Monthly Archives: February 2009

शरीर का तीसरा उपस्तंभः ब्रह्मचर्य


ब्रह्मचर्य शरीर का तीसरा उपस्तंभ है । (पहला उपस्तंभ आहार व दूसरा निद्रा है, जिनका वर्णन पिछले अंकों में किया गया है । ) शरीर, मन, बुद्धि व इन्द्रियो को आहार से पुष्टि, निद्रा, मन, बुद्धि व इऩ्द्रियों को आहार से पुष्टि, निद्रा से विश्रांति व ब्रह्मचर्य से बल की प्राप्ति होती है ।

ब्रह्मचर्य परं बलम् ।

ब्रह्मचर्य का अर्थः

कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ।

सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।।

‘सर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ।’ (याज्ञवल्क्य संहिता)

ब्रह्मचर्य से शरीर को धारण करने वाली सप्तम धातु शुक्र की रक्षा करती है । शुक्र सम्पन्न व्यक्ति स्वस्थ, बलवान, बुद्धिमान व दीर्घायुषी होते हैं । वे कुशाग्र व निर्मल बुद्धि, तीव्र स्मरणशक्ति, दृढ़ निश्चय, धैर्य, समझ व सद्विचारों से सम्पन्न तथा आनंदवान होते हैं । वृद्धावस्था तक उनकी सभी इन्द्रियाँ, दाँत, केश व दृष्टि सुदृढ़ रहती है । रोग सहसा उनके पास नहीं आते । क्वचित् आ भी जायें तो अल्प उपचारों से शीघ्र ही ठीक हो जाते हैं ।

भगवान धन्वंतरि ने ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन करते हुए कहा हैः

मृत्युव्याधिजरानाशि पीयूषं परमौषधम् ।

सौख्यमूलं ब्रह्मचर्यं सत्यमेव वदाम्यहम् ।।

‘अकाल मृत्यु, अकाल वृद्धत्व, दुःख, रोग आदि का नाश करने के सभी उपायों में ब्रह्मचर्य का पालन सर्वश्रेष्ठ उपाय है । यह अमृत के समान सभी सुखों का मूल है यह मैं सत्य कहता हूँ ।’

जैसे दही में समाविष्ट मक्खन का अंश मंथन प्रक्रिया से दही से अलग हो जाता है, वैसे ही शरीर के प्रत्येक कण में समाहित सप्त धातुओं का सारस्वरूप परमोत्कृष्ट ओज मैथुन प्रक्रिया से शरीर से अलग हो जाता है । ओजक्षय से व्यक्ति असार, दुर्बल, रोगग्रस्त, दुःखी, भयभीत, क्रोधी व चिंतित होता है ।

शुक्रक्षय के लक्षण (चरक संहिता) शुक्र के क्षय होने पर व्यक्ति में दुर्बलता, मुख का सूखना, शरीर में पीलापन, शरीर व इन्द्रियों में शिथिलता (अकार्यक्षमता), अल्प श्रम से थकावट व नपुंसकता ये लक्षण उत्पन्न होते हैं ।

अति मैथुन से होने वाली व्याधियाँ- ज्वर (बुखार), श्वास, खाँसी, क्षयरोग, पाण्डू, दुर्बलता, उदरशूल व आक्षेपक (Convulsions- मस्तिष्क के असंतुलन से आनेवाली खेंच) आदि ।

ब्रह्मचर्य रक्षा के उपायः

ब्रह्मचर्य-पालन का दृढ़ शुभसंकल्प, पवित्र, सादा रहन-सहन, सात्त्विक, ताजा अल्पाहार, शुद्ध वायु-सेवन, सूर्यस्नान, व्रत-उपवास, योगासन, प्राणायाम, ॐकार का दीर्घ उच्चारण, ‘ॐ अर्यामायै नमः’ मंत्र का पावन जप, शास्त्राध्ययन, सतत श्रेष्ठ कार्यों में रत रहना, सयंमी व सदाचारी व्यक्तियों का संग, रात को जल्दी सोकर ब्राह्ममुहूर्त में उठना, प्रातः शीतल जल से स्नान, प्रातः-सांय शीतल जल से जननेन्द्रिय-स्नान, कौपीन धारण, निर्व्यसनता, कुदृश्य-कुश्रवण-कुसंगति का त्याग, पुरुषों के लिए परस्त्री के प्रति मातृभाव, स्त्रियों के लिए परपुरुष के प्रति पितृ या भ्रातृ भाव – इन उपायों से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है । स्त्रियों के लिए परपुरुष के साथ एकांत में बैठना, गुप्त वार्तालाप करना, स्वच्छंदता से घूमना, भड़कीले वस्त्र पहनना, कामोद्दीपक श्रृंगार करके घूमना – ये ब्रह्मचर्य पालन में बाधक हैं । जितना धर्ममय, परोपकार-परायण व साधनामय जीवन, उतनी ही देहासक्ति क्षीण होने से ब्रह्मचर्य का पालन सहज-स्वाभाविक रूप से हो जाता है । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य आत्मानुभूति में परम आवश्यक है ।

गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्यः

श्री मनु महाराज ने गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य की व्याख्या इस प्रकार की हैः

ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः ।

चतुर्भिरितरैः सार्द्धं अहोभिः सद्विगर्हिते ।।

अपनी धर्मपत्नी के साथ केवल ऋतुकाल में समागम करना, इसे गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्य कहते हैं ।

रजोदर्शन के प्रथम दिन से सोलहवें दिन तक ऋतुकाल माना जाता है । इसमें मासिक धर्म की चार रात्रियाँ तथा ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि निषिद्ध है । शेष दस रात्रियों से दो सुयोग्य रात्रियों में स्वस्त्री-गमन करने वाला व्यक्ति गृहस्थ ब्रह्मचारी है ।

श्री सुश्रुताचार्य जी ने इस गार्हस्थ्य ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए कहा हैः

आयुष्मन्तो मन्दजरा वपुर्वर्णबलान्विताः ।

स्थिरोपचितमासाश्च भवन्ति स्त्रीषु संयता  ।।

‘स्त्रीप्रसंग में संयमी पुरुष आयुष्मान व देर से वृद्ध होने वाले होते हैं । उनका शरीर शोभायमान, वर्ण और बल से युक्त तथा स्थिर व मजबूत मांसपेशियों वाला होता है ।’

(सुश्रुत संहिताः चिकित्सास्थानम् 24.112)

इस प्रकार आहार, निद्रा व ब्रह्मचर्य का युक्तिपूर्वक सेवन व्यक्ति को स्वस्थ, सुखी व सम्मानित जीवन की प्राप्ति में सहायक होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 194

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

चल-अचल


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

संत कबीर जी ने सार बात कहीः

चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय ।

दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।

चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय ।

लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय ।।

चक्की में गेहूँ डालो, बाजरा डालो तो पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है, अबदल को छुए रहता है ।

यह बताने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है । जैसे बीच में कील होती है उसके आधार बर चक्की घूमती है, साईकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है । एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है । पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है । न घूमने वाले पर ही घूमने वाला घूमता है । ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे – अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है – कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।

जो अचल है वह असलियत है और जो चल है वह माया है । कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है । जो आया है वह सब चल है ।

अचल के बल से चल दिखता है । अचल सदा एकरस रहता है, चल चलता रहता है । तो दो तत्त्व है – प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है । अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है । जो दिखता है वह चल है, अचल दिखता नहीं । जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से । मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से ।

अचल से ही सब चल दिखेगा, सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते । अचल को बोलते हैं- 1 ओंकार सतिनामु करता पुरखु…. कर्ता-धर्ता वही है अचल । वह अजूनी सैभं…. अयोनिज (अजन्मा) और स्वयंभू है । चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता । तो मिले कैसे ? बोलेः गुर प्रसादि । गुरु कृपा से मिलता है । चल के आदि में जो था, चल के समय  में भी है, चल मर जाय फिर भी जो रहता है वह सचु जुगादि.… युगों से अचल है ।

भगवान नारायण देवशयनी एकादशी से लेर देवउठी एकादशी तक अचल परमात्मा में शांत हो जाये हैं । साधु-संत भी चतुर्मास में अचल में आने के लिए कुछ समय ध्यानस्थ होते हैं, एकांत में बिताते हैं । भगवान श्री कृष्ण 13 अचल में रहे ।

आप हरि ओ….म्… इस प्रकार लम्बी उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है । थोड़े ही समय में लगता कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये – यह ध्यान का तरीका है ।

ज्ञान का तरीका है कि एक चल है, दूसरा अचल है । अचल आत्मा है और चल शरीर है, संसार है, मन है, बुद्धि है । चल कितना ही बदल गया, देखा अचल ने । सुख-दुःख को जानने वाला भी अचल है । अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ’ ? यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा परमात्मा कैसे मिलें ?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा । क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वह अचल परमात्मा है । जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है । बोलेः “बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?”

बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है । ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है । घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही ।

जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा । नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी होता ही रहता है । ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ – ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 24, 15 अंक 194

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

तेरी मर्जी पूरण हो


पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से

आत्मा अचल है, परमात्मा अचल है । तुम अचल से मिलो । तुम तिनके की नाईं अपने को कितना बहा रहे हो – जरा सा मनचाहा नहीं हुआ तो अशांति…. जरा विकार को पोषण नहीं मिला तो अशांति…. जरा सा अहं को पोषण नहीं मिला तो अशांति, दुःख…. जरा सा किसी नौकर ने सलाम नहीं मारा तो अशांति… जरा किसी ने तुम्हारी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ नहीं भरी तो अशांति…. छोटी-छोटी बात में तुम कितने छोटे हो जाते हो !

तुम जैसा चिंतन करते हो वैसा तुम्हारा चित्त हो जाता है ।  इसलिए कृपा करके तुम भगवद्चिंतन करो । सुबह उठो और स्मरण करो कि ‘मेरे हृदय में भगवान है । बाहर घूमूँगा लेकिन उसी की सत्ता से । बार-बार उसी में आऊँगा ।’ श्वासोच्छवास में अजपा गायत्री को जपो । नामदान के वक्त जो युक्तियाँ बतायी थीं, उनका अभ्यास करो । व्यवहार के हरेक घंटे में 2-5 मिनट आत्मविश्रांति का अभ्यास करो ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (8.8) में कहा हैः

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।

‘हे पार्थ ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यासरूप योग से युक्त, दूसरी और न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।’

अभ्यास को योग में बदल दो । तुम्हारा चित्त अन्यगामी मत होने दो, चित्तवृत्ति अन्य-अन्य व्यक्तियों में जायेगी, अन्य-अन्य व्यवहार में जायेगी लेकिन अन्य-अन्य की गहराई में जो भगवान छुपा है वह अनन्य है, बार-बार उसी का स्मरण करो ।

टयूबलाइट अलग है, पंखा अलग है, मोटर पंप अलग है, फ्रिज अलग है लेकिन है तो सबसे बिजली की सत्ता, ऐसे ही सबमें मेरा प्रभु है । मित्र के रूप में भी तू है, पिता के रूप में भी तू है, माता के रूप में भी तू है । बोलेः ‘पिता के रूप में भी भगवान है तो वह भगवान बोलता है सत्संग में मत जाओ तो फिर हम सत्संग में जायें कि नहीं जायें ? उसकी मर्जी पूर्ण करें कि नहीं करें ?’

एक महिला ने रामसुखदासजी महाराज से पूछा कि ‘हमारे ससुर में भी तो ब्रह्म है, भगवान है । ससुर जी कहते हैं कि कथा में मत जाओ तो हम कथा में आयें कि नहीं आयें ? अगर कथा में नहीं आते तो सत्संग नहीं मिलता, मन पवित्र नहीं रहता, संसार में जाता है । अगर कथा में आते हैं तो ससुररूपी भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होता है ।

ससुररूपी भगवान नहीं रोकता है, ससुररूपी मोह रोकता है, ससुररूपी अहंकार रोकता है । पितारूपी भगवान नहीं रोकता है, पितारूपी अहंकार रोकता है । पिरता के रूप में जो अहं है वह ‘ना’ बोलता है । ईश्वर सत्संग में जाने को ‘ना’ कभी नहीं बोलता । तो सास की, ससुर की, माँ की, बाप की इस प्रकार की आज्ञा कैसी है ? मोहयुक्त है ।

तुमने सुना है कि सबमें भगवान है और भगवान की मर्जी पूर्ण हो तो पत्नी कहेगीः ‘चलो पिक्चर में, मेरे में भी तो भगवान है, मेरी बात मान लो ।’ शराबी कहेगाः ‘मेरे में भी भगवान है, पी लो प्याली ।’ जुआरी कहेगाः ‘मेरे में भी भगवान है, जरा खेल लो मेरे साथ चौसर, ताश ।’

नहीं ! सबमें भगवान है अर्थात् मेरा (अंतर्यामी) भगवान है । हजारों जुआरी खेल रहे हैं, खेलने दो उनको । चलो, हम उसी अंतर्यामी के साथ खेलते हैं । ऐसा करके हमको अंतर्मुख होना है । निगुरो लोगों की हाँ में हाँ करके अपनी साधना नहीं बिगाड़नी है । मोह में आये हुए कुटुम्बियों की हाँ में हाँ करके अपने को खपा नहीं देना है । उस ईश्वर की हाँ में हाँ का अर्थ है – आप जो नहीं चाहते वह हो रहा है …. समझो आप अपमान नहीं चाहते और हो रहा है तो उसकी हाँ में हाँ करो तो अपमान की समस्या खत्म हो जायेगी । आप चाहते हैं कि ऐसा खाने को मिले, ऐसा रहने को मिले और वह नहीं हो रहा है तो चलो, जैसी उसकी मर्जी ! – ऐसा करके आत्मसंतोष कर आत्मसुख में जाना है । ऐसा नहीं कि जुआरियों के साथ चल दिये, गँजेड़ियों के साथ चल दिये, फिल्म में चल दिये ।

विकारों की मर्जी पूर्ण न हो, ईश्वर की मर्जी पूर्ण हो, बस । अहंकार की मर्जी पूरी न हो, वासना वाले दोस्तों की मर्जी पूरी न हो लेकिन उनकी गहराई में जो मेरा परमात्मा है उसकी मर्जी पूर्ण हो । बस, इतना ही तो करना है ! दिखता इतना है लेकिन इसमें सब कुछ आ जाता है । श्वासोच्छवास की साधना शुरु करो, उससे अंतरात्मा का सुख शुरु हो जायेगा । आत्मविश्रांति…. ॐ आनंद…

कई लोग ध्यान करते हैं न, तो अपेक्षा रखते हैं कि ध्यान ऐसा लगना  चाहिए… अरे, ऐसा लगना चाहिए, वैसा दिखना चाहिए…. – इससे तो फिर  नहीं होगा । ध्यान में बैठो तो तेरी मर्जी पूरण हो प्रभु तेरी जय हो ।….’ शुरु हो गया बस, चिंतन हो गया, आराम हो गया ! निःसंकल्प होते जाओ…. ‘श्री नारायण स्तुति (आश्रम से प्रकाशित एक पुस्तक) पढ़ते जाओ, निःसंकल्प होते जाओ… श्री नारायण स्तुति पढ़ी और गोता मारा… इससे जल्दी भगवत्सुख, दिव्य सुख शुरु हो जायेगा ।

शरीर से जो कुछ कर्म करते हो उस अंतर्यामी की प्रसन्नता के लिए करो । विकार को पोसने के लिए नहीं, अहंकार को पोसने के लिए नहीं, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए काम करो तो वह तुम्हारी सच्ची सेवा हो जायेगी । ‘फलाना भाई, फलाना भाई’ – ऐसा करके लोग तुम्हारे से काम लेना चाहते हैं तो तुम अंदर सावधान रहो कि इस शरीर का नाम करने के लिए हम सेवा कर रहे हैं या शरीर में छुपे हुए परमात्मा अथवा गुरु को साक्षी रखकर हम सेवा कर रहे हैं ? केवल सावधानी बरतो तो तुम्हारी सेवा में चार चाँद लग जायेंगे !

जो वाहवाही के लिए सेवा करते हैं उनका स्वभाव उद्धत हो जाता है, गंदा हो जाता है । वे कुत्तों की नाईं आपस में लड़त-झगड़ते रहते हैं लेकिन भगवान की प्रसन्नता के लिए, गुरु की प्रसन्नता के लिए जो सेवा करते हैं उनका स्वभाव बड़ा मधुर हो जाता है ।

शास्त्र, ईश्वर तथा गुरु को स्वीकृति दे दो और अहं को अस्वीकृति दे दो, कल्याण हो जायेगा । तुम स्वीकृति दे दोः ‘वाह ! तेरी मर्जी ! तेरी मर्जी पूरण हो !’ भगवान की मर्जी अगर पूर्ण करने लग गये तो भगवान पूर्ण हैं, पूर्ण तो पूर्ण ही चाहेगा । ऐसे ही भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, आनंदस्वरूप हैं, मुक्तस्वरूप हैं तो उनकी मर्जी पूर्ण होने दो, तुम्हारे बाप का जाता क्या है ! हम स्वीकृति नहीं देते हैं, अपनी मर्जी अड़ाते हैं तभी परेशान होते हैं । तेरी मर्जी पूरण हो ! अपना नया कोई संकल्प न करो, अपनी नयी कोई पकड़ न रखो, ईश्वर की मर्जी पूर्ण होगी तो ईश्वर तुमको ईश्वर बना देगा, ब्रह्म तुमको ब्रह्म बना देगा क्योंकि तुम उसके सनातन अंश हो ।

बेवकूफी यह होती है कि हम ईश्वर को भी बोलते हैं कि मेरी मर्जी से करः ‘हे भगवान ! बेटा हो जाय । इतने साल के अंदर हो जाय और ऐसा हो जाय….।’ मानो उसको कोई अक्ल ही नहीं है । तू भगवान के पास गया कि नौकर के पास गया रे ! यह असावधानी है । ‘हे भगवान ! जरा ऐसा हो जाय, मौसम अच्छा हो जाय ।’ अरे ! वह जो करता है ठीक है, उसकी मौज है ! ‘मौसम ऐसा है वैसा है…. तू ऐसा कर दे, वैसा कर दे….।’ नहीं, तेरी मर्जी पूर्ण हो !’ तो मौसम आपको परेशान नहीं करेगा । आप स्वीकृति दे दो, बस । कोई दो गालियाँ देता है तो ‘आहा ! गालियाँ दिलाकर अपमान कराके तू मेरा अहंकार मिटाता है । ॐॐ… तेरी मर्जी पूरण हो !’ – ऐसा मन ही मन कहो तुम्हारी साधना हो जायेगी यार ! ‘बहुत गर्मी हो रही है… हाय रे ! गर्मी हो रही है….’ ऐसा करोगे तो गर्मी सतायेगी । जिसको बारिश का मजा लेना है उसको गर्मी भी सहनी पड़ती है । बारिश के लिए गर्मी भी जरूरी है । सर्दी पचाने के लिए भी गर्मी जरूरी है और गर्मी पचाने के लिए सर्दी जरूरी है । मान पचाने के लिए अपमान जरूरी है । जीवन को पचाने के लिए मृत्यु जरूरी है । वाह ! जो जरूरी है सब तूने किया । तेरी मर्जी पूरण हो ! बस इतना ही तो मंत्र है ! और कोई बड़ा नहीं है और गुप्त भी नहीं है बाबा ! आनंद ही आनंद है !

हर रोज खुशी, हम दम खुशी, हर हाल खुशी ।

जब आशिक मस्त प्रभु का हुआ, तो फिर क्या दिलगीरी बाबा ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 194

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ