Monthly Archives: January 2009

विश्वगुरु भारत – पाश्चात्य विद्वान मैक्समूलर


मैं आप सबको विश्वास दिलाता हूँ कि भारत जैसा कर्मक्षेत्र न तो यूनान ही है न ही इटली ही, न तो मिश्र के पिरामिड ही इतने ज्ञानदायक हैं और न बेबीलोन के राजप्रासाद ही । यदि हम सच्चे सत्यान्वेषी हैं, यदि हममें ज्ञानप्राप्ति की भावना है और यदि हम ज्ञान का सच्चा मूल्यांकन करना जानते हैं तो हमें इस तथ्य को मानना ही पड़ेगा कि सहस्राब्दियों से पीड़ित-प्रताड़ित एवं जंजीरों में जकड़े हुए भारत में ही हमारा गुरु बनने की पूर्ण क्षमता है, आवश्यकता है केवल सच्चे हृदय से उस क्षमता को पहचानने की ।

यदि हमें इस समस्त धरा पर किसी ऐसे देश की खोज करनी हो, जहाँ प्रकृति ने धन, शक्ति और सौंदर्य का दान मुक्तहस्ता होकर किया हो या दूसरे शब्दों में जिसे प्रकृति ने बनाया ही इसलिए हो कि उसे देखकर स्वर्ग की कल्पना साकार की जा सके तो मैं बिना किसी प्रकार के संशय या हिचकिचाहट के भारत का नाम लूँगा । यदि मुझसे पूछा जाय कि किस देश के मानव-मस्तिष्क ने अपने कुछ सर्वोत्तम गुणों को सर्वाधिक विकसित स्वरूप प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है, जहाँ के विचारकों ने जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों एवं समस्याओं का सर्वाधिक सुंदर समाधान खोज निकाला है  तथा इसी कारण वह इस योग्य हो गया है कि कान्ट और प्लाटो के अध्ययन में पूर्णता को पहुँचे हुए व्यक्ति को भी आकर्षित करने की शक्ति रखता है तो मैं बिना किसी विशेष सोच-विचार के भारत की ओर उँगली उठा दूँगा । यदि मैं स्वयं अपने से ही यह पूछना आवश्यक समझूँ कि जिन लोगों का समूचा पालन-पोषण (शारीरिक व मानसिक) यूनानियों एवं रोमनों की विचारधारा के अनुसार हुआ और अब भी हो रहा है तथा जिन्होंने सेमेटिक जातीय यहूदियों से भी बहुत कुछ सीखा है, ऐसे यूरोपीय जनों को यदि आंतरिक जीवन को सम्पूर्णता प्रदान करने वाली सामग्री की खोज करनी हो, यदि उन्हें अपने जीवन की सच्चे रूप में मानव – जीवन बनाने वाली तथा ब्रह्मांडबंधुत्व (ध्यान रखिये कि मैं केवल विश्वबंधुत्व की बात नहीं कर रहा हूँ) की भावना को साकार बना सकने में समर्थ सामग्री की खोज करनी हो तो किस देश के साहित्य का सहारा लेना चाहिए ? तो एक बार फिर मैं भारत की ओर ही इंगित करूँगा, जिसने न केवल इस जीवन को ही सच्चा मानवीय जीवन बनाने का सूत्र खोज निकाला है वरन् परवर्ती जीवन किंबहुना शाश्वत जीवन को भी सुखमय बनाने का सूत्र पा लेने में सफलता प्राप्त कर ली है ।

जिन्होंने भारतीयों के प्रति छिः-छिः का भाव दर्शाकर तथा यह कहकर आत्मसंतोष प्राप्त कर लिया है कि ‘भारत में अब कुछ देखने, सुनने, जानने योग्य बाकी नहीं रह गया है’, वे मेरी यह बात सुनकर आश्चर्य से स्तब्ध हुए बिना न रह सकेंगे कि जिनको वे लोग ‘नेटिव’ (आदिम) कहकर अपनी घृणा प्रदर्शित करते रहे है, उनमें इतनी अहंता (विशिष्टता) है कि वे यूरोपियनों के गुरु हो सकते हैं । उनको आश्चर्याभिभूत हो जाना पड़ेगा जब वे यह सुनेंगे कि जिन देहाती भारतीयों को वे बाजारों तथा न्यायालयों में नित्यप्रति देखा करते थे, उनके भी जीवन से हमारे यूरोपीय बंधु बहुत कुछ सीख सकते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 12 अंक 193

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बंधन और मुक्ति कर्म से


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् ।

गुरु की कृपा ही शिष्य का परम मंगल कर सकती है, दूसरा कोई नहीं कर सकता है यह प्रमाण वचन है । प्रमाण वचन को जो पकड़ता है वह तरता है । जो मन के अनुसार, वासना के अनुसार ही गुरु को देखना चाहता है वह भटक जाता है । ‘गुरु को यह नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा करना चाहिए…. अथवा हमको ऐसा होना चाहिए, हमको यह मिलना चाहिए….’ –ऐसी सोच है तो समझो यह ‘वासना अनुसारी’ है ।

‘शास्त्रानुसारी’ प्रमाण के अनुरूप करेगा । ‘वासना अनुसारी’ मन के अनुरूप करेगा । नामदान तो ले लेते हैं लेकिन मन के अनुरूप वाले ही लोग अधिक होते हैं । कोई विरला होता है प्रमाण से चलने वाला – जो शास्त्र कहते हैं वह सत्, जो गुरु जी कहें वह सत्, जो अपनी वासना कहती है वह असत् ।

वासना अनुसारी कर्म बंधन है, संसार है जन्म-मरण का कारण है और शास्त्रानुसारी कर्म उन्नति व ईश्वरप्राप्ति का साधन है । तो पुरुषार्थ क्या करना है ? जैसा मन में आये ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए कि जैसा शास्त्र और गुरु कहते हैं वैसा करना चाहिए ? मान्यता अनुसारी कर्म कितने भी कर लो और उनका फल कितना भी दिख जाय लेकिन होगा वह संसारी ।

जैसे सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है – यह प्रमाणभूत बात है । आँखों को नहीं दिखता है फिर भी मानना पड़ेगा । आकाश में नीलिमा आँख को दिखती है लेकिन प्रमाणित है कि नीलिमा नहीं है तो मानना पड़ेगा नीलिमा नहीं है, हमारी आँख की कमजोरी से दिखती है । जो प्रमाणित बात है वह माननी पड़ती है । शास्त्र कहते हैं-

गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम् । यह प्रमाणित बात है । नानक जी कहते हैं- घर विच आनंद रह्या भरपूर, मनमुख स्वाद न पाया । अपने घर में ही ब्रह्म परमात्मा का आनंद है लेकिन जो मन के अनुसार ही करना चाहते हैं, वे उसको नहीं पा सकते । यह प्रमाणित बात है ।

हमारे घर में कोई कमी नहीं थी । हमारे परिचय में गुफा की, रहने की जगहों की कमी नहीं थी फिर भी हमको अच्छा  न लगे, ऐसा सात साल गुरु जी ने डीसा की झोंपड़पट्टी में हमको रख दिया तो हमने स्वीकार कर लिया । हमारे मन की नहीं चली । हमारी वासना के अनुसार अथवा हमारे कुटुम्बी हमको कहते और हम चले जाते तो हमारी वही दशा होती जैसी दूसरे कर्मलेढ़ियों की होती है । कर्मलेढ़ी उसे कहा जाता है जिसके हाथ में मक्खन का पिण्ड आया और सरक गया, अब लस्सी चाट रहा है । करा-कराया सब नष्ट कर रहा हो उसको बोलते हैं कर्मलेढ़ी । अगर हम कर्मलेढ़ी हो जाते तो डीसा और अमदावाद में कितना अंतर है ? और ह तो शादीशुदा थे, 7 साल में सातो बार घर जाकर आ सकते थे बिना आज्ञा लिये…. 70 बार जाते तो भी गुरु जी कहाँ रोकते ? लेकिन हमने देखा कि अपने मन में या कुटुम्बियों के मन में जो भी आयेगा वैसा करेंगे तो आखिर क्या मिलेगा ? वे जन्म-मरण से पार नहीं हुए हैं तो उनकी सलाह लेकर क्या हम जन्म-मरण से पार हो जायेंगे ?

शास्त्र कहता हैः

तन सुखाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान ।

तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान ।।

शास्त्रानुसारी कर्म किये बिना ईश्वर मिलता तो यूँ तो सबको मिल जाये ईश्वर ! आस्तिक तो बहुत लोग हैं, श्रद्धालु तो बहुत लोग हैं, फिर उनको अल्लाह, गॉड या ईश्वर क्यों नहीं मिलता ? मेरे गुरु जी के आश्रम में ऐसे कई लोग आये । जैसे आई.ए.एस. होने के लिए ढाई लाख युवक परीक्षा देते हैं । विभिन्न परीक्षाएँ देते-देते कई छँट जाते हैं, कई पास होते हैं, अन्त में उनमें से करीब 1000 आई.ए.एस. अफसरों की पोस्टिंग होती है ऐसा हमने सुना है । ऐसे ही गुरु के द्वार पर कई लोग आते हैं परंतु उनमें से जिनमें ईश्वरप्राप्ति की सच्ची लगन होती है वे गुरु के दैवी कार्यों में, शास्त्रानुसारी कर्मों में तत्परता से लगे रहते हैं और परम लक्ष्य को पा लेते हैं ।

अपने मन में जैसा आया वैसा निर्णय करके जीव संसार-सागर में बह जाता है । अतः वासना अनुसारी कर्म संसार में भटकाता है और प्रमाण अनुसारी कर्म मोक्ष का हेतु है । अच्छा तो वही लगेगा जो अपने अनुकूल मिल जाय । व्यक्ति अपने विचारों के अनुसार करने लग जाय तो गिरेगा, पतन होगा और गुरु के अनुरूप छलाँग मारी तो उत्थान होगा । अपनी मान्यता के अनुसार एक जन्म नहीं हजार जन्म जीयो, कर-करके गिर जाते हैं इसीलिए बोलते हैं शास्त्र के अनुसार कर्म करो ।

रामकृष्णदेव ने अपनी मान्यता के अनुसार काली माता को प्रकट कर लिया लेकिन काली माता ने कहाः ‘ब्रह्मज्ञानी गुरु की शरण जाओ ।’

नामदेव जी ने अपनी मान्यतानुसार भगवान विट्ठल को प्रकट कर लिया लेकिन विट्ठल ने कहाः ‘विसोबा खेचर के पास जाओ ।’ भगवान शिव को पार्वती जी ने अपनी मान्यता के अनुसार पति के रूप में पा लिया लेकिन शिवजी ने कहाः ‘गुरु वामदेव जी की शरण जाओ ।‘ यह क्या रहस्य है ? प्रमाणभूत है कि गुरुकृपा ही केवलं…. प्रमाणभूत बात माननी पड़ेगी !

मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय ।

हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाय । गुरु जी ! आपकी जो करूणा और ज्ञानप्रसाद है वही रह जाय । तत्परता से सेवा करते हैं तो आदमी की वासनाएँ नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है ।

प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो रहा है । संसार का कितना भी कुछ मिल जाय लेकिन परमात्म-पद को पाये बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जायेगा नहीं ।

बिनु रघुवीर पद जिय की जरनी न जाई ।

जो प्रमाणभूत बात है उसको पकड़ लेना चाहिए और जीवन सफल बनाना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 193

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‘यह कौनसा मेथड है ?’


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

विदेश के मनीषियों ने, बड़े-बड़े विद्वानों ने, अच्छे-खासे ‘इंटेलिजेंट (बुद्धिमान) कहलाने वाले लोगों ने यह स्वीकार किया कि भारत का तत्त्वज्ञान, फिलासफी, भारतीय दर्शन समझ में तो आ जाता है कि एक ही सत्ता है, अनेक अंतःकरणों में और अनेक वस्तु-व्यक्तियों में वह एक ही परमात्मा है । उसके अनेक-अनेक नाम और रूप हैं । यह समझ में तो आ जाता है, ‘बट’ (लेकिन)….

लेकिन हिन्दुस्तानियों के पास यह कौन सा मेथड (पद्धति, युक्ति) है कि जो सर्वव्यापक है, सर्वेश्वर है, परमेश्वर है, उसको नन्हा-मुन्ना बच्चा बना देते हैं, छछिया भर छाछ पर नचा देते हैं । ‘हाय सीते !…. हाय लखन !….’ करके रोने की लीला करवा देते हैं । उसे हँसता, खेलता, रोता, गाता, नाचता, गौ चराता बना देते हैं । वे परात्पर ब्रह्म को बच्चा कैसे बना देते हैं ? उसको सखा कैसे बना देते हैं ? जो परात्पर ब्रह्म है वह अर्जुन का रथ चला रहा है ! जो कंस के कारागार में चतुर्भुज रूप में प्रकट होता है और देवकी व वसुदेव बोलते हैं कि आपने तो बालक होकर आने का वचन दिया था महाराज ! इस रूप में हम आपको लाड़ प्यार कैसे करेंगे ? हमें पुत्र-स्नेह कैसे मिलेगा ? तब देखते-देखते वह ‘ऊँवाँ….ऊँवाँ…. ऊँवाँ….’ करता हुआ शिशु बन जाता है । हिन्दुस्तानियों के पास यह कौन सा मेथड है ? व्हाट इज़ इट ? विदेशी दार्शनिकों के दिल में यह गुत्थी बड़ी गहरी है । हिन्दुस्तानियों का तत्त्वज्ञान, शास्त्र, उपनिषद्, वेद-बेद…. ऑल इज़ ओ.के., ठीक है, हम समझ लेते हैं बुद्धिपूर्वक, लेकिन यह उनके पास क्या है कि परमात्मा उनके यहाँ प्रकट हो जाता है । वह उनके साथ नाचता है, उनके हाथ का खाता है, उनके साथ मिल-जुल के गायें चराता है । यह क्या मेथड है ?

बताओ हिन्दुस्तानी !

अयोध्या का राज्य करते-करते स्वधाम गमन का समय होता है तो भगवान राम जी जाने की लीला करते हैं और बोलते हैं- ‘जिसको चलना है चलो ।’ सब सरयू में  प्रवेश करते हैं । हजारों-लाखों अयोध्यावासी सरयू में प्रविष्ट होते हैं और फिर साकेत धाम में पहुँच जाते हैं । यह कौन सा मेथड होगा ? विदेशी चिंतक सिर खुजलाते रह जाते हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण कभी द्विभुजी हो जाते हैं, कभी चतुर्भुजी हो जाते हैं और अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन करा देते हैं । छछिया भर छाछ पर नचा लेते हैं । राक्षसों आदि का कल्याण भी कर देते हैं, पूतना का विषपान भी कर लेते हैं और उसको स्वधाम भेज देते हैं । तो वे परात्पर परब्रह्म सारी सृष्टि का आधार सत्-चित्-आनंद हैं और बालक हो जाते हैं । किसी का मान बढ़ाने के लिए विश्व का स्वामी रण छोड़ के भागने को भी तैयार हो जाता है । वह यज्ञ में साधु-संतों की आवभगत करके उनके चरण धोता है, उनकी जूठी पत्तलें उठाता है । यह कौन सी शक्ति है ? हिन्दुस्तानियों के पास यह कौनसा मेथड है कि भगवान को साकार बना देते हैं ? अपने साथ बातचीत करने वाला, अपने को छूने वाला, बोलने वाला, खाने वाला, लेने वाला, अरे ! अपना चेला भी बना लेते हैं ।

सांदीपनि कोई तेज-तर्रार विद्यार्थी नहीं थे लेकिन ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः… एकटक  देखते हुए गुरु जी को सुनते और आध्यात्मिक दृष्टि से गुरुतत्त्व को  देखते थे । गुरु जी संसार से जाते-जाते बोलेः “बेटा ! ऐहिक विद्या में तो तू ठीक-ठाक रहा लेकिन परम विद्या में तेरी रूचि रही । मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि जो निर्गुण, निराकार, सच्चिदानंद प्रेमाभक्ति और ‘गीता’ के ज्ञान का विस्तार करेगा वह भगवान श्रीकृष्ण तेरा चेला बनेगा ।”

तो अपने चेले को भगवान का गुरु बना दिया अर्थात् भगवान के दादागुरु बन जाते हैं ! यह कौन सा मेथड है ?

‘पार्लमेंट ऑफ वर्ल्ड रीलिजियन्स’ में यह सवाल मुझसे पूछा गया था “इंडिया में भगवान के अवतार क्यों होते हैं ?”

मैंने पूछाः “जहाँ बारिश होती है वहाँ वृक्ष क्यों होते हैं और जहाँ वृक्ष होते हैं वहाँ बारिश क्यों होती है ?”

बोलेः “यह कुदरत का नियम है ।”

मैंने कहाः “ऐसे ही भगवान शिवजी का कैलास जल से प्रकट हुआ और फिर शिवजी ने मत्स्येन्द्रनाथजी और अन्य संतों को आत्मप्रसाद का प्रसार करने के लिए नियुक्त किया । तो जहाँ भक्त होते हैं वहाँ भगवान आ जाते हैं । जहाँ हरियाली होती है वहाँ बरसात होती है और जहाँ बरसात होती है वहाँ हरियाली होती है ।”

यह मेथड वेथड कुछ नहीं है । यहाँ की भूमि पर भगवद्अवतार हुए शिवजी की परम्परा से, भगवान नारायण और ऋषियों की परम्परा से । यहाँ नश्वर शरीर की आसक्ति कम करके भाव और प्रेम विकसित हो ऐसी उपासना और साधना पद्धति है । तो जहाँ भाव और प्रेम होता है वहाँ महाराज ! पशु भी वश में हो जाते हैं, पक्षी भी वश हो जाते हैं, मनुष्य भी वश हो जाते हैं और पत्थर भी पिघल जाते हैं तथा पत्थर से देव भी प्रकट हो जाते हैं । भक्तों की भावना और प्रेम से विश्वनियंता भी नन्हा-मुन्ना बालक होकर लीला करने को तैयार हो जाता है । मेथड-बेथड कुछ नहीं है ।

हिन्दू धर्म की विशेषता है कि उसकी मंत्रशक्ति, उपासना की पद्धति अपने में विशेषताएँ सँजोये हुए है । कई प्रकार के योग-लययोग, कुंडलिनी योग, नादानुसंधान योग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, टंक विद्या, आत्मविद्या, कर्मविद्या, भगवद्विद्या… अब कहाँ तक विस्तार करें ? इस हिन्दू धर्म की महिमा अपरंपार है ! हिन्दू धर्म की पद्धति से साधन-भजन करे तो मनुष्य में छुपी अलौकिक शक्तियाँ विकसित होती है । अभी तो केवल लाखवाँ हिस्सा विकसित हुआ है । आइन्स्टाईन ने भारतीय पद्धति अनुसार ही इन्द्रिय-संयम और ध्यानयोग का आश्रय लिया था ।

भगवान व्यापक है । जब चाहे, जहाँ चाहे, जैसे चाहे अपने प्रेमी भक्त के, भावुक भक्त के आगे अपनी लीला करने के लिए प्रेरणा देने के लिए प्रकट हो सकता है । भगवान के अवतार अर्थात् केवल कृष्ण अवतार हुआ, राम अवतार हुआ ऐसा मत समझो, भगवान के नित्य, नैमित्तक, प्रेरणा, आवेश और प्रवेश अवतार होते रहते हैं । जैसे जब दुःशासन द्रौपदी का वस्त्र खींचने लगा तब द्रौपदी खूब विह्वल हो गयी और उसने भगवान को पुकाराः ‘द्वारकाधीश !’ ‘द्वारिका’ बोली तक तो भगवान द्वारिका में थे और ‘धीश’ बोली तो उनका साड़ी में प्रवेश अवतार हुआ । हाथियों का बल रखने वाला दुःशासन साड़ी खींचते-खींचते थक गया । बोलाः ‘नारी है कि साड़ी है !’ नहीं, तेरा बाप प्रवेश अवतार है ! ऐसे ही प्रह्लाद को सताया गया और भगवान नरसिंह का आवेश अवतार हुआ, मार्कण्डेयजी की रक्षा के लिए भगवान शिव का आवेश अवतार हुआ । बढ़िया काम करते हैं तो अंतर्यामी प्रभु आपको प्रेरणा देते हैं कि यह उचित है, यह अनुचित है । यह करो, यह न करो । यह प्रेरणा अवतार है ।

भारतीय संस्कृति में गीता, गाय, तुलसी, पीपल, भगवन्नाम और बीजमंत्र संयुक्त ऋषि-मुनियों की ऐसी-ऐसी साधना की सीख है कि वह भले वहाँ के विद्वानों की समझ में नहीं आती, लेकिन शबरी भीलन के जीवन में स्वाभाविक राम की प्यास है तो वह राम जी को जूठे बेर खिलाने में सफल हो जाती है, अनुसूया जी पातिव्रत्य के प्रभाव से ब्रह्मा-विष्णु-महेश को दूधमुँहे बालक बना देती है । मीराबाई कोई मेथड-बेथड नहीं जानती लेकिन मीरा की प्रेमाभक्ति ठाकुरजी को प्रकट कर देती है । ‘हूँ तो तुर्कानी लेकिन हिन्द्वानी कहलाऊँगी…’ कहने वाली ताज श्रीकृष्ण को प्रकट कर लेती है । रहीम खानखाना भक्ति में ऐसे तल्लीन होते हैं कि श्रीकृष्ण बालक रूप में आते हैं और फिर प्रकट होकर मुरलीधर रूप में भी दर्शन देते हैं । ऐसे ही रविदास जी कोई नया मेथड नहीं जानते थे लेकिन जिसमें वे चमड़ा भिगोते थे, उनकी उस कठौती का पानी भी कितना दिव्य प्रभाव रखता था !

एक बार गोरखनाथ जी उनके पास आये और बोलेः “अलख निरंजन ! प्यास बुझानी है, फकीर को पानी दे दो ।”

रविदास जी ने उस कठौती से पानी दे दिया । गोरखनाथ जी हिचकिचाये कि यह चमड़े वाला पानी अशुद्ध तो है लेकिन रविदास जी जैसे संत का दिया हुआ है । न गिराया न पीया, आखिर संत कबीर जी को आकर कह दिया । कबीर जी की बेटी कमाली बैठी थी । वह बोलीः “महाराज ! मुझे दे दीजिये ।” कमाली वह पानी पी गयी और उसकी दिव्य शक्ति जागृत हो गयी । उसका विवाह मुलतान में हो गया और वह ससुराल चली गयी । उसके जीवन में चमत्कार होने लगे तो गोरखनाथ जी नतमस्तक हो गये । फिर आये रविदास जी के पास तो रविदास जी बोलेः “यह पानी तो मुलतान गया ।”

तात्पर्य, कोई मेथड-बेथड नहीं है । आप प्रेम किये बिना नहीं रह सकते लेकिन जब नश्वर चीजों को प्रेम करते हैं तो मोह हो जाता है और शाश्वत परमात्मा को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम परमात्मा हो जाता है ।

जहाँ अपनत्व होता है वहाँ प्रेम होता है । कुत्ता कई जूते-चप्पलों पर पिचकारी लगाता है, कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अपने जूते चप्पल पर लगाने लगे तो उसे भगा देते हैं क्योंकि जूता अपना है । अपना है तो प्यारा हो गया । ऐसे ही भारतवासी बोलेते हैं- ‘भगवान मेरे हैं, भगवान गोविंद हैं, भगवान गोपाल हैं, भगवान अच्युत हैं, भगवान दामोदर है, माता की गहराई में मेरे प्रभु, पिता की गहराई में प्रभु…. त्वमेव माता च पिता त्वमेव….’ इस प्रकार की प्रेमाभक्ति और दृढ़ भावना ही निराकार ब्रह्म को साकार, नाचने-खेलने और हँसने-रोने वाला बना देती । अहं भक्त पराधीन… भक्तिभाव से भगवान भक्त के अधीन हो जाता है । जैसे बच्चे के प्रेम से माँ-बाप, दादा-दादी, पड़ोसी – सभी वश हो जाते हैं ।

प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय ।

सजा चहो प्रजा चहो, अहं दिये ले जाय ।।

भगवान के आगे दण्डवत् प्रणाम करते हैं अहं मिटाने के लिए ।

नहीं तो भगवान को क्या जरूरत है कि हम लम्बे पड़ें ?  ज्यों-ज्यों अहं गलता है और भगवान की महत्ता व अपने शरीर की नश्वरता समझ में आती है तथा भगवान की करूणा-कृपा स्वीकार होने लगती है, त्यों-त्यों भगवान का सद्भाव, भगवान का प्रेम, भगवान का आश्रय प्रकट होने लगता है ।

चित्त जितना शांत रहता है और भगवान को अपना मानता है, उतनी ही चित्त में प्रेम, भाव और भगवत्सत्ता की सघनता होती है । उस प्रेम और भाव के बल से परात्पर परब्रह्म लीला करने को अवतरित हो जाता है, दूसरा कोई मेथड बेथड नहीं है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2009, पृष्ठ संख्या 9-11, 14 अंक 193

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