सौ प्रतिशत दुःख मिटाने का साधन

सौ प्रतिशत दुःख मिटाने का साधन


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

संसार के विषय विकारों में, बेईमानी में, दादागिरी में अगर दुःख मिटाने की ताकत होती तो लोग निर्दुःख हो जाते। धरती का कोई भी माई का लाल दादागिरी करके, चालाकी करके, कुर्सी पाकर अथवा कुछ भी पाकर निर्दुःख हो जाय यह सम्भव नहीं है। संसारी सुखों के प्रभाव से दुःख दब जाते है और सुख भोक्ता खोखला होता जाता है, अंत में बेचारा दुःखी होकर मर जाता है।

पचास प्रतिशत दुःख मिटाने की ताकत शुभकर्मों में है और नब्बे प्रतिशत दुःख मिटाने की ताकत भक्ति में है। संसार के विषय-विकारों और चालाकियों में दुःख मिटाने की ताकत नहीं, दुःख दबाने की कला है। जैसे अंग्रेजी दवाओं से बीमारी दबती है और समय पाकर फिर उभरती है। गंदगी है समझकर चादर डाल दी तो गंदगी दब गयी लेकिन चादर भी गंदगी के रूप में बदल जायेगी।

दुःख हम चाहते नहीं, फिर भी दुःख आता है तो इसका कारण क्या है ? और सभी लोगों को एक ही घटना से एक जैसा दुःख नहीं होता है। जिसकी जिस वस्तु में जितनी ज्यादा आसक्ति होती है, उसको उस वस्तु के चले जाने पर उतना ही ज्यादा दुःख होता है।

दो व्यक्ति जा रहे हैं। उनके शरीर पर कोई खास कपड़ा नहीं है, पैर में जूता नहीं है, सिर पर छाता नहीं है, टोपी नहीं है, साधारण फटे कपड़े में जा रहे हैं। उनमें एक व्यक्ति विरक्त है, फक्कड़ है मस्ती से जा रहा है, दूसरा व्यक्ति अभावग्रस्त होकर, दुःखी होकर जा रहा है। एक को चीजों की परवाह नहीं है तो उसको दुःख नहीं है और दूसरे के मन में इच्छा है परंतु चीजें नहीं है तो वह इच्छा ही उसको पीड़ा दे रही है और वह ज्यादा दुःखी हो रहा है।

दुःख मिटाने के कई तरीके हैं लेकिन वे सब थोड़े-थोड़े समय के लिए प्रभाव दिखते हैं और दुःख मिटते नहीं दबाते हैं। जैसे – धन के प्रभाव से दुःख थोड़ा दबा पर फिर अहंकार आया कि ‘मैं धनी हूँ, फलाने के पास नही है, मैंने ऐसा कर लिया…।’ सत्ता के प्रभाव से दुःख दबा पर फिर बेचार सत्तावालों को भी देखो तो क्या क्या फजीहतियाँ हो जाती हैं ! तो अब दुःख मिटाने का सही तरीका क्या है ? भगवान कहते हैं-

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।

‘जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तता जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है – वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है।’

(गीताः 12.17)

जो अनुकूल चीजें पाकर हर्षित नहीं होता, प्रतिकूलता में शोकातुर नहीं होता, जो ऐसा मानता है कि यह सब बदलने वाला है और मुझ आत्मा में शांत रहता है या आत्मा में सतर्क रहता है ऐसा भक्तिमान मुझे प्रिय है। वह नब्बे प्रतिशत दुःख के सिर पर पैर रखकर परमात्मचैतन्य प्रभु में रहता है।

सामान्य आदमी के जीवन में दुःख आता है तो वह समझता है, ‘मेरे पाप का फल है या फलाने ने यह करा दिया – वह करा दिया….।’ कर्मवादी कर्म के अनुसार अपने को या दूसरे को कोसता है। दुःख आया तो ज्योतिषी बोलेगाः ‘तुम्हारे ग्रह ठीक नहीं है, शनि चौथे गृह में है, राहू का प्रकोप है…..।’ टोने-टोटके वाला बोलेगाः ‘तुम्हारे पर किसी ने टोना-टोटका किया है। फलाने समय पर तुम वहाँ से पसार हुए हो, उसका उतारा तुम्हारे पर चढ़ गया है।’ वैद्य को बोलोगे तो बोलेगाः ‘पित्त बढ़ गया है, मौसम ऐसा है और तुम देर रात तक जागे हो इसलिए तुमको यह बीमारी है।’ डॉक्टर के पास जाओगे तो बोलेगाः ‘तुम्हारे सो एण्ड सो विटामिन्स में सो एण्ड सो प्रोब्लेम है। जाओ चेकअप कराओ, फलाना टेस्ट कराओ।’ अगर किसी मुल्ला-मौलवी के पास जाओगे तो बोलेगा कि ‘कोई भूत पिशाच की छाया चढ़ गयी है। यह ताबीज ले लो….।’ किसी भक्त के पास जाओगे तो वह कहेगा कि ‘भाई ! भगवान तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं। भगवान का सुमिरन करो, भगवान सब ठीक करेंग, अल्लाह-ताला ठीक करेंगे…।’ लेकिन आत्मज्ञानी गुरु के पास जाओ तो वे बोलेंगे कि ‘भाई ! ये सुख और दुःख अनुकूलता और प्रतिकूलता से होते हैं। अनुकूलता में आसक्ति है तो वह हुई तो सुख होता है और नहीं हुई तो दुःख होता है। प्रतिकूलता नहीं चाहते हैं और हुई तो दुःख होता है। तुम यूँ करो कि प्रतिकूलता को भी आने-जाने वाली समझो। सुख-दुःख सपना है, उनको जाननेवाला परमात्मा अपना है। उस परमात्मा के ध्यान में, प्रीति में और ज्ञान में गोता मारो न !’

भगवान सर्वनियामक हैं, सर्वनियंता हैं, सर्वसमर्थ हैं, सुहृद भी हैं और ज्ञानस्वरूप भी हैं। कोई समर्थ हो लेकिन सुहृद नहीं हो तो आपका क्या भला करेगा ! भगवान ही सुहृद है, समर्थ हैं और पूर्ण ज्ञान व सामर्थ्य के धनी हैं। इसलिए भगवान की भक्ति से नब्बे प्रतिशत दुःख आसानी से मिट जाता है। दस प्रतिशत दुःख रहता है कि भगवान के विरह में कभी-कभी द्वैत बना रहता है, कभी भगवान के मिलन की इच्छा बनी रहती है अथवा भगवान नाराज न हो जायें इस प्रकार का भाव बना रहता है परंतु तत्त्वज्ञान हो जाय तो भगवान का आत्मा और अपना आत्मा एक ही है – एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति…. ऐसा समझते ही पूर्ण दुःख सदा के लिए मिट जाता है।

ब्रह्म गिआनी सदा निरलेप।।

जैसे जल महि कमल अलेप।।

तो शुभकर्म के प्रभाव से, ग्रह-नक्षत्र के प्रभाव से तथा खानपान में सावधान रहकर विधिवत् जियें तो पचास प्रतिशत दुःख आप मिटा सकते हैं। भक्तिभाव से रहे तो नब्बे प्रतिशत दुःख आप मिटा सकते हैं और तत्त्वज्ञान हो जाय तो महाराज ! दुःखद परिस्थितियाँ तो आयेंगी-जायेंगी परंतु आपके चित्त में दुःखाकार वृत्ति नहीं बनेगी। आपके चित्त में जो चैतन्य है, वह चमचम चमकता रहेगा, भूतकाल का शोक सदा के लिए चला जायेगा, भविष्य का भय उभरेगा ही नहीं और वर्तमान की सत्यता आपकी बाधित हो जायेगी, ऐसी स्थिति तत्त्वज्ञान से, ब्रह्मज्ञान से होती है।

भक्ति एक ऐसा रसायन है जो दुःख  से सुखस्वरूप ईश्वर को प्रकट कर देता है। जैसे खाद दिखती है तो साधारण है किंतु खेत में डाली जाने पर फल-फूल बन जाती है, ऐसे ही भक्ति तो महाराज ! भगवद्सत्ता को प्रकट कर देती है। भक्ति नब्बे प्रतिशत दुःखों को मिटाने में सक्षम है और तत्त्वज्ञान सौ प्रतिशत दुःखों को सदा के लिए बाधित कर देता है। फिर रोग, बीमारी, पीड़ा आयेगी लेकिन ब्रह्मज्ञान के बल से आपको लगेगा कि रोग शरीर को होता है, मान-अपमान शरीर का हुआ है, राग-द्वेष बुद्धि में है, हर्ष शोक मन में है लेकिन हम हैं अपने-आप हर परिस्थिति के बाप ! फिर महापुरुषों की नाईं जीवन स्वाभाविक हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 208

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