वर्तमान में टिको – पूज्य बापू जी

वर्तमान में टिको – पूज्य बापू जी


जिसका आनन्द, जिसका सुख बाहर है, कुछ खाकर, कुछ देखकर, कुछ भोगकर सुखी होने की जिसके जीवन में गलती घुसी है वह भले ही दर-बदर, लोक-लोकांतर में, कभी स्वर्ग में तो कभी बिहिश्त में, कभी पाताल में तो कभी रसातल में तो कभी तलातल में, कभी इन्द्रियों के दिखावटी सुख में तो कभी मन के हवाई किलों में उलझ के थक जाता है और पाता है कि ‘मैं चल नहीं सकता । मेरा काम नहीं ईश्वर की तरफ चलना ।’ अरे ! मनुष्य जन्म मिला है, ईश्वरीय शांति, आत्मज्ञान, आत्मसुख पाना तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है । ईश्वरीय सुख की तरफ चलने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है । ईश्वर का, आत्मा का शाश्वत सुख पाने के लिए ही तुम्हारे पास बुद्धि और श्रद्धा है । नहीं कैसे चल सकते हो ? असंभव नहीं है । यही काम तुम कर सकते हो । दूसरे काम में तो तुम सदा के लिए सफल हो भी नहीं सकते । संसार में हर क्षेत्र में सदा सफल होना कठिन है लेकिन यह जो आत्मदेव है इसी में सदा सफलता है ।

भजन करते हो भगवान का और माँगते हो संसार तो तुमने भगवान से लेना कतई नहीं सीखा । तुम अगर आत्मा में विश्रांति पाये हुए हो तो तुम्हारी बुद्धि तेजस्वी होने से इन छोटी-छोटी बातों का तो अपने-आप हल निकलेगा । तुम वर्तमान में टिकते जाओ तो वे छोटी-छोटी मुसीबतें तो अपने-आप सिमटती जायेंगी, विदा होती जायेंगी ।

‘पति कहने में चले, पत्नी कहने में चले, बेटा कहने में चले, शरीर में रोग न हो, भोग मिलते रहें, अभी इतना है, यहाँ हूँ और फिर इतना पाऊँगा तथा वहाँ पहुँचूँगा तब सुख होगा…’ यह जो कल्पना है, यह तुम्हारे वर्तमान के खजाने को लूट लेती है और तुम्हें कंगाल बना देती है । जो जहाँ है वहीं अपने सुखस्वरूप का ज्ञान पाकर उसमें विश्रांति पा लें तो बेड़ा पार हो जाय । बाहर के सुख की इच्छा छोड़कर सुखस्वरूप में टिक जाय तो ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ हो जाय । घर में वस्त्र स्वाभाविक मिले उन्हें पहन लो, जो सादा-सूदा भोजन बने उसे खा लो, जहाँ नींद आये सो लो, ऊँचे महलों की कल्पना न करो और सुहावने बिस्तर सजाने की जरूरत मत बनाओ । जरूरत बनानी है तो यह बनाओ कि भूत और भविष्य की चिंतनधारा को तोड़कर निश्चिंत नारायण में आराम पाना है ।

भूत या भविष्य का एक विचार उठा और दूसरा विचार अभी उठा नहीं है, यह दो विचारों के बीच की जो अवस्था है वह परमात्म अवस्था है, वह चैतन्य अवस्था है । उसमें जो सदा जगह है वे भगवान हैं, जो जगने का प्रयत्न करते हैं वे साधक हैं और जिनको उसका पता ही नहीं है वे सरकती हुई चीजों में उलझने वाले संसारी हैं । फिर चाहे वह चीज इस पृथ्वी की हो, चाहे लोकांतर की हो लेकिन है सब संसार ।

ध्यान भजन में बैठते हो तब ‘यह मिलेगा, यह होगा, यह किया है, यह करूँगा….’ ऐसे विचार उठें तो ‘अगड़म-तगड़म स्वाहा….’ ऐसा किया करो, तुम ठहर जाओगे । वर्तमान में जरा सा आओगे लेकिन टिकोगे नहीं क्योंकि पुरानी आदत है । ईश्वरस्वरूप ॐ का दीर्घ उच्चारण करोगे तो इधर-उधर से हटकर पुनः वर्तमान में आ जाओगे । इसका तुम बारीकी से थोड़ा सा विचार करो, अनुसंधान करो तो तुम्हारे दो विचारों के बीच का जो अंतराल है वह थोड़ा बढ़ जायेगा । एक संकल्प उठा, दूसरा उठने को है – यह दो विचारों के बीच की जगह बढ़ जायेगी । वह बढ़ जाना ही परमात्मा में स्थित होना है और वह अगर तीन मिनट रह जाय, केवल तीन मिनट तो निर्विकल्प समाधि हो जायेगी, साक्षात्कार हो जायेगा । उसमें जितना ज्यादा टिके उतना सामर्थ्य बढ़ जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2009, पृष्ठ संख्या 8, अंक 197

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