उलझो मत, मुक्त बनो

उलझो मत, मुक्त बनो


एक होता है पाशवी जीवन, आँखों ने देखी रोशनी, सुंदर लगी, परिणाम का विचार किये बिना पतंगे उड़े और दीपक में जल मरे अथवा ट्रैफिक की लाइट में कुचले गये । इसको बोलते हैं जीव-जंतु का तुच्छ जीवन । ऐसे ही आँखों ने देखा कि हरी-हरी घास है, अब डंडा लगेगा – नहीं लगेगा इसका विचार किये बिना लगा दिया मुँह और पड़ा डंडा । देखा सुंदर या सुंदरी और लग गये पीछे । आँखों ने दिखाया आकर्षण, नाक ने सुगंध की तरफ, जीभ ने हलवाई की दुकान की तरफ अथवा चटपटी चाट की तरफ आकर्षित किया तो ऐन्द्रिक आकर्षण के पीछे फिसल जाना, इसको बोलते  हैं पाशवी जीवन, तुच्छ जीवन ।

इससे कुछ अलग होता है मानवीय जीवन । यह मेरी पत्नी है लेकिन ऋतुकाल के इतने दिन के बाद ही संसार-व्यवहार होगा, पूर्णिमा अमावस्या अथवा पर्व के दिनों में यह नहीं होगा – यह है मानवीय जीवन । लेकिन इतने में ही घूमकर अगर खत्म हुआ तो मनुष्य मरकर या तो पुण्यकर्म से ऊँचे लोक में जायेगा फिर गिरेगा अथवा पापकर्म हुआ तो नरक में जायेगा फिर जीव-जंतुओं की योनियों में आयेगा । मानवीय जीवन पाशवी जीवन से तो ठीक है लेकिन मनुष्यता को महकाये बिना का जीवन है । इसको बोलते हैं लाचार जीवन, पराधीन जीवन ।

पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ।

तीसरा आता है सात्त्विक जीवन । भगवान में इष्ट में प्रीति, रूचि, पर्व का फायदा उठाना । जैसे – भगवान नारायण दान से, यज्ञ से, धूप-दीप से, पूजा-पाठ से संतुष्ट होते हैं और जो पुण्य होता है, उससे भी ज्यादा पुण्य माघ, वैशाख और कार्तिक मासों में सुबह सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से होता है ताकि आप सर्दी पचा सको, गर्मी भी पचा सको और आपके जीवन में संकल्पबल बढ़े, बुद्धिबल बढ़े ।

सात्त्विक जीवन से भी ऊँचा होता है योग, समाधि और धर्म के अनुकूल जीवन जीकर समाधि से शक्तियाँ पाना, ऋद्धि-सिद्धियाँ पाना, लोक-लोकांतर की बात जानना लेकिन यह भी आखिरी नहीं है । ये सब माया के राज्य में दबे हुए हैं । योगी की समाधि लगेगी तभी वह सुखी होगा और समाधि टूटी तो फिर गड़बड़ी । भक्त की भक्ति हुई तो सुखी और भक्ति से फिसला तो दुःखी । मंदिर, मस्जिद, पूजास्थल में गये लेकिन फिर वही के वही । वही दुःख, चिंता, भय, राग-द्वेष ।

तो भोगी इसलिए रोता है कि रोज़ बढ़िया चीज़ नहीं मिलती, इस जॉब में यह बढ़िया नहीं होता… और भक्त इसलिए रोता है कि प्रेयर सब फलतीं नहीं लेकिन पूर्ण जीवन वाले महापुरुष कहते हैं कि पदोन्नति (प्रमोशन) और सुविधाएँ सदा नहीं रहतीं, असुविधाएँ सदा नहीं रहतीं, भोग भी सदा नहीं रहता, त्याग भी सदा नहीं रहता फिर भी इनको जानने वाला अंतर्यामी परमात्मा सदा रहता है ।

हम हैं अपने-आप हर परिस्थिति के बाप !

यह होता है पूर्ण आत्मा-परमात्मा को पहचाने हुए महापुरुषों का जीवन ! ऐसे लोग जो शराब और मांस से दूर सात्त्विक जीवन जीते हैं, ऐसे पुरुष आत्म-परमात्म पद में स्थिति करते हैं, जागते हैं । उनकी निगाहों से आध्यात्मिक तरंगे निकलती हैं, परमात्मा को छूकर आने वाली उनकी वाणी से सत्संग निकलता है और उनके अस्तित्व से माहौल में विलक्षणता छा जाती है…. वहाँ वाणी नहीं जाती है । ऐसे महापुरुष को देखकर साधक कहता हैः

गुरु जी ! तुम तसल्ली न दो, सिर्फ बैठे ही रहो ।

महफिल का रंग बदल जायेगा,

गिरता हुआ दिल भी सँभल जायेगा ।।

काम में, क्रोध में, लोभ में, पशुता में, मानवीयता में, देवत्व में – इनमें जो दिल गिर रहा है, वह ऐसे ब्रह्मज्ञानी गुरुओं को देखकर सँभलने लगता है । ऐसे सत्पुरुषों के दर्शन के बारे में संत कबीर जी ने कहा हैः

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

जिसका अंत न हो उसको बोलते हैं अनंत । जिस फल से, जिस पद से आप कभी च्युत न हों वह आत्मपद है । उसको पाने वाली बुद्धि बनाना यह सत्संग का काम है । योग-समाधि करके बैठे रहोगे तो ‘ईशावास्य उपनिषद्’ टोकती हैः

अन्धन्तमः प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते । (मंत्रः 9)

जो कारणब्रह्म की उपासना में उलझे रहते हैं वे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं, प्रकृति के अंधकारमय कूप में गिरते हैं ।

उपनिषद कहती है कि जो कार्यब्रह्म अर्थात् शरीर व संसार की उपासना में उलझा है, भोगों में रम गया है वह तो अंधकार में प्रवेश करता ही है लेकिन जो अद्वैत आत्मसत्ता को जानने का लक्ष्य न रखकर केवल कारणब्रह्म अर्थात् निराकार की उपासना में, योग समाधि में ही लगा रहता है वह भी घोर अंधकार में प्रवेश करता है । क्योंकि वह योगाभ्यास उस उपासक को अधिक-से-अधिक स्वर्गलोक या ब्रह्मलोक की प्राप्ति करा देगा परंतु वहाँ के भोगों में रमकर वह जन्म-मरण के चक्र में उलझा ही रहेगा ।

एक भोग के कूप में गिर रहा है तो दूसरा योग के कूप में बैठा है, तीसरा पशुता की नाली में बह रहा है लेकिन ब्रह्मज्ञानी इन सबसे निराला है । वह कहता है – न पशुता की नाली में बहो, न भोग की दलदल में फँसो, न योग के एक कोने में बैठो । योग के समय योग, भोग के समय भोग, व्यवहार के समय व्यवहार करो । संत कबीर जी ने कहाः

ऊठत बैठत वही उटाने । कहत कबीर हम उसी ठिकाने ।।

उठते-बैठते, खाते-पीते, लेते-देते जो सदा एकरस है वह है हमारा अपना-आप…. हर परिस्थिति का बाप… ऐसा  ब्रह्मज्ञान पा ले । काहे को बेटियों की चिंता करके सिकुड़ता है ? बेटे की चिंता करके, जॉब की चिंता करके जॉबर बनने की क्या कोशिश करता है ? जो बना है वह बिगड़ेगा । जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उस अपने असली स्वरूप को जरा-सा मान ले, जरा सा मान ले। तेरे बाप का जाता क्या है !

भागती फिरती थी दुनिया, जबकि तलब करते थे हम ।

अब जबकि ठुकरा दी, तो बेकरार आने को है ।।

आप अपने ईश्वरत्व में आ जाइये । प्रकृति की चीज़ों के ले आप जॉबर बनकर, नौकर बनकर क्या जिंदगी बर्बाद कर रहे हो ! नौकरी करो, जॉब करो लेकिन जिससे किया जाता है और जिसका फल अनंत होता है उस ज्ञानस्वभाव में आइये, उस ध्यानस्वभाव में आइये, उस प्रेमस्वभाव में आइये, उस कर्तव्यस्वभाव में आइये । और यह सब कर-कराके ‘क्या करें, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ….’ अरे…! चल, आगे चल ! जो हो गया सो हो गया, जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ… आगे बढ ! यह तो संसार है, चलता रहेगा । अपने पैर में जूते पहन ले, सारी धरती बिना काँटों की हो जायेगी । तू काहे डरे, काहे मरे ! जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा यह नियम पक्का है । तू अपने-आपको ठीक करके ज्ञान की नाव में बैठ जा बस ! अपने आत्मा को जान, ज्ञान प्रकाश, सत्य-प्रकाश में जी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 196

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *