वे पाप जो प्रायश्चितरहित हैं

वे पाप जो प्रायश्चितरहित हैं


धर्मराज (मृत्यु के अधिष्ठाता देव) राजा भगीरथ से कहते हैं- “जो स्नान अथवा पूजन के लिए जाते हुए लोगों के कार्य में विघ्न डालता है, उसे ब्रह्मघाती कहते हैं । जो परायी निंदा और अपनी प्रशंसा में लगा रहता है तथा जो असत्य भाषण में रत रहता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है ।

जो अधर्म का अनुमोदन करता है उसे ब्रह्मघात का पाप लगता है । जो दूसरों को उद्वेग में डालता है, चुगली करता है और दिखावे में तत्पर रहता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं ।

भूपते ! जो पाप प्रायश्चितरहित हैं, उनका वर्णन सुनो । वे पाप समस्त पापों से बड़े तथा भारी नरक देने वाले हैं । ब्रह्महत्या आदि पापों के निवारण का उपाय तो किसी प्रकार हो सकता है परंतु जो ब्राह्मण अर्थात् जिसे ब्रह्म को जान लिया है ऐसे महापुरुष से द्वेष करता है, उसका पाप से कभी भी निस्तार नहीं होता ।

नरेश्वर ! जो विश्वासघाती तथा कृतघ्न हैं उनका उद्धार कभी नहीं होता । जिनका चित्त वेदों की निंदा में ही रत है और जो भगवत्कथावार्ता आदि की निंदा करते हैं, उनका इहलोक तथा परलोक में कहीं भी उद्धार नहीं होता ।

भूपते ! जो महापुरुषों की निंदा को आदरपूर्वक सुनते हैं, ऐसे लोगों के कानों में तपाये हुए लोहे की बहुत सी कीलें ठोक दी जाती हैं । तत्पश्चात् कानों के उन छिद्रों में अत्यंत गरम किया हुआ तेल भर दिया जाता है । फिर वे कुम्भीपाक नरक में पड़ते हैं ।

जो दूसरों के दोष बताते या चुगली करते हैं, उन्हें एक सहस्र युग तक तपाये हुए लोहे का पिण्ड भक्षण करना पड़ता है । अत्यंत भयानक सँडसों से उनकी जीभ को पीड़ा दी जाती है और वे अत्यंत घोर निरूच्छवास नामक नरक में आधे कल्प तक निवास करते हैं ।

श्रद्धा का त्याग, धर्मकार्य का लोप, इन्द्रिय-संयमी पुरुषों की और शास्त्र की निंदा करना महापातक बताया गया है ।

जो परायी निंदा में तत्पर, कटुभाषी और दान में विघ्न डालने वाले होते हैं वे महापातकी बताये गये हैं । ऐसे महापातकी लोग प्रत्येक नरक में एक-एक युग रहते हैं और अंत में इस पृथ्वी पर आकर वे सात जन्म तक गधा होते हैं । तदनंतर वे पापी दस जन्मों तक घाव से भरे शरीर वाले कुत्ते होते हैं, फिर सौ वर्षो तक उन्हें विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है । तदनंतर बारह जन्मों तक वे सर्प होते हैं । राजन् ! इसके बाद एक हजार जन्मों तक वे मृग आदि पशु होते हैं । फिर सौ वर्षों तक स्थावर (वृक्ष आदि) योनियों में जन्म लेते हैं । तत्पश्चात् उन्हें गोधा (गोह) का शरीर प्राप्त होता है । फिर सात जन्मों तक वे पापाचारी चाण्डाल होते हैं । इसके बाद सोलह जन्मों तक उनकी दुर्गति होती है । फिर दो जन्मों तक वे दरिद्र, रोगपीड़ित तथा सदा प्रतिग्रह लेने वाले होते हैं । इससे उन्हें फिर नरकगामी होना पड़ता है ।

राजन् ! जो झूठी गवाही देता है, उसके पाप का फल सुनो । वह जब तक चौदह इंद्रों का राज्य समाप्त होता है, तब तक सम्पूर्ण यातनाओं को भोगता रहता है । इस लोक में उसके पुत्र-पौत्र नष्ट हो जाते हैं और परलोक में वह रौरव तथा अन्य नरकों को क्रमशः भोगता है ।”

(नारद पुराण, पूर्व भाग-प्रथम पादः अध्याय 15)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 25 अंक 193

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