिता से भरा होगा और भविष्य में भी दुःखदायी होगा। चाहे संसारी स्वार्थ का जीवन हो चाहे भगवत्प्राप्ति का…. परोपकार के बिना जीवन में निखार नहीं आता। परोपकार तो करें किंतु बेचारे दीन-हीन हैं — ऐसी बुद्धि से नहीं, जिनकी सेवा करते हो, उनमें मेरा परमात्मा है – इस भाव से सेवा करें।

यह अर्जुन का जमाना नहीं है, युद्ध की अभी जरूरत नहीं है। सब कुछ छोड़कर बद्रीनाथ जाओ ऐसा भी मैं नहीं कहता। किंतु आपसे वही कहता हूँ जो भगवान ने अंबरीष से कहा।

‘सबकी गहराई में मेरा परमात्मा है।’ – यह दृष्टिकोण आपके जीवन में अविकम्प योग लायेगा। यदि आपकी यह समझ है तो युद्ध करते हुए, राज्य करते हुए, रोटी बनाते हुए, गुरु के दैवी कार्य करते हुए भी आपका अविकम्प योग हो जायेगा।

आप पूजा-मंदिर में रहे तो आपका योग हुआ, किंतु बाहर आये तो आपका योग कम्पित हो गया। आप समाधि में रहे तो आपका योग रहा, आप व्यवहार में आये तो समाधि नहीं है, आपका योग कम्पित हो गया।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।

‘जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है-इसमें कोई संदेह नहीं है।’ गीता- 10.7

इस अविकम्प योग को समझने से आप कर्म करते हुए भी भगवान की भक्ति में सफल हो जाओगे, इसमें संशय मत करो।

आज के युग में तुमको कहें कि ‘तुम हिमालय चले जाओ, समाधि करो, भगवान को पाओ फिर संसार में आओ’ तो यह तुम्हारे बस की बात नहीं। तुमको कहें कि ‘तुम गोपियों की नाईं भक्ति करो तो यह भी तुम्हारे बस की बात नहीं है।

तुम जहाँ हो, जैसे हो, पढ़े हो या अनपढ़ हो, मंदिर में हो चाहे दुकान में हो लेकिन तुम्हारा दृष्टिकोण बदल जाये। जहाँ-जहाँ सौंदर्य दिखे, जहाँ-जहाँ शुभ दिखे, मंगलमय दिखे वहाँ भगवान का वैभव है। जहाँ-जहाँ विघ्न-बाधा दिखे, गड़बड़ दिखे वहाँ भगवान के अनुशासन की शक्ति काम कर रही है – ऐसा समझें। जैसे, हाथी अपने रास्ते से चलता है तो ठीक, नहीं तो महावत ऊपर से नियंत्रण करता है। ऐसे ही यह जीवात्मा अपने ईश्वरत्व को पाने के लिए आया है लेकिन अगर रास्ता भूलता है और कुछ गलत करता है तो देर-सवेर उसको तकलीफ होती है।

जैसे – माँ बच्चे को सुख-सुविधा और  मिठाई देकर भी मंगल चाहती है और कभी-कभी बच्चे के न चाहते हुए भी उसकी नाक दबोचकर साफ करती है, साबुन रगड़कर नहला-धुलाकर तैयार करती है। माँ की चेष्टाएँ बच्चे को अच्छी नहीं लेकिन माँ की सारी चेष्टाएँ बच्चे की भलाई के लिए होती हैं।

आपके जीवन में कभी चढ़ाव आता है तो कभी उतार आता है। किंतु उतार में आप मायूस न होना और चढ़ाव में आप फूलना मत। चढ़ाव और उतार ये जीवन के ताने बाने हैं। हो सकता है कि जीवन में यदि विघ्न बाधाएँ न आतीं तो ऐसा सत्संग न मिलता अथवा संत की कृपा न होती तो ऐसा सत्संग न मिलता।

कभी चिंतित न हों, कभी दुःखी न हों। चिंता आये तो चिंतित न हों वरन् विचार करो कि चिंता आयी है तो मन में आयी है। चिंता नहीं थी तब भी कोई था, चिंता है तब भी कोई है और चिंता आयी है तो जायेगी भी क्योंकि जो आता है वह जाता भी है।

चिंता से आप जुड़ जाते हैं तो कमजोर हो जाते हैं, दुःखी हो जाते हैं। अहंकार से आप जुड़ जाते हो तो परेशान हो जाते हैं। सफलता से जुड़ जाते हैं तो अहंकार आता है और विफलता से जुड़ जाते हैं तो चिंतित हो जाते हैं। यदि आप इनसे न जुड़े तो ये आपको मजबूत बनाकर चले जायेंगे।

बीमार या तन्दुरुस्त किसी का तन हो सकता है, अच्छा या बुरा किसी का मन नहीं हो सकता है, बुद्धु या विद्वान किसी की बुद्धि हो सकती है लेकिन वह तो वही है जो तू है। जहाँ से तू ‘मैं’ बोलता है, तेरा वही ‘मैं’ आत्मदेव है। मित्र की गहराई में भी तू है और शत्रु की गहराई में भी तू है। भगवान कहते हैं कि ‘मेरी विभूति को देखें। जहाँ-जहाँ सुन्दर सुहावना है, उस सुन्दर वस्तु और व्यक्ति की गुलामी न करें। उसको जो सुन्दरता और सुहावनापन मिला है, वह मुझ आत्मा का है। मैं आत्मरूप से सबके साथ हूँ।’ इस प्रकार की नज़र आपको अविकम्प योग के राजमार्ग पर ला देती है।

जैसे, अँगूठी, चेन आदि गहने अलग होते हैं किंतु सबका मूल पदार्थ सोना एक है, तरंग और बुलबुले अनेक होते हैं किंतु सागर का पानी एक होता है, ऐसे ही जीवों की आकृतियाँ अनेक होती हैं किंतु सबकी गहराई में सच्चिदानंद चैतन्य परमात्मा एक ही है। नज़र एक सच्चिदानंद परमात्मा पर रहे तो हो गया – अविकम्प योग। पूजा-पाठ, जप-तप, साधन-भजन करके इस अविकम्प योग का अभ्यास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 3,4 अंक 120

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ