Monthly Archives: March 2010

सोमवती अमावस्या


15 मार्च 2010

सोमवती अमावस्या का पर्व विशेषकर महिलाएँ मनाती है। इस पर्व में स्नान-दान का बड़ा महत्त्व है। इस दिन मौन रहकर स्नान करने से हजार गौदान का फल होता है। इस दिन पीपल और भगवान विष्णु का पूजन तथा उनकी 108 प्रदक्षिणा करने का विधान है। 108 में से 8 प्रदक्षिणा पीपल के वृक्ष को कच्चा सूत लपेटते हुए की जाती हैं। प्रदक्षिणा करते समय 108 फल पृथक रखे जाते है। बाद में वे भगवान का भजन करने वाले ब्राह्मणों या ब्राह्मणियों में वितरित कर दिये जाते है। ऐसा करने से संतान चिरंजीवी होती है। इस दिन तुलसी की 108 परिक्रमा करने से दरिद्रता मिटती है। सोमवती अमावस्या, रविवारी सप्तमी, मंगलवारी चतुर्थी, बुधवारी अष्टमी – ये चार तिथियाँ सूर्य ग्रहण के बराबर कही गयी हैं। इनमें किया गया स्नान, दान, जप व श्राद्ध अक्षय होता है।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा

16 मार्च 2010

वर्ष के साढ़े तीन मुहूर्तः ‘वर्ष प्रतिपदा (चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा या गुड़ी पड़वा), अक्षय तृतिया (वैशाख शुक्ल तृतिया) व विजयादशमी (आश्विन शुक्ल दशमी या दशहरा) ये पूरे तीन मुहूर्त तथा कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलि प्रतिपदा) का आधा – इस प्रकार साढ़े तीन मुहूर्त स्वयं सिद्ध हैं अर्थात् इन दिनों में कोई भी शुभ कर्म करने के लिए पंचांग-शुद्धि या शुभ मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं रहती। ये साढ़े तीन मुहूर्त सर्वकार्य सिद्ध करने वाले हैं।’

(बालबोधज्योतिषसारसमुच्चयः 8.79.80)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, अंक 207, पृष्ठ संख्या 8.

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राम-राज्यः आदर्श राज्य


(श्रीराम नवमीः 24 मार्च 2010)

पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

रामावतार को लाखों वर्ष हो गये लेकिन श्रीरामजी अभी भी जनमानस के हृदय-पटल से विलुप्त नहीं हुए। क्यों ? क्योंकि श्रीरामजी का आदर्श जीवन, उनका आदर्श चरित्र हर मनुष्य के लिए अनुकरणीय है। ‘श्री रामचरितमानस’ में वर्णित यह आदर्श चरित्र विश्वसाहित्य में मिलना दुर्लभ है।

एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श योद्धा और आदर्श राजा के रूप में यदि किसी का नाम लेना हो तो भगवान श्रीरामजी का ही नाम सबकी जुबान पर आता है। इसीलिए राम-राज्य की महिमा आज लाखों-लाखों वर्षों के बाद भी गायी जाती है।

भगवान श्रीरामजी के सदगुण ऐसे तो विलक्षण थे कि पृथ्वी के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय और जाति के लोग उन सदगुणों को अपना कर लाभान्वित हो सकते हैं।

श्रीरामजी सारगर्भित बोलते थे। उनसे कोई मिलने आता तो वे यह नहीं सोचते थे कि पहले वह बात शुरू करे या मुझे प्रणाम करे। सामने वाले को संकोच न हो इसलिए श्रीराम जी अपनी तरफ से ही बात शुरु कर देते थे।

श्रीरामजी प्रसंगोचित बोलते थे। जब उनके राजदरबार में धर्म की किसी बात पर निर्णय लेते समय दो पक्ष हो जाते थे, तब जो पक्ष उचित होता श्रीरामजी उसके समर्थन में इतिहास, पुराण और पूर्वजों के निर्णय उदाहरण रूप में कहते, जिससे अनुचित बात का समर्थन करने वाले पक्ष को भी लगे की दूसरे पक्ष की बात सही है।

श्रीराम जी दूसरों की बात बड़े ध्यान व आदर से सुनते थे। बोलने वाला जब तक अपने और औरों के अहित की बात नहीं कहता, तब तक वे उसकी बात सुन लेते थे। जब वह किसी की निंदा आदि की बात करता तब देखते हो कि इससे इसका अहित होगा या इसके चित्त का क्षोभ बढ़ जायेगा या किसी दूसरे की हानि होगी, तब वे सामने वाले की बातों को सुनते-सुनते इस ढंग से बात मोड़ देते कि बोलने वाले का अपमान नहीं होता था। श्रीरामजी तो शत्रुओं के प्रति भी कटु वचन नहीं बोलते थे।

युद्ध के मैदान में श्रीरामजी एक बाण से रावण के रथ को जला देते, दूसरा बाण मारकर उसके हथियार उड़ा देते फिर भी उनका चित्त शांत और सम रहता था। वे रावण से कहतेः ‘लंकेश ! जाओ, कल फिर तैयार होकर आना।’

ऐसा करते-करते काफी समय बीत गया तो देवताओं को चिंता हुई कि राम जी को क्रोध नहीं आता है वे तो समता साम्राज्य में स्थिर हैं, फिर रावण का नाश कैसे होगा ? लक्ष्मणजी, हनुमानजी आदि को भी चिंता हुई, तब दोनों ने मिलकर प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! थोड़े कोपायमान होइये।’

तब श्रीरामजी ने क्रोध का आवाहन कियाः क्रोधं आवाहयामि। क्रोध ! अब आ जा।’

श्रीरामजी क्रोध का उपयोग तो करते थे किंतु क्रोध के हाथों में नहीं आते थे। हम लोगों को क्रोध आता है तो क्रोधी हो जाते हैं, लोभ आता है तो लोभी हो जाते हैं, मोह आता है तो मोही हो जाते हैं, शोक आता है तो शोकातुर हो जाते हैं लेकिन श्रीरामजी को जिस समय जिस साधन की आवश्यकता होती थी, वे उसका उपयोग कर लेते थे।

श्रीरामजी का अपने मन पर बड़ा विलक्षण नियंत्रण था। चाहे कोई सौ अपराध कर दे फिर भी रामजी अपने चित्त को क्षुब्ध नहीं होने देते थे। सामने वाला व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है, अपने ढंग से जीता है, अतः वह आपके साथ अनुचित व्यवहार कर सकता है परंतु उसके ऐसे व्यवहार से अशांत होना-न-होना आपके हाथ की बात है। यह जरूरी नहीं है कि सब लोग आपके मन के अनुरूप ही जियें।

श्रीरामजी अर्थव्यवस्था में भी निपुण थे। ‘शुक्रनीति’ और ‘मनुस्मृति’ में भी आया है कि जो धर्म, संग्रह, परिजन और अपने लिए – इन चार भागों में अर्थ की ठीक से व्यवस्था करता है वह आदमी इस लोक और परलोक में सुख-आराम पाता है।

कई लोग लोभ-लालच में इतना अर्थसंग्रह कर लेते हैं कि वही अर्थ उनके लिए अनर्थ का कारण हो जाता है और कई लोग इतने खर्चीले हो जाते हैं कि कमाया हुआ सब धन उड़ा देते हैं, फिर कंगालियत में जीते हैं। श्रीरामजी धन के उपार्जन में भी कुशल थे और उपयोग में भी। जैसे मधुमक्खी पुष्पों को हानि पहुँचाये बिना उनसे परागकण ले लेती है, ऐसे ही श्रीरामजी प्रजा से ऐसे ढंग से कर (टैक्स) लेते कि प्रजा पर बोझ नहीं पड़ता था। वे प्रजा के हित का चिंतन तथा उसके भविष्य का सोच-विचार करके ही कर लेते थे।

प्रजा के संतोष तथा विश्वास-सम्पादन के लिए श्रीरामजी राज्यसुख, गृहस्थसुख और राज्यवैभव का त्याग करने में भी संकोच नहीं करते थे। इसीलिए श्रीरामजी का राज्य आदर्श राज्य माना जाता है।

राम राज्य का वर्णन करते हुए ‘श्रीरामचरितमानस’ में आता हैः

बरनाश्रम निज निज धरम

निरत बेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहि सुखहि

नहिं भय सोक न रोग।।…..

‘राम-राज्य में सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद-मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक और न कोई रोग ही सताता है।

राम-राज्य में किसी को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।

धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं।

(श्रीरामचरित. उ. कां. 20.20.1,2)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 26, 27 अंक 207

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कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च येन।


(पूज्य बापू जी का अवतरण दिवसः 4 अप्रैल)

पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

शास्त्रों में भगवान के कई अवतार बताये गये हैं। उनमें से एक है नित्य अवतार, जो संत-महापुरुषों के रूप में होता है। ऐसे नित्य अवतारस्वरूप अनेक संत इस धरती पर अवतरित हुए हैं, जैसे – वल्लभाचार्य, शंकराचार्य, निम्बकाचार्य, कबीर जी, नानक जी, श्री रामकृष्ण परमहंस, परम पूज्य श्री लीलाशाह जी बापू।

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था

वसुन्धरा पुण्यवती च येन।

अर्थात जिस कुल में वे महापुरुष अवतरित होते है वह कुल पवित्र हो जाता है, जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह भाग्यवती जननी कृतार्थ हो जाती है और जहाँ उनकी चरणरज पड़ती है वह वसुन्धरा भी पुण्यवती हो जाती है।

साधारण जीव का जन्म कर्मबन्धन से, वासना के वेग से होता है। भगवान या संत-महापुरुषों का जन्म ऐसे नहीं होता। वास्तव में तो उनका मनुष्य रूप में धरती पर प्रकट होना, जन्म लेना नहीं अपितु अवतरित होना कहलाता है।

भगवान या संत महापुरुष तो लोकमांगल्य के लिए, किसी विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए अथवा लाखों-लाखों लोगों द्वारा करूण पुकार लगायी जाने पर अवतरित होते है अर्थात् हमारी सदभावनाओं को, हमारे ध्येय को, हमारी आवश्यकताओं को साकार रूप देने के लिए जो प्रकट हो जायें वे अवतार या भगवत्प्राप्त महापुरुष कहलाते हैं।

शरीर का जन्म होना और उसका जन्मदिन मनाना कोई बड़ी बात नहीं है बल्कि उसके जन्म का उद्देश्य पूर्ण कर लेना यह बहुत बड़ी बात है। जिन्होंने इस उद्देश्य को पूर्ण कर लिया है, ऐसे परब्रह्म परमात्मा में जगे हुए महापुरुषों का अवतरण-दिवस हमें भी जीवन के इस ऊँचे लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है, इसलिए वह उत्सव मनाने का एक सुन्दर अवसर है और सबको मनाना चाहिए।

जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली।

जिसने अपने आप से मुलाकात कर ली।।

धऱती पर लगभग छः सौ अस्सी करोड़ मनुष्य विद्यमान हैं और उनमें से लगभग पौने दो करोड़ लोगों का हररोज जन्मदिवस होता है। जन्मदिवस मनाने का लाभ तो तभी है जब जीवन में कुछ-न-कुछ उच्च संकल्प लिया जाय। मान लो, आपके जीवन के 30 वर्ष पूरे हो गये और अब आप 31वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। आप बीते हुए वर्षों का निरीक्षण करें कि मुझसे क्या-क्या गलत कार्य हुए हैं। जन्मदिवस के शुभ अवसर पर उन गलत कार्यों का दुबारा न करने का व नये शुभ कार्य करने का संकल्प लें। अगर आप ऐसा करते हैं तब ही जन्मदिवस मनाने का महत्व है।

वास्तव में ज्ञानदृष्टि से देखा जाय तो आपका जन्म कभी हुआ ही नहीं है।

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

‘यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।’ (भगवदगीताः 2.20)

लोग बोलते हैं- “बापू जी ! आपको बधाई हो।”

“किस बात की बधाई ?”

“आपका जन्म दिवस है।”

यह सब हम नहीं चाहते क्योंकि हम जानते हैं कि जन्म तो शरीर का हुआ है, हमारा जन्म तो कभी होता ही नहीं।

जन्म दिवस पर हमें आपकी कोई भी चीज-वस्तु, रूपया-पैसा या बधाई नहीं चाहिए। हम तो केवल आपका मंगल चाहते हैं, कल्याण चाहते हैं। आपका मंगल किसमें है ?

आपको इस बात का अनुभव हो जाय कि संसार क्षणभंगुर है, परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं, शरीर जन्मते-मरते रहते हैं परंतु आत्मा तो अनादिकाल से अजर अमर है।

जन्मदिवस की बधाई हम नहीं लेते… फिर भी बधाई ले लेते हैं क्योंकि इसके निमित्त भी आप सत्संग में आ जाते हैं और स्वयं को शरीर से अलग चैतन्य, अमर आत्मा मानने का, सुनने का अवसर आपको मिल जाता है। इस बात की बधाई मैं आपको देता भी हूँ और लेता भी हूँ…..

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।

‘जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान ईश्वर, तत्त्व से जानता है, वह मनुष्य में ज्ञानवान पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।’

(भगवदगीताः 10.3)

वास्तव में संतों का अवतरण-दिवस मनाने का अर्थ पटाखे फोड़कर, मिठाई बाँटकर अपनी खुशी प्रकट कर देना मात्र नहीं है, अपितु उनके जीवन से प्रेरणा लेकर व उनके दिव्य गुणों को स्वीकार कर अपने जीवन में भी संतत्त्व प्रकट करना ही सच्चे अर्थों में उनका अवतरण-दिवस मनाना है।

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जन्मदिवस पर महामृत्युंजय मंत्रजप व हवन

जन्मदिवस के अवसर पर महामृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए घी, दूध, शहद और दूर्वा घास के मिश्रण की आहूतियाँ डालते हुए हवन करना चाहिए। ऐसा करने से आपके जीवन में कितने भी दुःख, कठिनाइयाँ, मुसीबतें हों या आप ग्रहबाधा से पीड़ित हों, उन सभी का प्रभाव शांत हो जायेगा और आपके जीवन में नया उत्साह आने लगेगा। अथवा शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष का दोनों हाथों से स्पर्श करते हुए ॐ नमः शिवाय का 108 बार जप करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 207

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