कथा प्रसंग – मोहे संत सदा अति प्यारे

कथा प्रसंग – मोहे संत सदा अति प्यारे


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

कांचीके मंदिर में एक पुजारी पूजा करता था। पुजारी का काम था भगवान की पूजा-आरती करे, भोग लगाये और भगवान को भोग लगाया हुआ प्रसाद राजा साहब के पास पहुँचाए।

एक बार राजा किसी बात कसे पुजारी पर नाराज हो गया। राजा ने आदेश दे दिया की ‘पुजारी इस मंदिर में पूजा नहीं करेगा और मेरे राज्य में भी नहीं रहेगा।’ अब राजा का आदेश है तो पुजारी बेचारा क्या कर सकता था। तीन दिन के अन्दर राज्य से निकलना था। उसने अपना सामान आदि समेट लिया।

पुजारी एक महात्मा के पास आता-जाता था, उनकी सेवा करता था। वह महात्मा के पास जाकर बोलाः ‘महाराज ! मुझे तो राज्य छोड़ जाने का आदेश मिला है। अब मैं जा रहा हूँ, आपसे आशीर्वाद लेने आया हूँ।”

महात्मा ने कहाः “तू रोज भोजन बनाकर दे जाता था, ठाकुर जी का प्रसाद लाता था। तेरे जैसा भक्त जाता है तो फिर हम यहाँ बैठकर क्या करेंगे ? चलो, जहाँ तुम वहाँ हम।”

महात्मा ने भी अपना झोली-झंडा समेटा। बाबा लोगों का क्या है, जहाँ जायेंगे वहाँ खायेंगे ! जय-जय सियाराम ! महात्मा जी मंदिर में गये और भगवान नारायण से बोलेः “हे शेषशायी ! आप भले ही यहाँ आराम करो, हम तो अब जाते हैं। पुजारी सेवक जा रहा है तो हम इधर बैठकर क्या करेंगे !”

भगवान ने उनको कहा कि “जब आप जैसे संत चले जायेंगे तो हम इधर नगर में क्या करेंगे ! मुझे भी इन राजाओं का राजवी भोग नहीं चाहिए। संत होते हैं तो मुझे अच्छा लगता है। चलो, हम भी चलते हैं आपके साथ।”

आगे पुजारी, उसके पीछे महात्मा और उनके पीछे भगवान शेषशायी नारायण साधारण आदमी का रूप बनाकर चल दिये। चल दिये तो नगर में उथल-पुथल होने लगी, राजा को भयंकर सपने आने लगे, नगर में अपशकुन होने लगे। राजा भागता दौड़ता दूसरे महात्माओं के पास पहुँचा और उनसे उत्पातों का कारण पूछा तो पता चला कि पुजारी गये तो महात्मा गये और महात्मा और महात्मा गये तो भगवान शेषशायी भी चले गये। अब तो मंदिर में केवल मूर्ति है, मूर्ति का देवत्व तो भगवान समेटकर ले गये। जैसे बिजली, पंखे सब होते हैं और फ्यूज उड़ गया तो हाय-हाय ! करते रहो। ए.सी. है, पावर हाउस भी है तो क्या हुआ, फ्यूज उड़ गया तो कुछ नहीं ! ऐसे ही भगवान ने फ्यूज निकाल लिया तो राज्य में हाहाकार मचने लगा।

राजा मंदिर में गया और भगवान शेषशायी के आगे प्रार्थना की। आकाशवाणी हुईः “राजन् ! जब महात्मा जा रहे हैं तो हम क्यों रहेंगे ?”

राजा ने महात्मा जी के पास जाकर कहाः “महाराज ! आप रुक जाइये।”

महात्मा बोलेः “तुमने इन सज्जन-स्वभाव पुजारी को तो निकाल दिया, अब ये नहीं रहेंगे तो हम क्यों रहें ! पहले इनसे माफी माँगो, इन्हें मनाओ। ये रहेंगे तो हम रहेंगे।”

भगवान बोलेः “महात्मा रहेंगे तो हम भी रहेंगे।”

उधो ! मोहे संत सदा अति प्यारे।

ऐसा नहीं कि संत भगवान की भक्ति करते हैं, खुशामद करते हैं, नहीं। संत और भक्त भगवान को प्यार करते हैं तो भगवान भी उन्हें प्यार करते हैं। प्यारे प्यारों को प्यारे ही होते हैं। राजा ने खूब अनुनय-विनय करके पुजारी को और महात्मा को मना लिया तो भगवान ने कहाः “चलो भाई ! अब हम भी आयेंगे लेकिन इस बात की लोगों को स्मृति कैसे रहेगी ?”

शेषनाग जी ने कहाः “महाराज ! हम आपके ऊपर छाया करते थे, अब आप जाकर फिर उलटे लौटे हैं तो हम भी उलटे ही रहेंगे।”

आप आज भी कांची के मंदिर में जाकर देख सकते हो, शेषशायी भगवान नारायण के ऊपर छाया करने वाले शेषनाग का फन उलटा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 9,15, अंक 204

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