समस्याएँ – विकास का साधन

समस्याएँ – विकास का साधन


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

ज्ञान का और जीवन का नज़रिया ऊँचा होने से आदमी सभी समस्याओं को पैरों तले कुचलते हुए ऊपर उठ जाता है । दुनिया में ऐसी कोई समस्या या मुसीबत नहीं है जो आपके विकास का साधन न बने । कोई भी समस्या, मुसीबत आपके विकास का साधन है यह पक्का कर लो । जिसके जीवन में मुसीबत, समस्या नहीं आती उसका विकास असम्भव है लेकिन जब डर जाते हो और गलत निर्णय लेते हो तो समस्या आपको दबाती है । समस्या का समाधान तथा उसका सदुपयोग करके आप आगे बढ़ो और सुख, सफलता आये तो उसे ‘बहुजनहिताय’ बाँटकर, उसकी आसक्ति और भोग से बचकर आप औदार्य सुख लो । समस्याएँ बाहर से विष की तरह तकलीफ देने वाली दिखती हैं लेकिन जो भी तकलीफ हैं वे भीतर से अपने में विकास का अमृत सँजोये हुए हैं । ऐसा कोई संत महापुरुष अथवा सुप्रसिद्ध व्यक्ति नहीं हुआ, जिसके जीवन में समस्याएँ और विरोध न हुआ हो ।

भगवान राम के जीवन में देखो, भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में देखो तो समस्याओं की लम्बी कतार…. ! श्रीकृष्ण का  जन्म होने के पहले ही उनके माँ-बाप को कारागृह में जाना पड़ा । श्रीकृष्ण के जन्मते ही वे पराये घर ले जाये गये । कितनी भारी समस्या है ! फिर छठे दिन पूतना जहर लेकर आयी । कुछ दिन बीते तो शकटासुर, धेनुकासुर, अघासुर, बकासुर मारने आ गये थे । 17 साल तक समस्याओं से जूझते-जूझते श्रीकृष्ण कितने मजबूत हो गये ! ऐसे ही रामजी के जीवन में 14 वर्ष का वनवास आदि कई समस्याएँ आयीं । समस्याओं से घबराना नहीं चाहिए, भागना नहीं चाहिए और अपने को कोसना नहीं चाहिए कि ‘मैं बड़ा अभागा हूँ’। दुःख और समस्याएँ आती हैं आसक्ति और लापरवाही मिटाने के लिए ।

आपकी लापरवाही के कारण असफलता आयी है तो आप लापरवाही मिटाओ । आसक्ति के कारण या खान-पान के कारण अगर बीमारी की समस्या आयी तो वह आपके खान पान में लापरवाही की परिचायक है । बीमारी की समस्या तब आती है जब आप स्वाद लोलुपता में पड़कर चटोरापन करते हो अथवा रात को देर से खाते हो, अधिक खाते हो या कोई ऐसी विरुद्ध खुराक ले लेते हो जो आपको पचती नहीं, शरीर को अनुकूल नहीं पड़ती । ऐसे ही विफलता की समस्या तब आती है जब आप अपने उद्देश्य, अपनी योग्यता और अपनी शक्ति का विचार किये बिना कोई काम करते हो । अपनी रूचि, अपनी योग्यता और अपना साधन समझकर उद्देश्य की पूर्ति का निर्णय करना चाहिए, फिर उसमें लग जाना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 13 अंक 193

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