Monthly Archives: February 2010

शरीर के साथ दिल को भी रंग लो


(होलीः 28 फरवरी)

पूज्य बापू जी

‘होली’ भारतीय संस्कृति की पहचान कराने वाला एक पुनीत पर्व है। यह पारस्परिक भेदभाव मिटाकर प्रेम व सदभाव प्रकट करने का एक सुंदर अवसर है, अपने दुर्गुणों तथा कुसंस्कारों की आहुति देने का एक यज्ञ है तथा अंतर में छुपे हुए प्रभुत्व को, आनंद को, निरहंकारिता, सरलता और सहजता के सुख को उभारने का उत्सव है।

होली का यह उत्सव हम प्राचीनकाल से मनाते आ रहे हैं। भगवान शिवजी ने इस दिन कामदहन किया था और होलिका, जिसको वरदान था न जलने का, प्रह्लाद को लेकर अग्नि की ज्वालाओं के बीच बैठी थी। वह होलिका जल गयी तथा भक्तिसम्पन्न प्रह्लाद अमरता के गीत गुँजाने में सफल हुए अर्थात् निर्दोष भक्ति के बल से वे धधकती अग्नि में भी सुरक्षित रहे। तो यह उत्सव खबर देता है कि तामसी व्यक्ति के पास कितना भी बल हो, कितना भी सामर्थ्य हो सज्जनों को डरना चाहिए। भले सज्जन नन्हें-मुन्ने दिखते हो, प्रह्लाद की नाईं छोटे दिखते हों फिर भी वे बड़े में बड़े ईश्वर का आश्रय लेकर कदम आगे बढ़ायें।

विघ्न-बाधा हमें दबोच सके,

यह उसमें दम नहीं।

हमें दबा सके यह जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

ये पंक्तियाँ प्रह्लाद, मीरा, शबरी, तुकारामजी आदि-आदि सत्संगनिष्ठों के जीवन में साकार पायी गयीं।

हो….ली…. जो बीत गयी उस कमजोरी को याद न कर। आने वाले भविष्य का भय मत कर। चरैवति…..चरैवति……आगे बढ़ो…..आगे बढ़ो…..

यह होली का उत्सव तुम्हारे छुपे हुए आत्मिक रस को जगाने वाला है। लोग कुत्ते और बिल्लियों से रस लेने के लिए उन्हें पालते है और न जाने टी-गौंडी आदि कितने जीवाणुओं की हानियाँ अपने जीवन में ले आते हैं। बिल्ली के पेट में पाये जाने वाले टी-गौंडी जीवाणु कमजोर मानसिकता वाले को, गर्भवती महिला को और शिशु को नुकसान पहुँचाते हैं। मानव रस खोजने के लिए बिल्ली की शरण को जाता है, कुत्ते की शरण जाता है, पान-मसाला, शराब-कबाब की शरण जाता है, क्लबों की शरण जाता है, और भी न जाने किस-किस की शरण जाता है। होलिकोत्सव बोलता हैः नहीं !

तमेश शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तुम सर्वभाव से अपने आत्मसुख की शरण आओ, आत्मप्रकाश की शरण आओ। घबराओ मत लाला-लालियाँ ! होली – हो… ली….।

मुस्कराके गम का जहर जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।

हर इन्सान चाहता है जीवन रसमय हो, जीवन प्रेममय हो, जीवन निरोगता से छलके तो आपसी राग-द्वेष भूलकर-

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से स्नेह जगत में कोई नहीं पराया है।।

भारतीय संस्कृति के ये पावन त्यौहार एवं मनाने के तरीके केवल मन की प्रसन्नता ही नहीं बढ़ाते, तन की तंदरूस्ती एवं बुद्धि में बुद्धिदाता की खबर भी देते हैं।

गर्मी के दिनों में सूर्य की किरणें हमारी त्वचा पर सीधी पड़ती हैं, जिससे शरीर में गर्मी बढ़ती है। हो सकती है कि शरीर में गर्मी बढ़ने से गुस्सा बढ़ जाय, स्वभाव में खिन्नता आ जाय। इसीलिए होली के दिन प्राकृतिक पुष्पों का रंग एकत्र करके एक दूसरे पर डाला जाता है, ताकि हमारे शरीर की गर्मी सहन करने की क्षमता बढ़ जाये और सूर्य की तीक्ष्ण किरणों का उस पर विकृत असर न पड़े।

हम पर्वों को तो मनाते हैं परंतु पर्वों के जो सिद्धान्त हैं उनसे हम मीलों दूर रह जाते हैं। हमारे ऋषियों ने जिस उद्देश्य से त्यौहारों की नीति बनायी, उसका यथार्थ लाभ न लेकर हम उन्हें अपनी वासना के अनुसार मना लेते हैं।

ऋतु-परिवर्तनकाल के इस त्यौहार पर प्रकृति की मादकता छायी रहती है। वैदिक काल में शरीर को झकझोरने वाली सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से टक्कर लेने के लिए पलाश के फूलों का रस लिया जाता था। यह रोगप्रतिकारक शक्ति, सप्तधातु और सप्तरंगों को संतुलित रखने की व्यवस्था थी। पलाश के फूल हमारे तन, मन, मति और पाचन-तंत्र को पुष्ट करते हैं। पलाश वृक्ष के पत्तों पर भोजन करने वाले को भी स्वास्थ्य लाभ के साथ पुण्य लाभ व सत्त्वगुण बढ़ाने में मदद मिलती है।

ऋतु परिवर्तन के इन 10-20 दिनों में नीम के 15-20 कोमल पत्तों के साथ 2 काली मिर्च चबाकर खाने से भी वर्ष भर आरोग्य दृढ़ होता है। बिना नमक का भोजन 15 दिन लेने वाले की आयु और प्रसन्नता में बढ़ोतरी होती है। होली के बाद खजूर खाना मना है।

होली की रात्री चार पुण्यप्रद महारात्रियों में आती है। होली की रात्रि का जागरण और जप बहुत ही फलदायी होता है। इसलिए इस रात्रि में जागरण और जप कर सभी पुण्य लाभ लें। यह उत्सव रंग के साथ अंतर चेतना, आंतर-आराम और अंतरात्मा की प्रीति देने वाला है।

हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को आग में न जलने का वरदान मिला था। चिता में बैठी हुई उस होलिका की गोद में प्रह्लाद को बिठा दिया गया और चिता को आग लगा दी गयी। परंतु यह क्या ! जिसे न जलने का वरदान प्राप्त था वह होलिका जल गयी और प्रह्लाद जीवित रह गये ! बिल्कुल उलटा हो गया क्योंकि प्रह्लाद सत्य की शरण थे, ईश्वर की शरण थे।

संत कहते हैं कि यह जीव प्रह्लाद है। हिरण्यकशिपु यानी अंधी महत्वाकांक्षा, वासना जो संसार में रत रहने के लिए उकसाती रहती है। होलिका यानी अज्ञान, अविद्या जो जीव को अपनी गोद में बिठाकर रखती है तथा उसे संसार की त्रिविध तापरूपी अग्नि में जलाना चाहती है। यदि यह जीवरूपी प्रह्लाद ईश्वर और सदगुरु की शरण में जाता है तो उनकी कृपा से प्रकृति का नियम बदल जाता है। त्रिविध तापरूपी अग्नि ज्ञानाग्नि के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस ज्ञान की आग से अज्ञानरूपी होलिका भस्म हो जाती है तथा जीवरूपी प्रह्लाद मुक्त हो जाता है। यही होली का तत्त्व है।

होली रंग का त्यौहार है। रंग जरूर खेलो, मगर गुरूज्ञान का रंग खेलो। रासायनिक रंगों से तो हर साल होली खेलते हो, इस बार गुरूज्ञान के रंग से अपने हृदय को रँग लो तो तुम भी कह उठोगेः

भोला ! भली होली हुई,

भ्रम भेद कूड़ा बह गया।

नहिं तू रहा नहिं मैं रहा,

था आप सो ही रह गया।।

होली यानी जो हो… ली…. कल तक जो होना था, वह हो लिया। आओ, आज एक नयी जिंदगी की शुरुआत करें। जो दीन-हीन हैं, शोषित है, उपेक्षित है, पीड़ित है, अशिक्षित है, समाज के उस अंतिम व्यक्ति को भी सहारा दें। जिंदगी का क्या भरोसा ! कुछ काम ऐसे कर चलो कि हजारों दिल दुआएँ देते रहें… चल पड़ो उस पथ पर, जिस पर चलकर कुछ दीवाने प्रह्लाद बन गये। करोगे न हिम्मत ! तो उठो और चल पड़ो प्रभुप्राप्ति, प्रभुसुख, प्रभुज्ञान, प्रभुआनंद प्राप्ति के पुनीत पथ पर…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 10,11,16, अंक 206

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माता पिता परम आदरणीय


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

एक पिता अपने छोटे से पुत्र को गोद में लिए बैठा था। कहीं से उड़कर एक कौआ उनके सामने छज्जे पर बैठ गया। पुत्र ने पिता से पूछाः

“पापा ! यह क्या है ?”

पिताः “कौआ है।”

पुत्र ने फिर पूछाः “यह क्या है?”

पिता ने कहाः “कौआ है।”

पुत्र बार-बार पूछताः “पापा ! यह क्या है ?”

पिता स्नेह से बार-बार कहताः “बेटा ! यह कौआ है कौआ।”

कई वर्षों के बाद पिता बूढ़ा हो गया। एक दिन पिता चटाई पर बैठा था। घर में कोई उसके पुत्र से मिलने आया। पिता ने पूछाः “कौन आया है ?”

पुत्र ने नाम बता दिया। थोड़ी देर में कोई और आया तो पिता ने फिर पूछा। इस बार झल्लाकर पुत्र ने कहाः “आप चुपचाप पड़े क्यों नहीं रहते ! आपको कुछ करना धरना है तो नहीं, ‘कौन आया-कौन गया’ दिन भर यह टाँय-टाँय क्यों लगाये रहते हैं ?”

पिता ने लम्बी साँस खींची, हाथ से सिर पकड़ा। बड़े दुःखभरे स्वर में धीरे-धीरे कहने लगाः “मेरे एक बार पूछने पर तुम कितना क्रोध करते हो और तुम दसों बार एक ही बात पूछते थे कि यह क्या है ? मैंने कभी तुम्हें झिड़का नहीं। मैं बार बार तुम्हें बताताः बेटा कौआ है।”

बच्चो ! भूलकर भी कभी अपने माता पिता का ऐसे तिरस्कार नहीं करना चाहिए। वे तुम्हारे लिए परम आदरणीय हैं। उनका मान सम्मान करना तुम्हारा कर्तव्य है। माता-पिता ने तुम्हारे पालन-पोषण में कितने कष्ट सहे हैं। कितनी रातें माँ ने तुम्हारे लिए गीले में सोकर गुजारी हैं, और भी तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक कितने कष्ट तुम्हारे लिए सहन किये हैं, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। कितने-कितने कष्ट सहकर तुमको बड़ा किया और अब तुमको वृद्ध माता-पिता को प्यार से दो शब्द कहने में कठिनाई लगती है ! पिता को ‘पिता’ कहने में भी शर्म आती है।

अभी कुछ वर्ष पहले की बात है।

इलाहाबाद में रहकर एक किसान का बेटा वकालत की पढ़ाई कर रहा था। बेटे को शुद्ध घी, चीज़-वस्तु मिले, बेटा स्वस्थ रहे इसलिए पिता घी, गुड़, दाल-चावल आदि सीधा-सामान घर से दे जाते थे।

एक बार बेटा अपने दोस्तों के साथ कुर्सी पर बैठकर चाय-ब्रेड का नाश्ता कर रहा था। इतने में वह किसान पहुँचा। धोती फटी हुई, चमड़े के जूते, हाथ में डंडा, कमर झुकी हुई… आकर उसने गठरी उतारी। बेटे को हुआ, ‘बूढ़ा आ गया है, कहीं मेरी इज्जत न चली जाय !’ इतने में उसके मित्रों ने पूछाः “यह बूढ़ा कौन है ?”

लड़काः “He is my servant.” (यह तो मेरा नौकर है।)

लड़के ने धीरे-से कहा किंतु पिता ने सुन लिया। वृद्ध किसान ने कहाः “भाई ! मैं नौकर तो जरूर हूँ लेकिन इसका नौकर नहीं हूँ, इसकी माँ का नौकर हूँ। इसीलिए यह सामान उठाकर लाया हूँ।”

यह अंग्रेजी पढ़ाई का फल है कि अपने पिता को मित्रों के सामने ‘पिता’ कहने में शर्म आ रही है, संकोच हो रहा है ! ऐसी अंग्रजी पढ़ाई और आडम्बर की ऐसी-की-तैसी कर दो, जो तुम्हें तुम्हारी संस्कृति से दूर ले जाय !

भारत को आजाद हुए 62 साल हो गये फिर भी अंग्रेजी की गुलामी दिल-दिमाग से दूर नहीं हुई !

पिता तो आखिर पिता ही होता है चाहे किसी भी हालत में हो। प्रह्लाद को कष्ट देने वाले दैत्य हिरण्यकशिपु को भी प्रह्लाद कहता हैः “पिताश्री !” और तुम्हारे लिए तनतोड़ मेहनत करके तुम्हारा पालन-पोषण करने वाले पिता को नौकर बताने में तुम्हें शर्म नहीं आती !

भारतीय संस्कृति में तो माता-पिता को देव कहा गया हैः मातृदेवो भव, पितृदेवो भव…. उसी दिव्य संस्कृति में जन्म लेकर माता-पिता का आदर करना तो दूर रहा, उनका तिरस्कार करना, वह भी विदेशी भोगवादी सभ्यता के चंगुल में फँसकर ! यह कहाँ तक उचित है ?

भगवान गणेश माता-पिता की परिक्रमा करके ही प्रथम पूज्य हो गये। आज भी प्रत्येक धार्मिक विधि-विधान में श्रीगणेश जी का प्रथम पूजन होता है। श्रवण कुमार ने माता-पिता की सेवा में अपने कष्टों की जरा भी परवाह न की और अंत में सेवा करते हुए प्राण त्याग दिये। देवव्रत भीष्म ने पिता की खुशी के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत पाला और विश्वप्रसिद्ध हो गये। महापुरुषों की पावन भूमि भारत में तुम्हारा भी जन्म हुआ है। स्वयं के सुखों का बलिदान देकर संतान हेतु अगणित कष्ट उठाने वाले माता-पिता पूजने योग्य हैं। उनकी सेवा करके अपने भाग्य को बनाओ। किन्हीं संत ने ठीक ही कहा हैः

जिन मात-पिता की सेवा की,

तिन तीरथ जाप कियो न कियो।

‘जो माता-पिता की सेवा करते हैं, उनके लिये किसी तीर्थयात्रा की आवश्यकता नहीं है।’

माता पिता व गुरुजनों की सेवा करने वाला और उनका आदर करने वाला स्वयं चिरआदरणीय बन जाता है। मैंने माता-पिता-गुरु की सेवा की, मुझे कितना सारा लाभ हुआ है वाणी में वर्णन नहीं कर सकता। नारायण….. नारायण…..

जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर-सम्मान नहीं करते, वे जीवन में अपने लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते। इसके विपरीत जो बच्चे अपने माता-पिता का आदर करते हैं, वे ही जीवन में महान बनते हैं और अपने माता-पिता व देश का नाम रोशन करते हैं। लेकिन जो माता-पिता अथवा मित्र ईश्वर के रास्ते जाने से रोकते हैं, उनकी वह बात मानना कोई जरूरी नहीं।

जाके प्रिय न राम-बैदेही।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम,

जद्यपि परम स्नेही।।

(विनय पत्रिका)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 15, 16 अंक 206

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लगाया झूठा आरोप, हुआ कुदरत का प्रकोप


निर्दोष हृदय की आह ईश्वरीय कोप ले आती है। जुल्मी का जुल्म तेज होता है न, तो तुरंत दंड मिलता है। जुल्मी के पहले के कर्म कुछ पुण्यदायी हैं, तो उसको देर से दंड मिलता है, लेकिन जुल्म करने का फल तो मिलता है, लेकिन जुल्म करने का फल मिलता, मिलता और मिलता ही है ! न चाहे तो भी मिलता है। यह कर्म का संविधान है। ईश्वर का संविधान बहुत पक्का है। जुल्म सहने वाले के तो कर्म कटे लेकिन जुल्म करने वालों के तो पुण्य नष्ट हुए और बाकी उनके कर्मों का फल जब सामने आयेगा, एकदम रगड़े जायेंगे।

एक उच्चकोटि के गृहस्थी संत थे। उनका नाम था जयदेव जी। ‘गीत-गोविंद’ की रचना उन्होंने ही की है। एक बार वे यात्रा को निकले। एक राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया और उन्हें स्वर्णमुद्राएँ, चाँदी के सिक्के आदि भेंट में दिया। इच्छा न होने पर भी राजा की प्रसन्नता के लिए जयदेव जी ने निःस्पृह भाव से कुछ भेंट स्वीकार की और अपने गाँव को चल पड़े। जब वे घने जंगल में पहुँचे तब कुछ डकैतों ने उन पर पीछे से आक्रमण किया और उनका सब सामान छीनकर हाथ-पैर काटके उन्हें कुएँ में धकेल दिया। कुएँ में अधिक पानी तो था नहीं, घुटने भर पानी ! दलदल  में क्या डूबते, वहाँ ऐसे गिरे जैसे गद्दी पर पड़ जायें।

जयदेव जी बोलते हैं- “गोविन्द ! यह भी तेरी कोई लीला है। तेरी लीला अपरम्पार है !” इस प्रकार कहते हुए वे भगवन्नाम गुनगुना रहे थे। इतने में गौड़ देश के राजा लक्ष्मणसेन वहाँ से गुजरे। कुएँ में से आदमी की आवाज आती सुनकर राजा ने देखने की आज्ञा दी। सेवक ने देखा तो कुएँ में जयदेव जी भजन गुनगुना रहे हैं। राजा की आज्ञा से उन्हें तुरंत बाहर निकाला गया।

राजा ने पूछाः “महाराज ! आपकी ऐसी स्थिति किस दुष्ट ने की ? आपके हाथ-पैर किसने काटे ? आज्ञा कीजिये, मैं उसे मृत्युदंड दूँगा।”

उन ज्ञानवान महापुरूष ने कहाः “कुछ नहीं, जिसके हाथ-पैर थे उसी ने काटे।

करन करावनहार स्वामी।

सकल घटा के अंतर्यामी।।

यहाँ (हृदय) में भी जो बैठा है, उसी के हाथ-पैर हैं और जिसने काटे वह और यह सब एक है।”

“नहीं-नहीं, फिर भी बताओ।”

बोलेः “राजन् ! तुम मेरे में श्रद्धा करते हो न, तो जिसके प्रति श्रद्धा होती है उसकी बात मानी जाती है, आज्ञा मानी जाती है। इस बात को आप दुबारा नहीं पूछेंगे।”

राजा के मुँह पर ताला लग गया। राजा उन्हें अपने महल में ले गये। वैद्य हकीम आये, जो कुछ उपचार करना था किया।

बात पुरानी हो गयी। राजा को सूझा कि यज्ञ किया जाये, जिसमें दूर-दूर के संत-भक्त आयें, जिससे प्रजा को संतों के दर्शन हों, प्रजा का मन पवित्र हो, भाव पवित्र हों, विचार पवित्र हों। कर्म और उज्जवल हों, भविष्य उज्जवल हो।

यज्ञ का आयोजन हुआ। जयदेव जी को मुख्य सिंहासन पर बिठाया गया। अतिथि आये। भंडारा हुआ, सबने भोजन किया। उन्हीं चार डकैतों ने सोचा, ‘साधुओं के भंडारे में साधुवेश धारण करके जाने से दक्षिणा मिलेगी।’ इसलिए वे साधु का वेश बनाकर वहाँ आ पहुँचे।

अंदर आकर देखा तो स्तब्ध रह गये, ‘अरे ! जिसका धन छीनकर हाथ पैर काट के हमने कुएँ में फेंका था, वही आज राजा से भी ऊँचे आसन पर बैठा है ! अब तो हमारी खैर नहीं। क्या करें ? वापस भी नहीं जा सकते और आगे जाना खतरे से खाली नहीं है….’

इतने में जयदेवजी की नजर उन साधुवेशधारी डाकुओं पर पड़ी। उनकी ओर इशारा करते हुए वे बोलेः “राजन् ! ये चार हमारे पुराने मित्र हैं। इनकी मुझ पर बड़ी कृपा रही है। मैं इनका एहसान नहीं भूल सकता हूँ। आप मुझे जो कुछ दक्षिणा देने वाले हैं, वह इन चारों मित्रों को दे दीजिए।”

डकैत काँप रहे हैं कि हमारा परिचय दे रहे हैं, अब हमारे आखिरी श्वास हैं लेकिन जयदेव जी के मन में तो उनके लिए सदभावना थी।

राजा ने उन चारों को बड़े सत्कार से चाँदी के बर्तन, स्वर्णमुद्राएँ, मिठाइयाँ, वस्त्रादि प्रदान किये। जयदेव जी ने कहाः “मंत्री ! इन महापुरूषों को जंगल पार करवाकर इनके गन्तव्य तक पहुँचा दो।”

जाते-जाते मंत्री को आश्चर्य हुआ कि ये चार महापुरुष कितने बड़े हैं ! मंत्री ने बड़े आदर से पूछाः “महापुरूषो ! गुस्ताखी माफ हो, आपके लिये जयदेवजी महाराज इतना सम्मान रखते हैं और राजा ने भी आपको सम्मानित किया, आखिर आपका जयदेव जी के साथ क्या संबंध है ?”

उन चार डकैतों ने एक दूसरे की तरफ देखा, थोड़ी दूर गये और कहानी बनाकर बोलेः “ऐसा है कि जयदेव हमारे पुराने साथी हैं। हम लोग एक राज्य में कर्मचारी थे। इन्होंने ऐसे-ऐसे खजाने चुराये कि राजा ने गुस्से में आकर इनको मृत्युदंड देने की आज्ञा दे दी, लेकिन हम लोगों ने दया करके इन्हें बचा लिया और हाथ-पैर कटवाकर छोड़ दिया।

हम कहीं यह भेद खोल न दें, इस डर से इन्होंने हमारा मुँह बन्द करने के लिए स्वागत कराया है।”

देखो, बदमाश लोग कैसी कहानियाँ बनाते हैं ! कहानी पूरी हुई न हुई कि सृष्टिकर्ता से सहन नहीं हुआ और धरती फट गयी, वे चारों उसमें धँसने लगे और बिलखते हुए घुट घुट के मर गये। मंत्री दंग रह गया कि ऐसे भी मृत्यु भी होती है ! उनको दी हुई दक्षिणा, सामान आदि वापस लाकर राजा के पास रखते हुए मंत्री ने पूरी घटना सुना दी।

राजा ने जयदेव जी को चकित मन से सब बातें बतायीं। महाराज दोनों कटे हाथ ऊपर की तरफ करके कहने लगेः “हे ईश्वर ! बेचारों को अकाल मौत की शरण दे दी !” उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। ईश्वर को हुआ की ऐसे जघन्य पापियों के लिए भी इनके हृदय में इतनी दया है ! तो ईश्वर का अपना दयालु स्वभाव छलका और जयदेव जी के कटे हुए हाथ-पैर फिर से पूर्ववत् हो गये। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

उसने बड़े ही कौतूहल से आग्रहपूर्वक पूछाः “महाराज ! अब असलियत बताइये, वे कौन थे ?”

अब जयदेव जी को असलियत बतानी पड़ी। पूर्व वृत्तांत बताकर उन्होंने कहाः “राजन् ! मैंने सोचा कि ‘ इनको पैसों की कमी है, इसलिए बेचारे इतना जघन्य पाप करते हैं। न जाने किन योनियों में इस पाप का फल भुगतना पड़ेगा ! इस बार आपसे खूब दक्षिणा, धन दिला दूँ ताकि वे ऐसा जघन्य पाप न करें।’ क्योंकि कोई भी पापी पाप करता है तो कोई देखे चाहे न देखे, उसे उसका पाप कुतर-कुतर करके खाता है। फिर भी ये पाप से नहीं बचे तो सृष्टिकर्ता से सहा नहीं गया, ईश्वरीय प्रकोप से धरती फटी, वे घुट मरे।”

जो व्यक्ति उदारात्मा है, प्राणिमात्र का हितैषी है उसके साथ कोई अन्याय करे, उसका अहित करे तो वह भले सहन कर ले किंतु सृष्टिकर्ता उस जुल्म करने वाले को देर-सवेर उसके अपराध का दंड देते ही हैं।

संत का निंदकु महा हतिआरा।

संत का निंदकु परमेसुरि मारा।।

संत के दोखी की पुजै न आस।

संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

आप निश्चिंत रहो, शांत रहो, आनंदित रहो तो आपका तो मंगल होगा, अगर आपका कोई अमंगल करेगा तो देर सवेर कुदरत उसका स्वभाव बदल देगी, वह आपके अनुकूल हो जायेगा। अगर वह आपके अनुकूल नहीं होता तो फिर चौदह भुवनों में भी उसे शांति नहीं मिलेगी और जिसके पास शांति नहीं है, फिर उसके पास बचा ही क्या ! उसका तो सर्वनाश है। दिन का चैन नहीं, निश्चिंतता की नींद नहीं, हृदय में शांति नहीं तो फिर और जो कुछ भी है, उसकी कीमत भी क्या !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2010, पृष्ठ संख्या 3,4,5. अंक 206

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