उनकी सहजावस्था को वे ही जानते हैं

उनकी सहजावस्था को वे ही जानते हैं


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

एक बार एक पंडित जी श्री रमण महर्षि के पास गया और बातचीत के दौरान उसने उनसे कोई प्रश्न किया । महर्षि ने उत्तर दिया । उसने दूसरा प्रश्न किया, महर्षि ने उसका भी उत्तर दिया । लोगों के सामने अपने को विशेष दिखाने के लिए उसने फिर से प्रश्न किया तो महर्षि पंडित जी पर बिगड़े, बोलेः “क्या समझता है पंडित का बच्चा ?” उठाया डंडा, पंडित डर के भागा । पंडित आगे और रमण महर्षि डंडा लेकर पीछे । देखने वाले दंग रह गये । महर्षि बहुत दूर तक उसको भगाकर आये और दूसरे ही क्षण उतने ही शांत, उतने ही आनंदित थे । कितना सहज जीवन है संतों का ! प्रसिद्ध लेखक पॉल ब्रंटन बुद्धिमान था, उसने लिखा कि ‘महर्षि कितने सहज हैं ! कितनी ऊँची अवस्था है ! कैसा स्वाभाविक जीवन है !’

‘लोग क्या कहेंगे, वे क्या कहेंगे ?’ नहीं ! नानक बोले सहज स्वभाव । उन महापुरुषों के दिल में द्वेष नहीं होता है, न नफरत होती है, न राग होता है । उनके जीवन में तो सहजता होती है ।

एक बार सहारनपुर में किसी संचालक ने लापरवाही की और लोगों में थोड़ी अव्यवस्था हो गयी तो मैंने संचालकों को बुलाकर डाँटा, उठ-बैठ करवायी तो मीडियावालों को ऐसी ऊँची सूझबूझ कि दूसरे दिन अखबारों में आयाः ‘बापू जी ने तो अपने संचालकों की भी क्लास ले ली । बापू जी की तटस्थता और व्यवहार कुशलता से ‘पिनड्रॉप साइलेंस’ रहता है, अव्यवस्था होने से बच जाती है । बापू जी एक सत्संग करने वाले संत भी हैं और साथ-साथ में दूरद्रष्टा भी हैं ।’

यदि लेखकों की मति किसी दुर्भावना से ग्रस्त होती तो वे यह भी लिख सकते थे कि ‘रमण महर्षि को आपा नहीं खोना चाहिए था, फलाने संत को ऐसा नहीं करना चाहिए था….’ वास्तव में जिनका आपा होता है वे ही सँभालें, उनका ही आपा खोये और रहे । आत्मारामी महापुरुषों का आपा होता ही नहीं, सहज स्वभाव…. नानक बोले सहज स्वभाव ।

‘गीता’ में कहा गया हैः

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।

‘हे कुंतीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए ।’ (गीताः 18.48)

ज्ञानी में सदोष कर्म केवल दिखते हैं लेकिन सहज में आ गये तो ज्ञानी वे कर भी देता है । जैसे – लंका में हनुमान जी को तंग किया गया और उनकी पूँछ पर कपड़ा लपेटा जा रहा था तो हनुमान जी बोलेः “ठीक है, चलो लपेटो !” तेल डालने लगे तो बोलेः ‘डालो ‘। और फिर सारी लंका में आग लगा दी । अब सात्तविक दृष्टि से सोचने वाले इसे हनुमान जी का कौशल्य-विनोद समझते हैं लेकिन रावण के भगत और राम के विरोधी होंगे, वे हनुमान जी के लिए अनाप-शनाप बोलेंगे ।

तो यह जगत कैसा है ? जैसा आपके मन का भाव है वैसा है । सुर भाव है, सज्जनता है तो आप सद्गुण का और असुर भाव है तो आप दोषारोपण का नज़रिया ले लेंगे । कैमरे से जिस ऐंगल से फोटो लो वैसा ही दृश्य दिखता है ।

सभी महापुरुषों का एक जैसा स्वभाव नहीं होता । जैसे दुर्वासा मुनि ज्ञानी थे, साक्षात्कारी थे और जरा-जरा सी बात में ऐसा डाँट देते कि सुनने वाले के कान में धुआँ निकल जाय । लोगों को लगे कि ‘लो, महात्मा होकर ऐसा करते हैं ?’ अरे ! ज्ञानी के लिए यह करो, यह न करो ऐसा कोई बंधन नहीं है ।

एक बार दुर्वासा मुनि जंगल मं बैठे थे । सामने दूर रास्ते से एक पथिक जा रहा था, उसे जोर से चिल्लाकर बुलायाः “इधर आ !”

आधा मील दूर से चलकर आया, बोलाः “जी महाराज ?”

“अरे ! क्या जी महाराज ! कहाँ गया था ?”

“तपस्या करने गया था । देवी माँ की उपासना की और देवी प्रकट हुई । मैं निःसंतान था, वैद्यों ने बोला था तुम्हें संतान नहीं होगी । देवी माँ ने कृपा करके  मुझे संतानप्राप्ति का वर दिया है ।”

“जाओ ! वरदान रद्द है, नहीं होगा ।”

ये दुर्वासा महर्षि हैं । अब लोगों को लगेगा कि ये कैसे महात्मा हैं ? लेकिन जो बुद्धिमान होंगे वे समझ जायेंगे कि इसके पीछे भी भगवान का संकल्प है । दुर्वासा ऋषि ने द्वेष से नहीं बुलाया था, ब्राह्मण के प्रति संत की कृपा कहो या परमेश्वरी की प्रेरणा कहो । संत ने सोचा होगा कि इस इलाके में आया, संत की दृष्टि पड़ी, इतना भजन किया फिर संतान की वासना बनी रही तो फँसेगा और संतान हुई तो आसक्ति होगी, शायद दुःख देने वाली हो या संसार में फँसाने वाली हो । इसलिए महापुरुष ने प्रारब्ध काट दिया ।

मेटत कठिन कुअंक भाल के ।

तपस्या करके वांछित फल पाना, इच्छा पूरी करना, इसकी अपेक्षा इच्छा निवृत्त करना श्रेष्ठ साधन है । इच्छा पूरी हो गयी तो फिर वैसे के वैसे । तपस्या से भी सत्संग का महत्त्व ज्यादा है । यह दिखाने के लिए ईश्वर ने जीवन्मुक्त महापुरुष दुर्वासा जी से ऐसा  व्यवहार करवाया होगा ।

तो बकने वाले बकते रहें कि ‘दुर्वासा जी को, रमण महर्षि को ऐसा नहीं करना चाहिए था’ लेकिन उनका तो सहज स्वभाव था ।

जो करे सब सहज में, सो साहेब का लाल ।

वृन्दावन की बात है । एक महात्मा सत्संग कर रहे थे । मनचले स्वभाव की एक औरत आयी और बोलीः “अरे ! बैठा-बैठा मुफ्त का खावे है और फिर भाषण करे है ।”

महात्मा के लिए कुछ-का-कुछ बोलने लगी । किसी साधु ने कहा किः “महाराज ! वह आपके लिए गंदा बोल रही है ।”

“मेरे लिए कहाँ बोल रही है ? मेरा नाम थोड़े ही लेती है ! वह तो ऐसे ही बोलती है ।”

उस बाई ने सुन लिया तो महाराज का नाम लेकर बोलने लगी । लोग बोलेः “बाबा ! अब तो आपका नाम लेकर बोल रही है ।”

“इस नाम के तो कई लोग हैं दुनिया में । यह अकेले मेरा ही नाम है ऐसा मैं क्यों मानूँ । किसी को भी सुनाती होगी ।”

तो बाई और चिढ़ गयी, बोले “तेरे को कह रही हूँ तेरे को ! मुंडा-मुंडा टालिया !”

लोग बोलेः “बाबा ! अब तो आप ही के सामने इशारा है ।”

बाबा बोलेः “मेरे को नहीं कह रही है, यह तो इस शरीर को कह रही है । यह मेरा पाँचवा खोखा है । इसके अंदर चार खोखे और हैं । यह तो अन्नमय शरीर को देख रही है और उसी को कह रही है, मैं अन्नमय शरीर तो हूँ नहीं । अन्नमय शरीर तो मरने के बाद यहीं पड़ा रहेगा । फिर भी मैं तो रहूँगा । मेरे तक तो यह पहुँच नहीं सकती । अभी तो इसकी पहुँच अन्नमय शरीर तक है । जो कुछ भी कह रही है, गुस्सा कर रही है, गालियाँ दे रही है, मेरे इस अन्नमय शरीर को, पाँचवें शरीर को दे रही है । मैं तो इन सभी से न्यारा हूँ तो मेरे को कहाँ दे रही है !”

“अरे इतनी गालियाँ बोल रही हूँ और ‘मेरे को नहीं दे रही, मेरे को नहीं दे रही है ।’ क्या यह कथा कर रहे हो ?”

बाई सुनाये जा रही थी और महाराज हँसे  रहे थे । कोई बोलेः ‘ये क्या महाराज हैं  ? कोई इज्जत है इनकी ? दो पैसे की बाई ऐसा सुनाये तो फिर कौन साधु-संत बनेगा ?” अब देखने वाले का नज़रिया कैसा है ? महाराज में द्वेषबुद्धि होगी तो कोई बोलेगाः ‘ऐसा कोई महाराज होता है !’ और समझदार होगा तो बोलेगाः ‘हमारे महाराज कितने बढ़िया हैं !’ अब महाराज बढ़िया हैं कि घटिया यह तो भगवान जानते हैं लेकिन आपका मन द्वैत के तराजू में डोलता रहता है । आप किसी के डुलाने से या अपने राग-द्वेष के कारण डोलते रहो अथवा इन दोनों के बीच का ज्ञान का नेत्र खोलकर डुलानों को नियंत्रित करके अपने आत्मदेव को जानो, आपके हाथ की बात है ।

महात्मा विलक्षण होते हैं । जैसे रमण महर्षि कभी-कभी बिगड़ते हैं, दुर्वासा जी जरा-जरा सी बात में बिगड़ जाते हैं और तीसरे हैं कि कभी बिगड़ते ही नहीं हैं और तीनों ही प्रकार के महापुरुष जीवन्मुक्त हैं । ज्ञानी संतों के लिए कोई तराजू बाँधकर बैठे कि ‘इन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए, वैसा नहीं करना चाहिए’ तो वह द्वेष से प्रेरित होकर करता है या पैसे के लालच से प्रेरित होकर करता है । उसके पीछे क्या है वह जानना चाहिए ।

जिनको परमात्मा का सुख मिल गया वे व्यवहार में डंडा लेकर दिख पड़ते हों, तब भी ‘क्रुद्धोऽपि न क्रुद्धते, खिन्नोऽपि न खिद्यते’ खिन्न जैसे दिखते हैं फिर खिन्न  नहीं होते । ‘रूष्टोऽपि न रूष्टते...’ रूष्ट होते दिखते हैं फिर भी रूष्ट नहीं होते । तस्य तुलना केन जायते ? उनकी तुलना आप किससे करोगे ?

उनकी इस आदर्शमय दशा को उनके सदृश अन्य ज्ञानी महापुरुष ही जानते हैं । रमण महर्षि जैसे महापुरुष को आप अपनी बाहर की मति-गति से, द्वेष से तौलोगे तो आपका आसुरी भाव है । समझदारी से तौलोगे तो आपका दैवी भाव है, सुर भाव है । लेकिन वे महापुरुष तो भावातीत, गुणातीत, देहातीत, देशातीत, कालातीत, पाँचों शरीरों से अतीत परमात्मा में विश्रांति पा रहे हैं । आपके तौलने से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता । आपकी मति भ्रष्ट है तो द्वेष से तौलो । बाकी वे आपके तराजू में तुलें ऐसे नहीं होते ।

अष्टावक्र जी महाराज कहते हैं-

न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति ।

नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति ।।

‘मुक्त पुरुष न स्तुति किये जाने पर प्रसन्न होता है, न निंदित होने पर क्रुद्ध होता ह । न मृत्यु में उद्विग्न होता है, न जीवन में हर्षित होता है ।’ (अष्टावक्र गीताः 18.99)

जीवन्मुक्त ज्ञान इतर पुरुषों द्वारा स्तुति को प्राप्त हुआ भी हर्ष को प्राप्त नहीं होता है और इतर पुरुषों द्वारा निंदा किये जाने पर भी क्रोध को नहीं  प्राप्त  होता है और मृत्यु के आने पर भी वह भय को नहीं प्राप्त होता है क्योंकि उसकी दृष्टि में आत्मा नित्य है, जन्म-मरण कोई वस्तु नहीं है । उसको न अधिक जीने की इच्छा है, न मरने का भय है, वह सदा एकरस है ।

रमण महर्षि डंडा लेकर पंडित के पीछे पड़ें, दो-पाँच खरी-खोटी सुनाकर उसे दूर छोड़कर आवें उनकी मौज है अथवा कोई मनचली माई उन दूसरे महापुरुष को मुंडा कहे, टालिया कहती रहे और वे चुप बैठें, सुनें उनकी मौज की बात है । उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है । वे ज्ञानी अतुलनीय होते हैं । तो अपना लक्ष्य ज्ञानी के अनुभव को अपना अनुभव बनाने का रखना चाहिए ।

स्रोतःऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 2,3,4 अंक 193

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *