शारीरिक शुद्धि

शारीरिक शुद्धि


जितना ध्यान हम शरीर की पुष्टि की तरफ देते हैं, उतना ही ध्यान शरीर की शुद्धि की तरफ देना भी आवश्यक है । अवशिष्ट पदार्थों का निष्कासन करने वाली शोधन प्रणालियों का कार्य कुशलता से नहीं होगा तो पोषण तंत्र का कार्य अपने-आप मंद अथवा बंद हो जायेगा ।

शरीर से निष्कासन का कार्य मुख्यतः चार अवयवों द्वारा होता हैः आँतें, गुर्दे, फेफड़े व त्वचा।

हर रोज लगभग 2.5 लिटर पानी, नत्रजन, 250 ग्राम कार्बन व 2 किलो अन्य तत्त्व एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से इन अवयवों द्वारा निष्कासित किये जाते हैं ।

1. आँतें– आँतों के द्वारा प्रतिदिन अन्न का अपाचित व अनवशोषित भाग, जीवाणु (बैक्टीरिया), कार्बन-डाई-ऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि वायु, पानी व अन्य तत्त्व मल के रूप में बाहर निकल जाते हैं ।

मल के वेग को रोकना, बिना चबाये, शीघ्रता से, अति मात्रा में, असमय, अनुचित आहार का सेवन, शारीरिक परिश्रम व व्यायाम का अभाव, रात्रि जागरण, सुबह देर तक सोना, सतत व्यग्रता, चिंता व शोक आँतों की कार्यक्षमता को क्षीण करते हैं ।

उपवास (सप्ताह अथवा पंद्रह दिन में एक दिन पूर्णतः निराहार रहना), उषःपान (रात का रखा हुआ छः अंजली जल प्रातः सूर्योदय से पूर्व पीना), चंक्रमण (सुबह शाम तेज गति से चलना), योगासन, उड्डीयान व मूल बंध तथा सम्यक् आहार आँतों को स्वच्छ व सशक्त करते हैं ।

2. गुर्दे (किडनियाँ)- गुर्दे प्रतिदिन 170 से 200 लीटर रक्त को छानकर डेढ़ से दो लीटर मूत्र की उत्पत्ति करते हैं । मूत्र के द्वारा अतिरिक्त जल, नत्रजन, नमक, यूरिक ऐसिड आदि निष्कासित किये जाते हैं ।

मूत्र के वेग को बार-बार रोकना, मूत्रवेग को रोककर जलपान, भोजन, संभोग करना, पचने में भारी, अति रूक्ष, ऊष्ण-तीक्ष्ण पदार्थ व नमक का अधिक सेवन, मांसाहार, नशीले पदार्थ, अंग्रेजी दवाइयाँ तथा शरीर का क्षीण होना गुर्दों व मूत्राशय (यूरिनरी ब्लैडर) की कार्यक्षमता को घटाते हैं ।

पर्याप्त शुद्ध जलपान, उषःपान, सोने से पूर्व, प्रातः उठते ही तथा व्यायाम व भोजन के बाद मूत्रत्याग, कटिपिंडमर्दनासन, पादपश्चिमोत्तानासन गुर्दे व मूत्राशय को स्वस्थ रखते हैं ।

3. फेफड़ेः फेफड़ों के द्वारा प्रतिदिन लगभग 250 मि.ली. पानी, 200 ग्राम कार्बन, उष्णता व 50 ग्राम अन्य तत्त्व बाहर फेंक दिये जाते हैं ।

मल-मूत्र, छींक, डकार आदि के वेगों को रोकना, भूख लगने पर व्यायाम करना, शक्ति से अधिक व कठोर परिश्रम करना, रूक्ष-शीत पदार्थों का अति सेवन, प्रदूषित हवा व धातुक्षय से फेफड़ों में विकृति आ जाती है ।

प्राणायाम (नाड़ी-शोधन, भस्त्रिका, उज्जायी, कपालभाति आदि), जहाँ जीवनीशक्ति की अधिकता हो ऐसे पहाड़, जंगल या नदी किनारे खुली हवा में घूमना फेफड़ों को स्वच्छ व सक्रिय बनाता है ।

4. त्वचाः त्वचा के द्वार पसीने के रूप में प्रतिदिन लगभग 600 मि.ली. पानी, 5 ग्राम कार्बन, 3-4 ग्राम नत्रजन, नमक, अमोनिया आदि तत्त्व निष्कासित होते हैं ।

विरूद्ध आहार (जैसे दूध के साथ फल, खट्टे व नमकयुक्त पदार्थों का सेवन), खट्टे, तीखे, तले हुए पदार्थ त्वचा को दूषित करते हैं ।

मालिश, उबटन व सूर्यस्नान से त्वचा निर्मल एवं दृढ़ होती है । अतः प्रातःकाल सौम्य धूप में सिर ढककर सूर्यस्नान अवश्य-अवश्य करना चाहिए । यह रोगनाशक व जीवनदायक है । सूर्यस्नान से सभी शोधन-प्रणालियाँ अपना काम सुचारु रूप से करने लगती हैं । प्रातः तुलसी के 5-7 व नीम के 10-15 पत्तों का सेवन शरीर को शुद्ध कर रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाता है । मलिन पदार्थों का शरीर में संचय गंभीर व्याधियों को आमंत्रित करता है तथा इनका पूर्णरूप से शरीर से बाहर निकल जाना, ताजगी, स्फूर्ति व निरोगता लाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 198

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